वो नींद थी
जो सूखे-से पेड़ से टिककर आ जाती है

वो नींद थी जो रूप
निहारते हुए आती है तारे को
टकटकी लगाकर देखते हुए
आग तापते हुए पानी में
पत्थर पर नाव में उजाले में
रास्ते में रास्ते के बगल कहीं
पहुँचने के पहले

वो नींद थी जो
खोजने के भटकाव के बाद आती है जो परिव्राजकों को
आती है सूफियों को अवधूतों को फक्कडों को

जो ज़बान के नए तरीके से इस्तेमाल की तोहमत से जन्मी
पस्ती से आती है जो बहुत मोहब्बत की थकान के बाद आती है जो

वो गहरी नदी जैसी गहरा नींद थी जिसमें
सपने रहते थे गहरी नदी में रहती मछलियों जैसे

वो नींद थी
जो टूटी

वो नींद टूटी तो मैं गुल के गुलाब में बदलने का
खाब देख रहा था चौखट पर आवाजें सुनकर मैं जागा
और मैंने कहा : कहिये
मैं वली दकनी
मैं वली औरंगाबादी
मैं वली गुजराती

ये कहने के पीछे वो शरारत थी कि
कहीं भी मिल लो मेरे पास पते ही पते हैं
मैं अपनी नींद से यह सोचकर उठा था
कि कोई कहेगा बाबा रेख्ते में वो सुनाओ जो
पीवे नीर नैना का उसे क्या काम पानी सूँ वगैरह

लेकिन आये तो उनके अंदर से आवाज़ें
इस तरह नहीं निकलीं जैसे सुराही से पानी निकलता है

वे आये तो उन्होंने कहा ये सब
नहीं चलेगा जिसका मतलब था गली
के नुक्कड़ पर सत्तर साल से रहते आना
एक औरत का घड़े जैसा गर्भ एक बच्चे का
पचास पैसे लेकर एक दूकान तक दौड़ लगाना अस्सी
पतंगों वाले आसमान के आठ सौ रंग एक आदमी
का रात ग्यारह बजे लौटना बारह बजे खाना और एक बजे
सोने के पहले पांच पेज पढ़ना खड़ी बोली और उर्दू
का एक ही मातृत्व तीसरे महल में ख़याल के
शहद का छत्ता सुबह चार बजे बाल्टियों में पानी के गिरने की
मौसीकी नुक्ता एक बूढी स्त्री के हिलते दातों में टहलती
डगडग हँसी

वे आये तो जो कुछ उन्होंने कहा गर्व से
और सुना कुछ नहीं
उनके चेहरे पर किसी सूक्ति से
शर्मिंदा होने की शिकन नहीं थी

वे आये तो यार ढूँढता आया तेरी गली गली
वली वली वली वली वली वली की
पुकारें लगाते नहीं आये

उन्होंने मेरा मज़ार गिरा दिया
ढोलकें फोड़ दीं कव्वालियों की
सतरें काट दीं दीवान फाड़ दिया और कहा
निकल जाओ इस धरती से और इस
आसमान के नीचे से

मैं कहाँ जाऊं भाई इतना रहने के बाद
इतनी चीज़ों के बारे में इतना कहने के बाद
और जाऊं भी तो क्यों लेकिन रह भी कैसे पाऊँ
कि जला दिया जाऊं या ढहा दिया जाऊं
क्या कर जाऊं कहाँ जाऊं लेकिन जाऊं भी तो क्यों

शायद कि आपको याद हो कि एक दफा मैं
दक्कन से दिल्ली अपने दीवान के साथ गया था आज
मैं फिर दिल्ली की तरफ बढ़ रहा हूँ आहिस्ता
आहिस्ता बेआवाज़ पुकारता हुआ कबीर कि तर्ज़ पर कि
कौन आता है मेरे साथ
मैं चीनी पीर
मैं वली दकनी
मैं वली औरंगाबादी
मैं वली गुजराती
तीन सौ साल बाद जलावतन
बेवतन
मैं वली औरंगाबादी
मैं वली गुजराती

मैं वली दकनी कि मैं हूँ अजनबी बेरेख्ता
मैं बढूंगा जिस तरफ़ भी उस तरफ़ की रात है
स्याह हूँ मैं नसें फटतीं ये रहा मैं वो गिरा
सूखते इस पेड़ का जो काँपता-सा पात है
हैं खड़ी बोली में लिक्खीं कुछ खडी बातां ज़रूर
दूर होती जा रही दिल्ली कि अपनी मात है
किस तरह आऊँ कि मेरे पैर दुखते हैं वली
खून के छींटे नमक है और बासी भात है
मैं कहूँ किससे कहूँ कि क्या यही गुजरात है
साधु से ही पूछते हो क्या तुम्हारी जात है