अपूर्वानंद
छह बच्चे मारे गए। कुछ का कहना है सात। और
कुछ कहते हैं कि मारे गए बारह में ज्यादातर बच्चे थे। यह संख्या जितनी छोटी है, लगभग उतनी ही छोटी उन
बच्चों की उम्र थी। वे पिकनिक से लौटते किसी बस के नदी में गिर जाने, स्कूल बस के पेड़ से टकरा
जाने या स्कूल की इमारत के भूकम्प में ढह जाने की वजह से नहीं मारे गए। वे एक
कारखाने में विस्फोट की वजह से मारे गए। यह पटाखे बनाने वाली फैक्टरी थी। बंगाल के
पश्चिमी मिदनापुर के पिंगला ब्लॉक के ब्राह्मणबाड़ गांव की इस फैक्टरी में तकरीबन
एक घंटे तक विस्फोट होते रहे। अंदर फंसे लोगों के परखचे उड़ गए। जो बच्चे मारे गए
वे इसी फैक्टरी में काम करते थे।
यह घटना आज से आठ रोज पहले
की है। उस
वक्त संसद चल रही थी। संसद ने इन मारे गए बच्चों के लिए कोई शोक प्रस्ताव
प्रस्तावित नहीं किया। सत्र स्थगित होने की तो बात दूर है। दो रोज बाद देश के
प्रधानमंत्री ने बंगाल का दौरा किया। किसी जनसभा में इन बच्चों को याद नहीं किया
गया। अपने बचपन की याद दिलाने पर जिस प्रधान का गला रुंध जाता है, क्योंकि उसे बचपन में चाय
बेचने की मजबूरी याद आ जाती है, उसने अपनी बंगाल यात्रा के दौरान इस गांव में जाने की बात
सोची भी न होगी। ‘मां, माटी, मानुस’ के नारे पर शासनारूढ़ होने
वाली मुख्यमंत्री ने भी मुर्शिदाबाद के सुती ब्लॉक जाकर मृत बच्चों की माओं या
परिजनों से मिलने की बाध्यता महसूस नहीं की, जहां से ऐसे बच्चे काम
करने को लाए जाते हैं।
दो रोज बाद छत्तीसगढ़ में ‘माओवादी हिंसा’ के शिकार बच्चों के बीच
समय गुजारते प्रधानमंत्री की तस्वीरें और खबरें छपीं। माओवादियों को उनके उपदेश भी
कि अगर वे कुछ वक्त इन बच्चों के बीच गुजारें तो वे अपनी बंदूकें फेंक देंगे।
विस्फोट की जगह अगर वे हों तो किसे उपदेश देंगे? ये बच्चे जिस कारण मारे गए, वह कोई प्राकृतिक विपदा या
दुर्घटना नहीं थी। यह एक हिंसा थी, जो माओवादियों ने संगठित
नहीं की थी। यह हमारी-आपकी, इस समाज की संरचना में रची-बसी हिंसा है। यह बेआवाज, बिना किसी नाटकीयता के
रोजाना घटित होती रहती है। लेकिन यह निश्चित है कि इस प्रकार की हिंसा के शिकार
हमारे जैसे लोगों के बच्चे कभी नहीं होंगे और इसलिए इसका चलते रहना भी उतना ही
निश्चित है।
किसानों के बीच पदयात्रा
कर रहे राजनीतिक नेताओं की जनता-सूची में इन बच्चों का जिक्र न रहा होगा। वे गरीब
थे, यह अब कहने की जरूरत नहीं, पाठक खुद समझ गए होंगे। यह
हमारे, आपके बच्चों की मौत न थी
कि हमारी अदालतें अगली सुबह खुद ही खबर सुन या पढ़ कर सरकारों को तलब करतीं और इन
मौतों का हिसाब मांगतीं।
जो मारे गए, कानूनी जुबान में उन्हें
बाल श्रमिक कहेंगे। जहां
वे काम कर रहे थे, वहां उनका होना और काम करना गैर-कानूनी था। लेकिन
मुर्शिदाबाद के गांव के ये बच्चे, जिनमें ज्यादातर मुसलमान हैं, मिस्त्रीगिरी या सफेदी के
काम के बहाने ठेकेदारों द्वारा अक्सर गांव से बाहर ले जाए जाते हैं। चाकलेट बम या
दूसरे तरह के पटाखे तेजी से बनाने में उनकी नन्ही और लचीली अंगुलियां तेजी से काम
करती हैं, इसलिए उनकी मांग ज्यादा
है।
सिर्फ आठ रोज हुए हैं और
यह खबर किसी गहरे कुएं में गिर कर खो गई है। क्यों यह दिल्ली के जंतर मंतर पर पेड़
से ‘लटक गए’ गजेंद्र सिंह की तरह खबर न
बन सकी कि कैमरे और हमारे मानवीय एंकर पिंगला के इस गांव या मुर्शिदाबाद पहुंच कर
इनके परिवारों की खोज-खबर लेने को मजबूर महसूस करते? इंटरनेट पर इसे खोजते हुए
आप एक दूसरी खबर पर पहुंच जाते हैं, जो आज से सात साल पुरानी
है। दीवाली के आसपास राजस्थान में जयपुर से दो सौ किलोमीटर दूर दारकुट्टा गांव में
पटाखे बनाने वाली ‘गैर-कानूनी’ फैक्टरियों में हुए
विस्फोटों में बारह बच्चे मारे गए थे।
उस वक्त श्रमिक संघों के
लोगों ने बताया था कि
