उग्र
हिंदुत्व को समझने के लिए, हमें
भारत में उसकी जड़ों के साथ ही उसके विदेशी संबंधों-प्रभावों की पड़ताल करनी होगी।
1930 में
हिंदू राष्ट्रवाद ने ‘भिन्न’ लोगों
को ‘दुश्मनों’ में
रूपांतरित करने का विचार यूरोपीय फ़ासीवाद से उधार लिया। उग्र
हिंदुत्व के नेताओं ने मुसोलिनी और हिटलर जैसे सर्वसत्तावादी नेताओं तथा समाज के
फ़ासीवादी मॉडल की बार-बार सराहना की। यह
प्रभाव अभी तक चला आ रहा है (और इसकी वजह वे सामाजिक-आर्थिक कारण हैं जो अब तक
मौजूद हैं)। मजेदार बात यह है कि स्वदेशी और देशप्रेम की चिल्ल-पों मचाने वाले
लोग, खुद विदेशों से राजनीतिक-और-सांगठनिक विचार
लेकर आए या उनके स्पष्ट प्रभाव में रहे हैं। हिंदुत्ववादी
नेताओं ने फासीवाद, मुसोलिनी
और इटली की तारीफ में 1924-34 के
बीच ‘केसरी’ में
ढेरों संपादकीय व लेख प्रकाशित किए। संघ के संस्थापकों में से एक मुंजे 1931 में
मुसोलिनी से मिल कर आया था। और वहीं से लौट कर ”हिंदू
समाज” के सैन्यीकरण का खाका तैयार किया। इस
संबंध में ‘इकोनॉमिकल
एंड पोलिटिकल वीकली’ के
जनवरी 2000 अंक में
मारिया कासोलारी का शोधपरक लेख प्रकाशित
किया गया था, जिसमें
कासोलारी ने आर्काइव/दस्तावेजों से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। इस लेख में बताया
गया है कि किस तरह सावरकर से लेकर गोलवलकर तक ने हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार
की सराहना की थी। यह शोध हिंदुत्व बिग्रेड पर हिटलर-मुसोलिनी के स्पष्ट प्रभाव
और विचारों से लेकर तौर-तरीकों घृणा फैलाने वाले प्रचार तंत्र तक में विदेशी
फासिस्टों की नकल को तथ्यों सहित साबित करता है।
अपनी बात
आज सांप्रदायिक हिंदुत्व की शक्तियों को समझने के लिए उनकी
स्वदेशी और विदेशी जड़ों का अध्ययन करना अत्यंत जरुरी है। अभी तक तो प्रायः लोग
आर.एस.एस. के बारे में इतना भर जानते थे की ये हिटलर को अपना गुरु मानते हैं और
लोकतंत्र तथा अल्पसंख्यकों के कट्टर दुश्मन हैं, परन्तु 1930 के दशक में जब
आर.एस.एस. अपने संगठन को मजबूत बनाने की योजनाएँ बनाने में लगा था, इनके शीर्ष नेता
वास्तव में इटली में जाकर मुसोलिनी से मिले, उसकी सेनाओं की
प्रशिक्षण-पद्धति को जाना-समझा तथा यहाँ भारत में वापिस आकर उसी पद्धति को लागू
करने का प्रयास किया। ये तमाम रहस्योद्घाटन इटली की लेखिका मारिया कासोलारी ने
अपने महत्वपूर्ण शोध लेख ‘हिंदुत्वाज़ फ़ौरन टाइ-अप इन द थर्टीज़’ में किया है, जो की इकॉनोमिक
एंड पॉलिटिकल वीकली 22 जनवरी, 2000 के अंक में छपा है।
इस लेख को पड़ने के बाद यह बात साफ़ हो जाती है कि
निक्करधारियों कि यूनिफॉर्म वास्तव में मुसोलिनी कि गुंडा-वाहिनी कि यूनिफॉर्म थी।
यह हास्यप्रद है कि यही लोग आज कानपुर में लड़कियों को धमकी दे रहे है कि विदेशी
जीन्स मत पहनो। आतंरिक ‘दुश्मनों’ से निपटने के लिए लाठी चलाना भी इसी वाहिनी के सैन्यीकरण
के लिए शुरू किया गया था। आर.एस.एस. की कार्य-पद्धति को समझने में यह लेख बहुत मदद
करता है। और जो लोग इस खतरे से लड़ना ज़रूरी समझते हैं, उनके लिए यह एक
अनिवार्य लेख है।
श्री टी. डी. वैरिया ने इस लेख का अनुवाद किया है और श्री
विष्णु खरे ने भाषा संपादन में मदद की है। मैं उनका आभारी हूँ।
-अजेय कुमार
संपादक, उद्भावना
हिंदू राष्ट्रवाद की विदेशी जड़ें
मारिया कासोलारी
आभार
पार्थासार्थी गुप्ता,
टी.
