-राम पुनियानी

साम्प्रदायिक दंगों से हमारा देश अपरिचित नहीं है। सन् 1961 में जबलपुर से शुरू होकर सन् 2008 में कंधमाल तक - भारत ने सैकड़ों छोटे-बड़े दंगों को देखा-भोगा है। धर्म के नाम पर हजारों मासूमों ने अपनी जानें गवाईं हैं। भारत में साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास में गुजरात का सन् 2002 का कत्लेआम एक बदनुमा दाग है। गुजरात के पहले, सन् 1984 में देश के काफी बड़े हिस्से में सिक्खों के विरूद्ध भयावह हिंसा हुई थी। बाबरी मस्जिद के ढ़हाए जाने के बाद देश भर में मुसलमानों को हिंसा का निशाना बनाया गया था और उड़ीसा में पास्टर ग्राहम स्टेन्स और उनके दो अवयस्क बच्चों को जिंदा जला दिया गया था। परंतु गुजरात कत्लेआम, गुणात्मक व संख्यात्मक-दोनों ही दृष्टियों से उसके पूर्व हुई साम्प्रदायिक हिंसा से भिन्न था।

सबसे पहले साबरबती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आगजनी के लिए गोधरा स्टेषन के आसपास रहने वाले मुसलमानों को दोषी  ठहराया गया और बाद में पूरे प्रदेश में मुसलमानों पर हिंसक हमले शुरू कर दिए गए। तर्क यह था कि हिन्दुओं की भावनाओं को चोट पहुंची है और वे इसका बदला ले रहे हैं। जिला अधिकारियों की सलाह के विपरीत, गोधरा आगजनी के शिकार हुए लोगों के शवों को जुलूस में अहमदाबाद की सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद विहिप ने बंद का आव्हान किया और हिंसा शुरू हो गई। गुजरात दंगे, संघ परिवार की सोशल इंजीनियरिंग का नमूना थे। असहाय, निर्दोष मुसलमानों के साथ मारकाट के लिए दलितों और आदिवासियों का इस्तेमाल किया गया। पूरे मुस्लिम समुदाय के चेहरे पर कालिख पोतने की भरपूर कोशिश की गई। जहां इसके पहले साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस की भूमिका ज्यादा से ज्यादा मूक दर्शक की रहती थी वहीं गुजरात में पुलिस और शासकीय तंत्र ने हिंसा में सक्रिय भागीदारी की।

गुजरात की भाजपा सरकार अपनी मनमानी कर सकी, इसका एक कारण यह था कि उस समय केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन सत्ता में था। भाजपा के सहयोगी दलों ने अपने सत्ता प्रेम के चलते अपना मुंह खोलने की जहमत भी नहीं उठाई। मोदी ने अपने अधिकारियों को पहले ही यह निर्देश दे रखा था कि वे हिन्दुओं  की  बदले की कार्यवाहीको न रोकें। स्थितियां कितनी खराब थीं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के समाजवादी आंदोलन के एक देदिप्यमान नक्षत्र, जार्ज फर्नाडीस ने अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के खिलाफ हिंसा को नजरअंदाज करने की नसीहत देते हुए यह तक कह डाला कि दंगों के दौरान बलात्कार तो होते ही हैं, इसमें कोई खास बात नहीं है। भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व और दंगाईयों को और क्या चाहिए था? वे पूरे जोशोखरोश से खून बहाने के अपने कुत्सित खेल में जुटे रहे। गुजरात हिंसा में महिलाओं ने जो कष्ट भोगे उनका वर्णन शब्दों में करना कठिन है। उनके जननांगों को निशाना बनाया गया और उन्हें हर तरह से शर्मिंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई।

गुजरात कत्लेआम के मुख्य प्रायोजक नरेन्द्र मोदी ने कहा कि दंगों पर तीन दिनों के भीतर नियंत्रण पा लिया गया और भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने इस उपलब्धिके लिए उनकी पीठ भी थपथपाई। जबकि तथ्य यह है कि दंगें काफी लंबे समय तक जारी रहे व दंगाईयों को नियंत्रित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। राज्य की भाजपा सरकार का दृष्टिकोण और व्यवहार शर्मनाक था। राहत व पुनर्वास के काम में भी साम्प्रदायिक आधार पर भेदभाव किया गया। अल्पसंख्यकों को नाममात्र का मुआवजा दिया गया और उन्हें राहत शिविरों से बहुत जल्द खदेड़ दिया गया। राहत शिविर बच्चों के उत्पादन केन्द्रबन गए हैं, ऐसा बेहूदा आरोप तक लगाया गया। गुजरात में अल्पसंख्यकों के बारे में पूर्वाग्रहों का नंगा प्रदर्शन हुआ। ऐसा वातावरण बना दिया गया कि अल्पसंख्यक अपने घरों को न लौट सकें। जो लोग अपने घरों में वापस जाना चाहते थे उनसे लिखित में यह वायदा करने को कहा गया कि वे उनके खिलाफ हुई हिंसा के बारे में पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं कराएंगें और यदि उन्होंने कोई एफआईआर दर्ज करा दी है तो उसे वापिस ले लेंगें। वैसे भी, पुलिस ने अधिकांश मामलों में या तो एफआईआर दर्ज ही नहीं की और या फिर उसमें इतनी कमियां छोड़ दीं कि आरोपी आसानी से बच निकले। इस वातावरण में दंगा पीड़ितों के लिए न्याय पाने की बात सोचना भी असंभव था। राज्यतंत्र के साम्प्रदायिकीकरण व पुलिस और न्यायपालिका के पूर्वाग्रहपूर्ण रवैये के चलते, उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और दंगों से संबंधित मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर के न्यायालयों में करवाने के आदेश देने पड़े।

