-राम पुनियानी



कुछ प्रमुख समाचारपत्रों (16 दिसम्बर 2012) में अंदर के पृष्ठों पर यह खबर थी कि राष्ट्रीय जांच एजेन्सी (एनआईए) ने मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर के नजदीक से समझौता एक्सप्रेस धमाके के तीसरे बाम्बर राजेन्द्र चौधरी को गिरफ्तार कर लिया है। एनआईए द्वारा दायर किए गए पूरक आरोपपत्र में चौधरी को इस बम धमाके के प्रमुख आरोपियों में से एक बताया गया है। समझौता एक्सप्रेस में सन् 2007 में हुए धमाके में 68 लोग मारे गए थे जिनमें से 43 पाकिस्तानी थे। जांच में पता चला कि ब्रीफकेसों में बंद विस्फोटक सामग्री, चार विभिन्न लोगों ने, ट्रेन में अलग-अलग स्थानों पर रखी थी। ये लोग आरएसएस प्रचारक सुनील जोशी, संदीप डांगे और रामचन्द्र कालसांगरा के निर्देशों पर काम कर रहे थे। इनमें से सुनील जोशी की बाद में हत्या हो गई। भगवा आतंकी शिविर के कई सदस्य पहले ही सींखचों के पीछे हैं। इनमें शामिल हैं स्वामी असीमानंद और उनके साथी। इन लोगों ने मक्का मस्जिद, मालेगांव और अजमेर आदि में मुस्लिम धार्मिकस्थलों पर या उनके नजदीक, ऐसे मौकों पर विस्फोट किए जब वहां बड़ी संख्या में मुसलमान इकट्ठा थे। जाहिर है, उनका इरादा अधिक से अधिक संख्या में मुसलमानों को मारना था।


इस खबर के बारे में एक अत्यंत चौंकाने वाली बात है मीडिया द्वारा इसे बहुत कम महत्व दिया जाना। अधिकतर बड़े अखबारों ने तो इसे पहले पृष्ठ पर छापने लायक भी नहीं समझा। हम सबको याद है कि जब इन्हीं बम विस्फोटों के लिए निर्दोष मुस्लिम युवकों को जिम्मेदार बताकर गिरफ्तार किया गया था तब अखबारों ने 8-8 कालमों की बैनर हेडलाईनें छापीं थीं। जहां तक हिन्दी मीडिया का सवाल है, उसने इस खबर में सभी जरूरी मसाले मिलाकर इसे चटपटा बनाने का पूरा प्रयास किया था। सारा जोर तथाकथित आरोपियों के धर्म पर था। इसके बाद, अदालतों के निर्णय आए, जिनमें इन युवकों को निर्दोष बताकर बरी कर दिया गया। ये खबरें भी अखबारों को बहुत महत्वपूर्ण नहीं लगीं और अधिकतर ने इन्हें छठवें या सातवें पेज पर सिंगल कालम में जगह दी। मीडिया के इन दुहरे मानदंडों से यह साफ है कि हमारे देश के बड़े अखबारों के संपादक और पत्रकार पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, विशेषकर जब मामला साम्प्रदायिक या आतंकी हिंसा का हो। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया विशेषज्ञों और टीकाकारों ने इस पूर्वाग्रह को हमेशा नजरअंदाज किया। साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों में मीडिया, या तो पुलिस के और या फिर समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के घटनाक्रम के विवरण को बिना कोई प्रश्न पूछे या शंका जताए स्वीकार कर लेता है। आतंकी हिंसा के मामले में मीडिया रपटों की भाषा एवं शैली से यह स्पष्ट झलकता है कि इन रपटों को लिखने और संपादित करने वालों का यह अटूट विश्वास है कि सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं।


साम्प्रदायिक और आतंकी हिंसा के मामले में पुलिस का दृष्टिकोण भी यही रहता है। हर आतंकी हमले के बाद, मुस्लिम युवकों को जेल में ठूंस दिया जाना आम था और यह सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक कि मालेगांव धमाकों और पूर्व अभाविप कार्यकर्ता साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की मोटरसाईकिल के बीच के संबंध के सुबूत हेमन्त करकरे ने नहीं खोज निकाले। तब तक महाराष्ट्र के आतंकवाद निरोधक दस्ते के प्रमुख इन धमाकों के उन संदेहियों को पूरी तरह नजरअंदाज करते आ रहे थे जो संघ या उसकी विचारधारा से जुड़े थे। अप्रैल 2006 में आरएसएस कार्यकर्ता राजकोंडवार के महाराष्ट्र के नांदेड़ स्थित निवास पर बम विस्फोट हुआ था। मकान पर बजरंग दल का बोर्ड टंगा हुआ था और छत पर भगवा झंडा लहरा रहा था। जांच को आगे बढ़ाने के पर्याप्त कारण थे और अगर ऐसा किया गया होता तो जो लोग इस समय जेल में हैं, वे उसी समय पकड़ लिए जाते और सैकड़ों निर्दोषों की जान बच जाती।  परंतु चूंकि पुलिस के अधिकारियों ने सुबूतों की बजाए अपने पूर्वाग्रहों पर ज्यादा भरोसा किया इसलिए जांच आधी-अधूरी छूट गई और अपराधी एक के बाद एक विस्फोट करते रहे। पुलिस अधिकारियों के लिए किसी हिन्दू को आतंकी हमले के लिए गिरफ्तार करना न सोचे जा सकने वाला विचारथा। पुलिस और मीडिया दोनों ने सोचे जा सकने वाले विचारको तरजीह दी और मुसलमानों को खलनायक निरूपित किया जाता रहा।