आर. सरीन,
ए.
आर,
कुलकर्णी
और भानु कपिल ने प्रस्तुत पर्चे की सामग्री एकत्र करने के लिए भारत में मेरे निवास
को सुगम और फलदायक बनाया। इटली में इस पर्चे को लिखते हुए मैंने माइकेल गुगलिएल्मो
टोरी की आलोचना और सुझावों की मदद ली, जिसमे
मुझे पहले मसौदे को काफी हद तक सुधारने के लिए बाध्य किया। उन सबकी मदद और दोस्तों
के लिए मैं उनका धन्यवाद करती हूँ। निस्संदेह यह सामान्य अस्वीकृति कायम है इस लेख
की विषयवस्तु और इसमें रह गई गलतियों के लिए केवल मैं ही अकेली जिम्मेदार हूँ।
-लेखिका
अभिलेखागारों के प्रमाण
सुमित सरकार के शब्दों में ‘फासीवाद
कुछ ही दिन पहले तक एक विशेषण मात्र’ था
(‘
द
फ़ासिज़्म ऑफ द संघ परिवार’, इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल
वीकिली ,
30,जनवरी, 1993, पृ.
163)।
आज यह हिंदू सैन्यवादी संगठनों की विचारधारा और काम को परिभाषित कर रहा है। हिंदू
फंडामेंटलिज्म के बारे में आज यही आम धारणा है। सभी विरोधी और आलोचक (ज़रुरी नहीं
आलोचकों का नज़रिया नकारात्मक ही हो) इसे स्वीकार करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ (आरएसएस) और आम तौर से इसके हिंदू सैन्यवादी संगठनों1को
परिभाषित करना राजनीतिक पंडितों और लेखाखों की चिंता का अहम विषय रहा है। वे
इन्हें अलोकतांत्रिक, अधिनायकवादी,
अर्धसैनिक,
अतिवाद,
हिंसक
प्रवर्तियों और फ़ासीवादी विचारधारा व आचरण के प्रति सहानुभूति के रूप में
परिभाषित करते रहे हैं। ऐसा साहित्य गाँधी जी की हत्या से शुरू हुआ और आज भी जारी
है। अमर्त्य सेन की इंडिया एट रिस्क (द न्यूयॉर्क रिव्यु ऑफ बुक्स,
अप्रैल
1993),
और
इस विषय की नवीनतम प्रकाशित पुस्तक क्रिस्टोफ़ जफ्रेलोट की द हिंदू नेशनलिस्ट
मूवमेंट इन इंडिया (वाइकिंग, नई
दिल्ली,
1996), या बाबरी मस्ज़िद के ध्वंस के तुरंत बाद
प्रकाशित
सुविदित
खाकी
शार्ट्स
सैफृॉनफ़्लैग्स (ओरिएंट लांगमैन, नई दिली,
1993), आदि, इसी
श्रंखला की अगली कड़ियां हैं। नतीजतन हिंदू फंडामेंटलिज्म की फ़ासीवादी वैचारिक
प्रष्ठ्भूमि को स्वीकार करके चला जाता है – बाकायदा
विश्लेषण के ज़रिए कभी प्रमाणित नहीं किया जाता। यह नतीजा कुछ हद तक इस तथ्य से
स्पष्ट होता है कि अधिकांश उपरोक्त लेखक राजनीतिक विशेषज्ञ हैं,
न
कि इस=इतिहासकार।
यह एक तथ्य है कि दूसरे विश्व युद्ध के आसपास
के वर्षों में जीन लोगों ने हिंदू अतिवादी ताकतों के उभार को देखा,
वे
पहले ही आश्वस्त थे कि संघ का नज़रिया फासीवाद है। इन संगठनो और इनके चरित्र के
बारे में कांग्रेस की समझ काफ़ी गहरी थी। नेहरू के विचारों का ज़िक्र करने कि यहाँ
कोई आवश्यकता नहीं है, जो पहले से ही सर्वविदित
हैं। नेहरू ने शुरू से ही इन संगठनों को साम्प्रदायिक और फ़ासीवादी करार दिया था।
कम ज्ञात तथ्य यह है कि, जैसाकि
कांग्रेस के भीतर प्रसारित गोपनीय रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है,
जो
संभवतः गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर पहले प्रतिबन्ध के समय प्रसारित की गयी
थी,
आरएसएस
और फ़ासीवादी संगठनों के चरित्र में समानता को पहले ही स्वीकृत मानकर चला गया था।
वास्तव
में स्वयं रिपोर्ट में ही बताया गया है कि :
1.