राजस्थान बाल-मजदूरी के मामले में भारत का तीसरे नंबर का राज्य है। लेकिन अगर आप
उसके आसपास के दिनों की खबरें पढ़ें तो पता लगेगा कि इन बारह बच्चों की मौतों ने
किसी बड़े सामाजिक या राजनीतिक विरोध को जन्म नहीं दिया। तब यह समझ में आता है कि
क्यों पिंगला के विस्फोट से न तो बंगाल के विधानभवन और न दिल्ली की संसद की
दीवारें कांपी? बल्कि ये दीवारें इस
विस्फोट में मारे गए बच्चों की चीखों के लिए ध्वनिरोधी साबित हुर्इं।
तभी तो यह मुमकिन हुआ कि पिंगला में अभी खून सूखा
भी नहीं था कि विकास को आमादा सरकार ने बाल-मजदूरी वाले कानून में कुछ
क्षेत्रों में चौदह साल से कम उम्र के बच्चों को काम करने की इजाजत दे दी।
इस बात को भी तीन दिन से ज्यादा हो गए, लेकिन कोई बड़ा या छोटा
विरोध दिल्ली में इस सदी के इस सबसे प्रतिगामी कदम का नहीं हुआ। विडंबना है कि हाल
में ही इस देश ने बाल मजदूरी के खिलाफ संघर्ष की स्वीकृति में नोबेल पुरस्कार पाने
का जश्न मनाया है।
कानून में प्रस्तावित इस
तब्दीली के लिए तर्क यह है परिवारों की आवश्यकता का, पारंपरिक हुनर को बचाए
रखने का जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवारों में सिखाए जाते रहे हैं। भारत की विशेष
सांस्कृतिक परिस्थिति की दुहाई दी गई है। इशारा यह है कि पूरी तरह बाल-श्रम को
गैर-कानूनी करने का खयाल कुछ पश्चिमी नकल है, जो हमारी आबो-हवा के
अनुकूल नहीं। यह इतना वाहियात तर्क है कि इस पर किसी तरह विचार करने की जरूरत भी
नहीं। इसमें मुजरिमाना बेईमानी यह है कि कहा जा रहा है कि यह सब ये बच्चे स्कूल के
बाद, गरमी की छुट््टी में
करेंगे। यानी गरीब बच्चों के लिए पढ़ाई का मतलब सिर्फ स्कूली घंटियां हैं और उनका
शेष समय देश के लिए उत्पादन के उपयोग में लगना चाहिए। इसे उन बच्चों के, जो दुहराने की जरूरत नहीं
कि गरीब हैं, भले की सोच कर उठाया गया
कदम बताया जा रहा है। आखिर उन बच्चों को अपने परिवारों की मदद नहीं करनी चाहिए?
क्या यह इसलिए है कि हमारे
समाज में गरीब
बच्चों के काम करने या मजदूरी करने को स्वाभाविक ही माना जाता है? उसके बाद उन्हें ककहरा या
गिनती सिखाने वाली रात्रि पाठशालाओं का आयोजन करके हम अपनी आत्मा शांत कर लेते
हैं। कृष्ण कुमार ने इस तरह की बाल मजदूरी के आगे शिक्षा की दयनीय
असहायता का वर्णन अपनी नई किताब ‘चूड़ी बाजार में लड़की’ में किया है। चूड़ी के कारखाने के
बीच चलने वाले ऐसे ही सदाशय स्कूल में एक बच्ची से पूछने पर कि खुदा के मिलने पर
वह उनसे क्या कहेगी, वह जवाब देती है, मैं उनसे पूछूंगी कि
उन्होंने हमें गरीब क्यों पैदा किया? उसके बाद निश्शब्द फर्श पर
गिरते उसके आंसुओं के आगे शिक्षाविद निर्वाक ही रह सका। सतीश देशपांडे ने
एक कालीन बनाने वाले कारखाने में तीन साल के बच्चे को संगीत की लय पर झूलते हुए
कालीन की गांठें लगाते देखा। संगीत का ऐसा इस्तेमाल!
इसके साथ यह भी कि जो समाज अपने बच्चों के रक्त
से पुष्ट होता है उसे सभ्य कहलाने का और अपनी संस्कृति का ढोल पीटने का क्या हक है? लेकिन यह सवाल करने वाला चार्ल्स
डिकेंस हमारे पास नहीं।
1844 में लिखी एलिजाबेथ बेरेट
ब्राउनिंग की कविता ‘बच्चों की पुकार’ में इक्कीसवीं सदी के हिंदुस्तानी गरीब बच्चों की चीख भी है, ‘कितने दिन और, …कितने दिन और, ओ कू्रर देश, एक बच्चे के कलेजे पर चढ़
कर तुम दुनिया फतह करोगे, कीलों वाले बूटों से कुचलते हुए उसकी धड़कन, बढ़ोगे बाजार से होते हुए
अपने राजसिंहासन की ओर? हमारा खून उछलता है, ओ हमारे सितमगरो… लेकिन बच्चों की सुबकियां
खामोशी में भी होती हैं अधिक गहरा शाप, क्रोध में दी किसी
शक्तिशाली के शाप से भी कहीं गहरा!’ बंगाल के पिंगला से जो खामोश शाप उठा है, क्या यह देश उससे बच पाएगा?
जनसत्ता से साभार
जनसत्ता से साभार
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