शंकर तडवाल
सिलकोसिस बीमारी को लेकर पहली बार दिनांक 9 जुलाई 2005 को झाबुआ जिला कलक्टर कार्यालय पर धरना दिया गया था। उस समय अलीराजपुर अलग जिला नहीं बना था। झाबुआ जिले में कार्यरत आदिवासी जन संगठन खेडुत मजदूर चेतना संगठन (खेमचेस) अलीराजपुर, छुटटा मजदूर यूनियन थान्दला, आदिवासी एकता परिषद झाबुआ, आदिवासी चेतना शिक्षण सेवा समिति ने वन अधिकार और अज्ञात बीमारी के मुददे पर सर्व प्रथम झाबुआ कलेक्ट्रेट कार्यालय के समक्ष धरना दिया था।
वन अधिकार पर लोगों ने अपने-अपने जमीन अधिकार मान्यता के हक के लिए आवेदन कलेक्टर को दे दिये किन्तु अज्ञात बीमारी से पीड़ित 15-20 लोगों की स्थिति देख कर हम चिंतन-मनन में पड़ गये। उनके साथ कलेक्ट्रेट कार्यालय के सामने बगीचे में हमने पूछताछ किया कि आखिर इतने सारे लोगों को एक जैसी बीमारी जो शरीर को सुखा देती है लगी कैसे?
उक्त लोग भी इलाज की मांग को लेकर आये थे। उन्होंने हमें बताया कि गुजरात में स्थित गोधरा और खेड़ा जिले के बालासिनोर कस्बा के आसपास के पत्थर पीसने वाले कारखाने में काम करने के बाद हमारी यह स्थिति हुई है। छुटटा मजदूर यूनियन के नेता रामचन्द्र डामोर ने हमें एक अखबार की कतरन दी। उसमें लिखा था कि सफेद पत्थर का डस्ट फेफ़ड़े में चला गया है। इसलिए आदिवासी मजदूर सिलकोसिस की बीमारी से पीड़ित हो गये हैं। गुजरात के गोधरा व खेड़ा जिले में 40-50 कारखाने हैं जहां सफेद पत्थर घिसने-पीसने का कार्य होता है। रामचन्द्र डामोर ने बताया कि ऐसे मजदूर आपके यहां भी मिलेंगें। रामचन्द्र डामोर के ये शब्द हमारे मस्तिष्क में आज भी गूंज रहे हैं। खेडूत मजदूर चेतना संगठन के शंकर तडवाल और मगन कलेश एक माह तक अलीराजपुर नगर के आसपास के ग्रामीणों से पूछते रहे कि कोई मजदूर गुजरात काम करने गया हो और यहां आकर बीमार पड़ गया हो ऐसा कोई मजदूर कहीं है क्या ?
अन्ततः अलीराजपुर नगर में कस्ट्रक्षन के कार्य में लगे शेरसिंह झेतु नामक एक मजदूर ने हमें जानकारी दी कि ग्राम मालवई में नरपत नातक एक भील मजदूर चारपाई में पड़ा हुआ है और उक्त मजदूर कहीं गुजरात के कारखानों में काम करने गया था। हमने ग्राम मालवाई में अगस्त 2005 में नरपत के घर गये। पूरी तरह से शरीर से सूखा नरपत चारपाई पर लेटा हुआ था। उसने बताया कि वह गुजरात के खेड़ा जिले के बालासिनोर नामक स्थान पर सफेद पत्थर पीसने वाला कारखाना ’’धरती धन मिनरल्स’’में मजदूरी करता था। वहीं से बीमार होकर आया है। मेरा भाई व पत्नी भी ऐसी ही बीमारी से जान गंवा चुके हैं। हमारे गांव में इस बीमारी से अब तक 12-13 लोग मर चुके हैं। हमारे गांव से 39 मजदूर काम करने इन फैक्ट्रियों में गये थे। आगे पूछने पर एक के बाद एक बीमार पड़े व मरे लोगों के नाम तथा गांव के नाम गिनवाना शुरू किया। ग्राम रोड़धा, घोघसा, बैहड़वा, मोरासा, कसलवाई, इन्दरसिंह की चौकी, अम्बारी, तीती, भीती, खारकुआं जैसे कोई 12 गांव गिना दिये। हमने गुजरात के बड़ोदा जिले में स्थित आदिवासी अकादमी नामक संस्था के साथ मिलकर अक्टूबर 2005 को 12 गांव के बीमार एवं मृतक लोगों का पारिवारिक सर्वेक्षण किया।