आर.एस.एस. ने नागपुर में एक तरह के ‘बाइॅज़
स्काउट’
आंदोलन
की शुरुआत की। धीरे-धीरे यह एक हिंसक प्रवृति वाले साम्प्रदायिक सैन्यवादी संगठन
में बदल गया
2.
आरएसएस शुद्धतः महाराष्ट्रीय
ब्राह्मणों का संगठन रहा है। मध्य प्रान्त और महाराष्ट्र के अधिकांश लोग
गैर-ब्राह्मण महाराष्ट्रीय हैं और उनकी इस संगठन से कोई सहानुभूति नहीं है।
3.
दूसरे प्रान्तों में भी प्रमुख संगठनकर्ता और
पूर्णकालिक कार्यकर्ता अनिवार्यतः महाराष्ट्रीय ब्राह्मण ही पाए जाते हैं।
4.
अंग्रेजों के हटने के बाद महाराष्ट्रीय ब्राह्मण
आरएसएस के ज़रिए भारत में “पेशवा राज”
स्थापित
करने के स्वप्न देखते रहे हैं। आरएसएस का झंडा पेशवाओं का भगवा झंडा है। अंग्रेजों
से पराजित होने वाले अंतिम शासक महाराष्ट्रीय थे। इसीलिए भारत में अंग्रेजी राज के
अंत के बाद महाराष्ट्रियों को ही राजनीतिक सत्ता सौंपी जाए।
5.
आरएसएस गुप्त और हिंसक तरीके अपनाता है,
जो ‘फासीवाद’
को
प्रोत्साहित करते हैं। सत्यनिष्ठ साधनों और संवैधानिक तरीकों का कोई आदर नहीं
होता।
6.
संगठन का कोई संविधान नहीं है;
इसके
लक्ष्य और उद्देश्यों को कभी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया। आम लोगों को
सामान्यतः बताया जाता है कि इसका उद्देश्य केवल शारीरिक प्रशिक्षण है,
लेकिन
असली उद्देश्य आरएसएस के आम सदस्यों को भी नहीं बताए जाते। केवल ‘अंदरूनी
हलकों’
को
ही विशवास मैं लिया जाता है।
7.
संगठन के कोई रिकॉर्ड नहीं हैं,
कोई
विवरण नहीं हैं, न ही कोई सदस्यता रजिस्टर हैं। आमदनी और खर्च
के भी कोई रिकॉर्ड नहीं हैं। इस तरह संगठन के मामले में आरएसएस एकदम गुप्त संस्था
है। फलस्वरूप यह… ( भारतीय राष्ट्रीय
अभिलेखागार, सरदार पटेल पत्रव्यवहार,
माइक्रोफिल्म,
रील
सं. ३ ,
‘आरएसएस पर टिपण्णी,’ दिनांकरहित
)।
दुर्भाग्य से दस्तावेज़ यहां आकार अचानक रुक
जाता है,
लेकिन
इसमें आरएसएस की ‘प्रतिष्ठा’
के
बारे में काफ़ी प्रमाण हैं जो 1940 के दशक के अंतिम वर्षों तक
इसने पहले ही अर्जित कर ली थी।
लेकिन यह दस्तावेज़ किसी भी तरह विशिष्ट नहीं
है। हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों, उनके विरोधियों और पुलिस
द्वारा उपलब्ध कराए गए बुनियादी स्त्रोतों की सही छानबीन से ऐसे संगठनों और इतालवी
फ़ासीवाद के बीच संबंधों के दायरे और उनके महत्व का पता लगना तय है। वास्तव में
सबसे महत्वपूर्ण हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों ने फ़ासीवाद विचारों को न केवल पूरे
होशोहवास में जानबूझकर अपनाया, बल्कि प्रमुख हिंदू
संगठनों के प्रतिनिधियों और फ़ासीवादी इटली के बीच सीधे संपर्क होने के कारण भी
ऐसा हुआ।
इसे प्रमाणित करने के लिए मैं उस संदर्भ को 1920
के
दशक के शुरू के वर्षों से पुनःनिर्मित करूंगी, जिससे
इतालवी फ़ासीवाद में हिंदू अतिवाद की रुचि पैदा हुई। महाराष्ट्र में यह रुचि आमतौर
से साझी थी और अवश्य ही इसी ने 1931 में बीएस मुंजे की इटली