जब हेमन्त करकरे ने यह तय किया कि वे समाज में प्रचलित मान्यताओं पर नहीं बल्कि पुलिस अफसर के बतौर उन्हें दिए गए प्रशिक्षण के आधार पर काम करेंगे तो उनके रास्ते में बहुत से कांटे बिछा दिए गए। उन्हें राजनैतिक दबाव का सामना भी करना पड़ा। बाल ठाकरे ने सामनामें लिखा कि हम हेमन्त करकरे के मुंह पर थूकते हैं और नरेन्द्र मोदी ने करकरे को देशद्रोही बताया। हेमन्त करकरे की मौत से इस जांच को गहरा धक्का लगा परंतु करकरे ने एक नई दिशा में सोचने की जो राह खोल दी थी वह बंद नहीं हुई। न सोचा जा सकने वाला विचार‘, ‘सोचा जा सकने वाला विचारबन गया।

स्वामी असीमानंद के मजिस्ट्रेट के सामने दिए गए इकबालिया बयान, जिससे वे बाद में पीछे हट गए, से कई ऐसे सुबूत सामने आए जिनकी सूक्ष्म जांच से राजस्थान एटीएस, एनआईए व अन्य जांच एजेन्सियां सच तक पहुंचने में सफल हुईं।

जिस समय मुस्लिम युवकों को बिना सोचे-समझे गिरफ्तार किया जा रहा था तब कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सरकार और जांच एजेन्सियों का ध्यान इस ओर आकर्षित करने की कोशिश की थी कि असली दोषियों को नजरअंदाज कर निर्दोषों को फंसाया जा रहा है परंतु उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती साबित हुई। एक जनन्यायाधिकरण ने बलि के बकरे और पवित्र गाएंशीर्षक से अपनी रपट में जनता और राज्यतंत्र को बम विस्फोटों की त्रासद सच्चाई से अवगत कराने की कोशिश की थी। इस रपट में यह बताया गया था कि असली अपराधियों को उनकी कार्यवाहियां जारी रखने के लिए स्वतंत्र छोड़ा जा रहा है और मासूमों को जेलों में डाला जा रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन गिरफ्तारियों से निर्दोष मुस्लिम युवकों के कैरियर और जिंदगियां बर्बाद हो गईं। आज भी बाटला हाऊस मुठभेड़ और आजमगढ़ के युवकों की आतंकी हमलों में तथाकथित भागीदारी के संबंध में कई प्रश्नचिन्ह लगे हुए हैं। कुछ राजनीतिज्ञों ने यह मुद्दा उठाया भी परंतु अब तक तो हमारी सरकारें उन मुस्लिम युवकों और उनके परिवारों के दुःखों के प्रति अपनी आखें मूंदे हुए हैं जिन्हें जबरन आतंकी घोषित कर दिया गया था। एनआईए द्वारा की जा रही सूक्ष्म जांच से कुछ आशा अवश्य जागी है कि असली दोषी पकड़े जाएंगे और उन्हें अदालतों से सजा मिलेगी।

काफी देर से ही सही, परंतु रामविलास पासवान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर इस मुद्दे पर एक ज्ञापन सौंपा। प्रधानमंत्री ने वायदा किया कि सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि निर्दोष युवकों की गिरफ्तारियों का सिलसिला बंद हो, उन्हें न्याय मिले और उनका पुनर्वसन हो।प्रधानमंत्री ने यह आश्वासन भी दिया कि वे इस मामले में गृहमंत्री से बात करेंगे। हम नहीं जानते कि सरकार उन निर्दोष युवकों को हुए नुकसान की भरपाई कैसे करेगी जिन्होंने असंवेदनशील तंत्र के हाथों घोर कष्ट भोगे। क्या सरकार बाटला हाऊस मुठभेड़ की निष्पक्ष जांच करवाने का साहस दिखाएगी, ताकि सच सामने आ सके?

यह न मानने का कोई कारण नहीं है कि यदि नांदेड़ धमाके, जिसमें बजरंग दल के कार्यकर्ता बम बनाने के प्रयास में मारे गए थे, की तार्किक जांच हुई होती तो बाद में हुए कई धमाके रोके जा सकते थे। यह केवल एक कयास है परंतु ऐसा होता, इसकी काफी संभावना है। क्या हमारा तंत्र इससे सही सबक सीखेगा और अधिक निष्पक्ष जांच प्रक्रिया अपनाएगा?

पिछले एक दशक में भारत में कई आतंकी हमले हुए हैं। इनकी सूची काफी लंबी है। इनमें शामिल हैं नांदेड़, मालेगांव, मक्का मस्जिद, समझौता एक्सप्रेस आदि। क्या इनके लिए मिथ्या आधारों पर फंसाए गए निर्दोषों को न्याय मिलेगा?