आनंद स्वरुप वर्मा

हम आज कौन से अन्धकार के युग में जीने के लिए अभिशप्त हो गए हैं? यह कौन सी पत्रकारिता हम देख रहे हैं जो पूरे समाज में जहर घोलने पर आमादा है? ऐसा लगता है कि अर्नब गोस्वामी जैसे उद्दंड, अहंकारी, आत्ममुग्ध और जनविरोधी तथा सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया जैसे दलाल और जाहिल पत्रकारों की बाढ़ आ गयी है जो पूरे देश को रसातल में पहुंचा कर ही चैन की सांस लेंगे. इन सफेदपोश अपराधियों ने देशभक्ति की एक ऐसी परिभाषा गढ़ने का अभियान छेड़ रखा है जिसके अंतर्गत हर वह व्यक्ति देश का दुश्मन है जो साम्प्रदायिकता, अंधराष्ट्रवाद, असहिष्णुता और राजनेताओं की गुंडागर्दी का प्रतिरोध करता है; जो भीड़ के न्याय का विरोधी है और जो तर्कशीलता में यकीन करता है. इन लोगों ने राजनीति और न्यायविधान दोनों को दुर्गन्ध की सीमा तक प्रदूषित कर दिया है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कन्धों पर उचकता हुआ फासीवाद भारत के इतिहास में एक ऐसा रक्तरंजित पन्ना जोड़ने की तैयारी में लगा है जिससे निजात पाने में आने वाली पीढी को अनेक लम्बे और दर्दनाक रास्तों से गुजरना होगा. 

ऐसे में अकेले रवीश कुमार जैसे गिने चुने पत्रकार हर जोखिम का सामना करते हुए इस घुप्प अँधेरे को चीरने की कोशिश में लगे हैं और उनके इस ज़ज्बे को बनाये रखने में हम कैसे मदगार हो सकते हैं यह आज सबसे बड़ा सवाल है. रवीश ने अपने चैनल के जरिये एक राष्ट्रव्यापी झूठ का पर्दाफाश किया कि किस तरह एक बड़ी साजिश के तहत जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया के भाषण के टेप के साथ छेड़छाड़ की गयी और उसमें राष्ट्रविरोधी नारों को कन्हैया के मुंह से बोलते हुए दिखाया गया. उनके इस काम को एबीपी न्यूज़ के अभिसार और उनके साथियों तथा इंडिया टुडे चैनल के पत्रकारों ने जिस तरह आगे बढ़ाया उससे उम्मीद की एक हल्की सी किरण दिखाई देती है लेकिन कुल मिला कर हालात बहुत ही चुनौतीपूर्ण हैं क्योंकि इस साज़िश का सूत्रधार अपनी कठपुतलियों के जरिये इस आकलन में लगा है कि इसका असर कितना टिकाऊ और कारगर हो सकता है!

क्या Reichstag (जर्मनी की संसद) अग्निकांड के बाद संविधान के साथ अपनी मनमानी करने के लिए हिटलर को जो जनसमर्थन हासिल हो गया था वैसी फिजां तैयार हो सकेगी? क्या उन लोगों की जुबान पर हमेशा के लिए ताला लगाया जा सकेगा जो कश्मीर जैसे संवेदनशील मुद्दे पर सरकार से थोड़ा भी फर्क राय रखते हैं? क्या मुसलमानों ही नहीं बल्कि देश और देश के तमाम उत्पीडित जनों से प्यार करने वाले हिन्दुओं के अन्दर भी यह खौफनाक सन्देश पहुंचाया जा सकेगा कि अगर तुमने किसी मुद्दे पर हिन्दुत्ववादियों की राय का विरोध किया तो तुम्हें थाने या अदालत के दरवाजे तक पहुँचने से पहले ही लम्पटों और गुंडों की भीड़ के हवाले कर दिया जाएगा? क्या रोहित वेमुला की (आत्म) ह्त्या से उठे सवालों से जूझते दलित और गैरदलित नौजवानों के दिलों में दहशत पैदा की जा सकेगी जिन्हें बखूबी पता है कि भारत में फासीवाद मनुस्मृति की सूक्तियों का जाप करते हुए ब्राह्मणवाद के रथ पर सवार हो कर संविधान को रौदते हुए आने की तैयारी में लगा है? 


हमारे इस लोकतंत्र को आतताइयों का तंत्र बनाने के लिए जो व्यूहरचना चल रही है उसे आज बहुत शिद्दत के साथ समझने की ज़रूरत है. इतिहास में कभी कभी ऐसे क्षण भी आते हैं जब एक पल का विलम्ब भी मर्मान्तक साबित हो सकता है. आज वह क्षण आ गया है. आज ज़रूरत है जाति, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठ कर सभी प्रगतिशील, वामपंथी और देशभक्त तत्वों की एकता की ताकि इस अँधेरे को और ज्यादा पसरने से रोका जा सके...