यात्रा को प्रेरित किया होगा। अगला कदम इस यात्रा के प्रभावों की छानबीन करना है,
अर्थात
बीएस मुंजे ने किसी तरह फ़ासीवाद आदर्शों को हिंदू समाज को हस्तांतरित करने और इसे
फासीवाद पैटर्नों पर सैन्य रूप में संगठित करने की कोशिश की थी। इस पुस्तिका का एक
दूसरा उद्देश्य यह दिखाना है कि किस तरह 1930 के
दशक के आसपास, हिंदू राष्ट्रवाद की विभिन्न धाराओं और
प्रमुख हिंदू नेताओं के बीच इतालवी सरकार की प्रशंसा आमतौर से साझी बात थी।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान प्रमुख हिंदू
संगठनों द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण की ओर विशेष ध्यान दिया जाएगा। उन निर्णायक
वर्षों में हिंदू राष्ट्रवाद अंग्रेजों की ओर समझौतापरस्ती और तानाशाहों के प्रति
सहानुभूतिपूर्ण रुख के बीच बेचैनी से झूलता नज़र आया। वास्तव में इसमें अचम्भे की
कोई बात नहीं है, क्योंकि —
जैसा
आप देखेंगे –- इन वर्षों में सैन्यवादी हिंदू संगठन
अंग्रेजों से लड़ने की बजाय तथाकथित आंतरिक शत्रुओं से लड़ने की तैयारी कर रहे थे
और स्वयं को हथियारबंद कर रहे थे। आमतौर से, इस
पर्चे का उद्देश्य क्रिस्टोफर जैफरलेट की इस थीसिस का खंडन करना है की जहाँ तक
जाति और नेता की केंद्रीयता की अवधारणा का संबंध है, एक
ओर नाज़ी और फ़ासीवाद विचारधारा और दूसरी और आरएसएस के बीच गहरा अंतर है
उपरोक्त कृतियों मे से कोई भी उस समस्या से
नहीं निपटती, जिसे मैं अत्यधिक महत्वपूर्ण मानती हूँ,
जाफ्रे़लोट
की कृतियां भी नहीं, अर्थात फ़ासीवादी सरकार के
प्रतिनिधियों के साथ सीधे संबंधों का होना, जिनमे
मुसोलिनी और हिंदू राष्ट्रवादी शामिल हैं। ये संपर्क प्रमाणित करते हैं फ़ासीवादकी
विचारधारा और व्यवहार में हिंदू राष्ट्रवाद की रुचि अमूर्त नहीं थी,
बल्कि
इससे भी काफ़ी बढ़कर थी।
फ़ासीवाद और मुसोलिनी में भारतीय हिंदू राष्ट्रवादियों
की रुचि एक आकस्मिक जिज्ञासा मात्र से पैदा नहीं हुई थी जो कुछ व्यक्तियों तक ही
सीमित हो,
बल्कि
इसे उस मनोयोग की पराकाष्ठा का परिणाम समझना चाहिए, जिसे
हिंदू राष्ट्रवादियों ने, विशेषकर महाराष्ट्र के
हिंदू राष्ट्रवादियों ने इतालवी तानाशाही और इसके नेता पर केंद्रित किया था। उन्हें
फ़ासीवाद में रूढ़िवादी क्रांति नज़र आई। इतालवी सरकार के पहले चरण से ही यह
अवधारणा मराठी अख़बारों में विस्तृत चर्चा का विषय रही।
1924 से 1935
तक केसरी ने
इटली,
फ़ासीवाद
और मुसोलिनी पर लगातार संपादकीय और लेख प्रकाशित किए। जिस बात ने मराठी पत्रकारों
को प्रभावित किया था, वह थी फ़ासीवाद का
समाजवादी उद्भव और यह तथ्य कि नई सरकार एक पिछड़े देश को एक अव्वल दर्जे के देश
में तब्दील करती प्रतीत हो रही थी। उस समय, भारतीय
लोग यह नहीं जान पाए कि इस जनोत्तेजक वक्तृता (शब्दाडंबर) के पीछे कोई सार नहीं
था।
इसके अलावा भारतीय प्रेक्षक आश्वस्त थे कि
फ़ासीवाद ने एक ऐसे देश में फिर से व्यवस्था क़ायम की थी,
जो
पहले राजनीतिक तनावों से ग्रस्त था। केसरी ने
