सत्येंद्र रंजन

सांप्रदायिक हिंसा निवारक विधेयक का नया मसविदा अब हमारे सामने है। 2004 में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सत्ता में आया, तब उसने अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम में सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिए एक विशेष कानून बनाने का वादा किया था। लेकिन पिछले सात साल में बात मसविदों से आगे नहीं बढ़ी है। जब सरकार ने इस कानून का अपना मसविदा पेश किया, तो उस पर कई हलकों से एतराज उठे थे। एतराज उठाने में सिविल सोसायटी के धर्मनिरपेक्ष हिस्से के वे संगठन भी थे, जो लंबे समय से ऐसे एक ऐसे कानून की मांग करते रहे हैं। उनकी मुख्य आपत्ति इस बात को लेकर थी, प्रस्तावित कानून के जरिए प्रशासन को और ताकत देने की बात कही जा रही थी, जबकि उन संगठनों की राय में जरूरत प्रशासन को जवाबदेह बनाने की है।

एक राय यह भी उभरी कि प्रस्तावित कानून के प्रावधान देश के संघीय ढांचे का उल्लंघन करने वाले हैं। गौरतलब है कि कानून-व्यवस्था राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है और इस तरह दंगों से निपटने की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकार की ही होती है। अगर प्रस्तावित कानून के तहत किसी इलाके को दंगा प्रभावित क्षेत्र घोषित कर वहां सीधे दखल देने का अधिकार केंद्र को मिल जाए, तो इस पर राज्यों एवं खासकर क्षेत्रीय दलों को आपत्ति होना स्वाभाविक है। प्रस्तावित कानून की एक और आलोचना यह भी रही है कि उसमें सिर्फ सांप्रदायिक दंगों को ध्यान में रखा गया है, जबकि जातीय, भाषाई और अन्य कमजोर तबकों पर होने वाली हिंसा को पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया गया है।

अब सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने कानून के नए प्रारूप में इन आलोचनाओं का समाधान ढूंढने की कोशिश की है। गृह और विधि मंत्रालयों को भेजे जा रहे प्रारूप का नाम- सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण (न्याय प्राप्ति एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक, 2011 रखा गया है। जाहिर है, अब विधेयक का दायरा ज्यादा बड़ा है। मसविदे में जिस राष्ट्रीय प्राधिकार की स्थापना का सुझाव दिया गया है, उसके बारे में अब सफाई दी गई है कि यह संस्था ना तो कानून लागू करने वाली मौजूदा मशीनरी के ऊपर होगी और ना ही यह वर्तमान प्रशासनिक एवं न्यायिक तंत्र की शक्ति छीनेगी। बल्कि यह सिर्फ सलाह देने वाली संस्था होगी, लेकिन यह सलाह जवाबदेही के संदर्भ में होगी। मसलन, अगर कोई राज्य सरकार इस संस्था की सलाह को नजरअंदाज कर देती है और उसके परिणास्वरूप बड़े पैमाने पर हिंसा या जन संहार घटित हो जाता है, तो वह सलाहएक ऐसा ठोस दस्तावेज होगा, जिसके आधार पर अदालत में कर्त्तव्य निभाने में लापरवाही या जानबूझ कर कोताही का मुकदमा चलाया जा सकेगा। यानी प्रस्तावित संस्था के पास प्रशासन को सीधे आदेश देने का अधिकार तो नहीं होगा, लेकिन उसे एक ऐसी व्यवस्था के रूप में स्थापित किया जाएगा, जिसके परामर्श को राज्य सरकारें या प्रशासन गंभीरता से लें और ऐसा न करने पर उसके परिणाम भुगतने को तैयार रहें।

दरअसल, राष्ट्रीय प्राधिकार प्रस्तावित कानून का केंद्रीय पहलू है। उसमें सात सदस्य रखने का सुझाव दिया गया है, जिनका चयन प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, गृह मंत्री और लोकसभा में सभी राष्ट्रीय दलों के नेताओं की समिति करेगी। सुझाव दिया गया है कि समिति में अनिवार्य रूप से चार सदस्य अल्पसंख्यक समुदायों से और एक महिला हो। एनएसी के प्रारूप में सिविल सोसायटी के संगठनों की यह राय झलकती है कि सरकारी मशीनरी के अधिकार और बढ़ाने की जरूरत नहीं है, बल्कि आवश्यकता यह सुनिश्चित करने की है कि जो अधिकार उसे मिले हुए हैं, सांप्रदायिक या अन्य लक्ष्य केंद्रित दंगों के समय प्रशासन उन अधिकारों का ठीक ढंग से इस्तेमाल करे।