सर्वप्रथम हमने सिलकोसिस बीमारी से पीड़ित मजदूरों के आन्दोलन की शुरूआत करते हुए कोई 150 बीमार मजदूरों के साथ 17 अगस्त 2005 को अलीराजपुर में तहसील कार्यालय के सामने धरना प्रदर्षन किया। इसमें मांग की कि, बीमार लोगों का इलाज कराया जाये। गोधरा (गुजरात) के फैक्ट्री मालिकों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज किया जाये। सिलिका मिनरल्स फैक्ट्रियों में मानवश्रम प्रतिबंधित किया जाये। खेमचेस की ओर से इस घटना पर कार्यवाही की मांग को लेकर मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग को ज्ञापन दिया। आयोग ने अपनी जांच के दौरान जबाव दिया कि अलीराजपुर व झाबुआ में कोई सिलकोसिस बीमारी से मृत या बीमार नहीं पाया गया। म.प्र. जन जाति आयोग में भी इस घटना पर कार्यवाही की आशय का ज्ञापन दिया था। इसे राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने गम्भीरता से लिया और 24 अप्रेल 2007 को आयोग ने नई दिल्ली में सिलकोसिस के मुददे पर अलग से विषेश बैठक रखी गई। आयोग के निर्देश से 27/02/2008 को रोजगार एवं श्रम मंत्रालय का व्यावसायिक स्वास्थ्य सेवा सलाह निदेशालय मुम्बई के डाक्टरों ने आकर बीमारों का अलीराजपुर एवं धार जिले की कुक्षी में 431 मरीजों क स्वास्थ्य परीक्षण किया गया। उनमें से 41 लोगों को सिलकोसिस होने की पुष्टि हुई।
25 अक्टूबर 2007 को अलीराजपुर एवं झाबुआ जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में दौरा कर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने बीमार लोगों व मृतकों के परिजनों से कथन लिये। गुजरात स्थित गोधरा एवं बालासिनोर में सिलिका मिनरल्स फैक्ट्रियों में 27 अक्टूबर 2007 को छापामारी कार्यवाही की। सिलिका क्रोशिंग मशीन में बिना मास्क लगाये, बिना सुरक्षा उपकरण लगाए भारी धूल में फर्जी तरीके से काम करने वाले मजदूरों की धर पकड़ की गई। फैक्ट्री मालिकों के गैर कानूनी गतिविधियों को धर दबोचा और फर्जी दस्तावेज जप्त किये। गोधरा एवं खेड़ा जिले के इन कारखानों के मालिकों के खिलाफ 176 पुलिस प्रकरण दर्ज किये गये। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने माननीय उच्चतम न्यायालय को रिपोर्ट सौंपी। नवम्बर 2008 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने खेमचेस की याचिका स्वीकार कर सुनवाई का सिलसिला शुरू करते हुये क्रमषः 05/03/2009, 01/02/2010, 19/11/2010 को आदेश जारी किए गए। गुजरात शासन द्वारा उत्खनन कानून कारखाना अधिनियम 1948 श्रमिक क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923 का उल्लघंन करने के विरूद्व सख्त निर्देश दिये। एन.एच.आर.सी. ने 12/11/2010 को खेमचेस के जुवानसिंह की शिकायत क्रमांक 300/6/25/6-8 की सुनवाई के बाद सिलकोसिस बीमारी से मरने वाले 259 मजदूरों परिजनों को 3-3 लाख रूपये का क्षतिपूर्ति मुआवजा 2 माह के अंदर भुगतान करने का निर्देष गुजरात शासन को दिया। आयोग ने अपने आदेश में कहा है कि मुआवजा के तहत एक लाख नगद और दो लाख फिक्स डिपोजिट किया जाये। म.प्र. सरकार द्वारा बीमारी से पीड़ित 304 परिवारों के पुर्नवास पैकेज का इन्तजाम किये जाने का भी निर्देष दिया है।