अपने संपादकीयों की एक श्रृंखला में उदार सरकार से तानाशाही में तब्दीली को
अराजकता की जगह एक सुव्यवस्थित स्थिति में परिवर्तन बताया। मराठी अख़बार ने
मुसोलिनी द्वारा किए गए राजनीतिक सुधारों को, विशेषकर
संसद सदस्यों के चुनाव की जगह उनके नामांकन (वही, 17
जनवरी,
1928) और खुद संसद की जगह ग्रेट … ऑफ़
फ़ासिज़्म अर्थात फ़ासीवाद की महान… स्थान
दिया। मुसोलिनी का विचार जनतंत्र … और
इसकी अभिव्यक्ति तानाशाही के सिद्धांत में हुई। इस सिद्धांत के अनुसार राष्ट्र
के
लिए
जनतांत्रिक संस्थाओं की अपेक्षा ‘एक
व्यक्ति की सरकार अधिक उपयोगी और क़ाबिल होगी (वही, 17
जुलाई,
1928)। क्या यह सब ‘एक
नेतृत्व …’ (‘एक चालक अनुवर्तित्व’)
के
सिद्धांत की याद नहीं दिलाता, जिसे आरएसएस ने अपनाया है?
अंत में, 13
अगस्त,
1929 के एक लंबे लेख ‘इटली
एंड द यंग जनरेशन’ (इटली और नई पीढ़ियां) में
बतायाकिदेशको चलाने के लिए इटली में नई पीढ़ी ने पुरानी पीढ़ी का स्थान ले लिया
है। इसकी परिणति ‘हर क्षेत्र में इटली के …(तेज़)
आरोहण’
में
हुई। फ़ासीवादी आदर्शों पर इतालवी समान के गठन का लेख ने विस्तार से वर्णन किया।
इतालवी ….शासन
के प्रमुख कारण थे : तीव्र धार्मिक भावनाएं, … व्यापक
थीं;
परिवार
से घनिष्ठता; और परंपरागत मूल्यों का आदर्श यानी कोई
तलाक़ नहीं, कोई एकल (अविवाहित ……
को
वोट का अधिकार नहीं, घर में बैठना,
चूल्हा
फूंकना ही उनका एकमात्र कर्तव्य। तदुपरांत लेख फ़ासीवादी युवक संगठनों,
बलिल्ला
और अवांगार्दी पर अपना ध्यान केंद्रित करता है।
‘उद्भावना पुस्त्किा’ से साभार
2 Comments
मुंजे की मुसोलिनी से भेंट, हिटलर, मुसोलिनी से संघ के संपर्क और ऐसे दूसरे दस्तावेज संघ ने योजना के तहत अदृश्य कर दिए हैं। लेकिन देश में संघ-भाजपा के असर के साथ ही हिटलर की आत्मकथा की बिक्री में बढो़तरी भी हुई है। नेहरू और गांधी दोनों संघ के मकसद को लेकर आशंकित थे लेकिन पटेल जैसे बहुत से लोग कांग्रेस में संघ के प्रतिनिधि जैसी भूमिका में थे। गांधी की हत्या में भी उनकी भूमिका संदिग्ध है और बाद में संघ को बचाने में भी। इस जरूरी पोस्ट के लिए शुक्रिया।
ReplyDeletehttp://ek-ziddi-dhun.blogspot.in/2012/02/blog-post.html
Dear author the concept of nationalism came from Europe it is well known fact and every political party of India has taken it according their comfort.
ReplyDeleteHERE I AM NOT JUSTIFY THE ACT OF ANY ONE BUT ACT OF USA AND ALLIED COUNTRIES COULD NOT BE JUSTIFIED.NOW YOU CAN SEE THE EFFECT OF VICTORY OF USA.
DURING HEARING OF INTERNATIONAL JURY A INDIAN JUDGE SAID"IT IS JUDGMENT OF WINNER NOT A FARE DECISION WHAT WE ARE READING IT IS A WINNING SIDE VERSION.
WE CAN CRITICIZE ANY IDEOLOGY ON THE BASIS OF CERTAIN ISSUE BUT HERE YOUR BASE ARGUMENT IS SO WEAK.
I THINK YOU WILL TAKE COGNIZANCE.
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