उर्दू के मशहूर शायर और ज्ञानपीठ पुरूस्कार से सम्मानित अखलाक मोहम्मद खान साहब का निधन हो गया. दुनिया उन्हें उनके उपनाम शहरयार के नाम से जानती थी. कैंसर से लड़ रहे शहरयार साहेब ने छियत्तर साल का जीवन जिया.

"ख़्वाब का दर बंद है" के लिए उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था. उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फ़िराक सम्मान सहित कई अन्य पुरस्कारों से भी उन्हें नवाजा गया था.

बरेली के आंवला कस्बे में १९ जून १९३६ को जन्मे शहरयार की तालीम का सिलसिला आंवला, बरेली और अलीगढ़ में हुआ. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पी एच डी करने के बाद उन्होंने १९६६ से वहीँ पढाना शुरू किया. इसके पिछले साल ही उनका पहला कविता संग्रह आ चुका था.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से ही वे १९९६ में उर्दू विभाग के चेयरमैन के पद से रिटायर हुए.

व्यापक भारतीय जनमानस में उनका स्थान "उमराव जान" की उनकी लिखी ग़ज़लों ने पुख्ता किया. "गमन", "आहिस्ता-आहिस्ता" और "अंजुमन" जैसी फिल्मों के गाने भी उन्होंने लिखे.

मरहूम शहरयार जी को श्रद्धांजलि के तौर पर पेश हैं उनकी कुछ रचनाएँ.


ख़्वाब का दर बंद है


मेरे लिए रात ने

आज फ़राहम किया 

एक नया मर्हला 



नींदों ने ख़ाली किया 

अश्कों से फ़िर भर दिया 

कासा: मेरी आँख का 
और कहा कान में 



मैंने हर एक जुर्म से 

तुमको बरी कर दिया 

मैंने सदा के लिए 
तुमको रिहा कर दिया 



जाओ जिधर चाहो तुम 

जागो कि सो जाओ तुम

ख़्वाब का दर बंद है



कलकत्ता-२०१० 




ऐ मेरी उम्मीद के ख्वाबों के शहर

मेरी आँखों की चमक,

आने वाले ख़ूबसूरत रोजो-शब के ऐ अमीं
सुन की अब मख्लूक तुझसे खुश नाहीं
मेरे हक में ये सज़ा तजबीज बस होने को है
मैं तुझे वीरान होते देखने के वास्ते
और भी कुछ दिन अभी ज़िंदा रहूँ.



गज़ल १



शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है

रिश्ता ही मेरी प्यास का पानी से नहीं है



कल यूँ था कि ये क़ैदे-ज़मानी से थे बेज़ार

फ़ुर्सत जिन्हें अब सैरे-मकानी से नहीं है



चाहा तो यकीं आए न सच्चाई पे इसकी

ख़ाइफ़ कोई गुल अहदे-खिज़ानी से नहीं है



दोहराता नहीं मैं भी गए लोगों की बातें

इस दौर को निस्बत भी कहानी से नहीं है



कहते हैं मेरे हक़ में सुख़नफ़ह्म बस इतना

शे'रों में जो ख़ूबी है मानी से नहीं है


(क़ैदे-ज़मानी-वक़्त की पाबन्दी, सैरे-मकानी-दुनिया की सैर, ख़ाइफ़-भयभीत, अहदे-ख़िज़ानी-पतझड़, मानी-मतलब)

गज़ल २


महफिल में बहुत लोग थे मै तन्हा गया था

हाँ तुझ को वहाँ देख कर कुछ डर सा लगा था



ये हादसा किस वक्त कहाँ कैसे हुआ था

प्यासों के तअक्कुब सुना दरिया गया था



आँखे हैं कि बस रौजने-दीवार हुई हैं

इस तरह तुझे पहले कभी देखा गया था



ऐ खल्के-खुदा तुझ को यकीं आए-न-आए

कल धूप तहफ्फुज के लिए साया गया था



वो कौन सी साअत थी पता हो तो बताओ

ये वक्त शबो-रोज में जब बाँटा गया था

(तअक्कुब-पीछे पीछे जाना, रौजने-दीवार-झरोखा, तहफ्फुज- हिफाज़त)