गौरतलब है कि सांप्रदायिक दंगों या जन संहार से निपटने के लिए एक खास कानून हो, इसकी जरूरत गुजरात दंगों के बाद ज्यादा शिद्दत से महसूस की गई थी। उसके साथ 1983 के नेल्ली जन संहार, 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1992-93 के मुंबई दंगों आदि का भी अनुभव था। इनमें से कोई दंगा इसलिए नहीं हुआ कि प्रशासन के पास उन्हें रोकने की ताकत या अधिकार नहीं थे। बल्कि वे राजनीतिक ताकतों की सक्रिय भागीदारी, उनके प्रभाव में प्रशासन द्वारा कर्त्तव्य निभाने में लापरवाही या कहीं-कहीं प्रशासन की मिलीभगत से हुए। इसलिए यह उचित एवं स्वाभाविक ही है कि अगर ऐसा कोई कानून बन रहा है, तो उसमें प्रशासन की जवाबदेही तय करने पर मुख्य ध्यान हो।

इस लिहाज से एनएसी के प्रारूप के कुछ सुझाव महत्त्वपूर्ण हैं। मसलन, यह कि दंगा होते ही पुलिस प्रमुख सभी टेलीकॉम सेवा प्रदाता कंपनियों को उस इलाके में टेलीफोन कॉल से संबंधित तमाम दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए अधिसूचना जारी करें। सभी सरकारी एवं निजी अस्पतालों को तमाम मेडिकल रिकॉर्ड सुरक्षित रखने के लिए अधिसूचित किया जाए। पुलिस विभाग पुलिस कंट्रोल रूम एवं इलाके के सभी थानों में केस डायरी, स्टेशन डायरी और जांच एवं अदालती कार्यवाही से संबंधित अन्य सभी दस्तावेज सुरक्षित रखना अनिवार्य हो। उपरोक्त तमाम दस्तावेजों की जरूरत गुजरात में चली अदालती कार्यवाही के दौरान महसूस की गई थी। एक दूसरा अहम सुझाव यह है कि प्रस्तावित कानून के तहत अफसरों पर मुकदमा चलाने के लिए सरकार से अनुमति लेने का प्रावधान अनिवार्य रूप से लागू नहीं होगा। केंद्र या राज्य सरकारों को मुकदमा चलाने की अर्जी पर 30 दिन के अंदर फैसला लेना होगा। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो माना जाएगा कि उन्होंने मुकदमा चलाने की इजाजत दे दी है। अगर उन्होंने ये अर्जी ठुकराई तो उन्हें इसका कारण बताना होगा। अगर कोर्ट उन कारणों से संतुष्ट नहीं हुआ, तो मुकदमा चलाने के सवाल पर खुद फैसला करने में वह सक्षम होगा।
अब प्रश्न है कि क्या यह प्रारूप सिविल सोसायटी को संतुष्ट करने में सक्षम है, क्या इस पर राजनीतिक सहमति बनेगी, और क्या यह केंद्र सरकार को मंजूर होगा? जहां तक सांप्रदायिक या जातीय दंगों का सवाल है, कानून उनसे निपटने का सिर्फ एक पक्ष है। दूसरा पक्ष वह राजनीति विकसित करना है, जो ऐसे सामाजिक-सांस्कृतिक विभाजनों पर खड़ी ना हो, बल्कि आम जन के रोजी-रोटी के मुद्दों पर केंद्रित हो। अब न सिर्फ भारत, बल्कि दुनिया भर में अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि दंगे राजनीतिक गोलबंदी एवं समर्थन जुटाने का माध्यम होते हैं। ऐसी मिसालें बेहद कम होंगी, जब ये प्रशासनिक विफलता का परिणाम रहे हों। यह ठीक है कि कानूनी अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था एक सही दिशा में कदम है, लेकिन आने वाले समय में इस बहस को इस कदम से आगे ले जाने और दंगों के राजनीतिक स्वरूप को समझने की जरूरत बनी रहेगी।