राज्य की पुलिस, नरेन्द्र मोदी के विरूद्ध निष्पक्ष जांच करेगी-ऐसा मानने का कोई कारण नहीं था और इसलिए विशेष जांच दल नियुक्त किया गया। दुर्भाग्यवश, यह दल भी कुछ विशेष नहीं कर सका। अनियंत्रित हिंसा के ज्वार और उसके बाद राज्यतंत्र के पक्षपातपूर्ण रवैये के चलते राज्य में मुसलमान स्वयं को अत्यंत असुरक्षित अनुभव करने लगे। उन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। उन्हें न तो कोई नौकरी देने को तैयार था और न ही उनके साथ व्यापार करने को। अहमदाबाद के जुहापुरा इलाके की विशाल मलिन बस्ती, राज्य में दोनों समुदायों के बीच खड़ी हो गई मजबूत दीवार का प्रतीक है। मुसलमानों के घर-बार उजड़ जाने और काम-धंधे बंद हो जाने से उनके सामने पेट भरने की समस्या उठ खड़ी हुई। अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए न तो उनके पास संसाधन थे और न ही सुविधाएं।

मीडिया के एक हिस्से ने नरेन्द्र मोदी का महिमामंडन किया। यह इसके बावजूद कि उच्चतम न्यायालय ने उन्हें अल्पसंख्यकों के पूजास्थलों की सुरक्षा न कर पाने का दोषी ठहराया और राज्य सरकार ने तीस्ता सीतलवाड सहित कई लोगों पर झूठे मुकदमे लाद दिए। ये वे लोग हैं जिन्होंने गुजरात दंगा पीड़ितों को न्याय दिलवाने के लिए लंबी और कठिन लड़ाई लड़ी। बहुसंख्यकों का बड़ा तबका मोदी का अनुयायी बन गया। हिन्दुओं को अपनी मुट्ठी में करने के बाद मोदी ने विकास का मायाजाल बुनना शुरू किया। गुजरात को बर्बाद कर देने वाले मोदी के प्रचारतंत्र ने उन्हें विकास पुरूष का दर्जा देना शुरू कर दिया। राज्य सरकार ने बड़े पूंजीपतियों को भारी अनुदान दिए और इन्हीं पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रित मीडिया, दिन-रात मोदी का स्तुतिगान करने लगा। उनकी छवि एक ऐसे महानायक की बनाने की कोशिश होने लगी जिसने गुजरात को विकास के रास्ते पर न भूतो न भविष्यति गति से आगे बढ़ाया है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में उनकी भूमिका को जनता के दिमाग से मिटाने की भरपूर कोशिश की गई।


इस घनघोर अंधेरे में भी रोशनी की कुछ किरणें थीं। कुछ दंगा पीड़ितों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने न्याय के लिए संघर्ष जारी रखा। हिंसा के दोषियों को बचाने के हर संभव प्रयास-जिनमें गवाहों को पक्षद्रोही बना देना शामिल था-के बावजूद ये लोग न डरे और न पीछे हटे। जहां एक ओर साम्प्रदायिक ताकतों का शक्तिशाली प्रचारतंत्र और राज्य सरकार अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की हर संभव कोशिश करती रही है वहीं प्रजातांत्रिक मूल्यों को मजबूती देने के प्रयास भी साथ-साथ जारी हैं। अदालती निर्णयों के अलावा सामाजिक संगठनों ने भी मोदी का असली चेहरा जनता के सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि आज भी गुजरात में वे स्थितियां नहीं हैं जो कि एक प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष देश के हर हिस्से में होनी चाहिए परंतु समाज और सामाजिक कार्यकर्ताओं का स्वर धीरे-धीरे ऊंचा हो रहा है और उस उदारवादी सोच को पुनर्जीवित करने की हरचंद कोशिशें हो रही हैं जो किसी भी सभ्य समाज के लिए अपरिहार्य हैं। केवल समय ही बताएगा कि इस हिन्दू राष्ट्रमें प्रजातंत्र की वापिसी होती है या नहीं।