असंगठित मजदूरों जो कि कारखाना मालिकों के शोषण और अत्याचार के षिकार हुये हैं, उन्हें न्याय दिलाने का सम्भवतः आज तक का सबसे बड़ा फैसला है। आदिवासी अकादमी बड़ौदा, खेमचेस अलीराजपुर, शिल्पी केन्द्र इन्दौर, के संयुक्त सर्वे के मुताबिक अलीराजपुर जिले के 22 गांव के 489 व्यक्ति सिलकोसिस बीमारी से पीड़ित है। इन बीमारों ने अत्याचार से न्याय पाने के लिए 24 दिसम्बर 2005 को ग्राम घौंगसा एवं रोडधा की कमली बाई, जवानसिंह, रेमसिंह, करमसिंह, रमेश दितलिया आदि 6 सिलकोसिस पीड़ित आदिवासी भोपाल जाकर मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान से मिले थे। विडम्बना यह है कि इस आधुनिक विकास के संघर्ष में घायलों को न तो राज्य शासन की ओर से कोई राहत, पुर्नवास या मुआवजा मिला और न ही उन्हें इलाज बचा पाया। मुख्यमंत्री महोदय से मिलने वाले 6 लोगों में से 3 मजदूर आज नहीं है।
आज मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ, अलीराजपुर में सैंकड़ों की तादाद में नहीं कोई 8000 के लगभग दलित व आदिवासी इस बीमारी की जकड़ में हैं। राजस्थान पत्रिका के अनुसार आज राजस्थान में 50000 लोग सिलकोसिस बीमारी से पीड़ित है। झारखंड में बड़ी आबादी सिलकोसिस की जकड़ में है। देश के लोग सिलकोसिस बीमारी से अनभिज्ञ है। शिक्षा पाठयक्रमों में इस बीमारी के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है।
ताड़ की मीठी ताड़ी का सेवन के बाद भगोरिया मेले में बांसुरी व ढोल की नांद से नाचने वाले इस आदिवासी को आजादी के 64 वर्ष बाद आखिर क्या मिला ? एक ऐसी बीमारी जो जान लेकर ही छोड़ती है? उन्हें यह वनवास क्यों मिला? वर्ष में कम से कम एक बार या दो बार अपने इष्ट देव की पूजा कर प्रकृति से कम से कम लेकर भी हुष्ट पुष्ट तन वाला वह आदिवासी पूरी रात तक नाचता, गाता कुर्राटी मारते हुए नहीं थकता था। भारत का संविधान ने देश के सभी नागरिकों को अधिकार देने दिया है किंतु, लकिन इन आदिवसियों से कहां चूक हुई कि उन्हें यह वनवास मिला। कहां गये उनके इष्ट देव, पूर्वजों के खतरी? कहां गये उनके हित रक्षक राजनेता समाज सेवक और सामाजिक संगठन? कान, नाक, गले, हाथ, पैर में सोना, चॉंदी के आभूषणों से लदी उनकी वेषभूषा कहां गई? गांव फलिये में से जातिविहीन सहकार, सहयोग, सामूहिकता का व्यवहार करने वाला और समानता का व्यवहार व समानता में जीने वाली संस्कृति का यह क्या परिणाम हुआ कि उसे घुमन्तू बनकर दर-दर की ठोकरें खाने और अपना अस्तित्व बचाने के लिए दूसरों की गुलामी करते हुये भी सिलकोसिस जैसी मानवजन्य बीमारी से लड़ना और मरना पड़ रहा है।
लेखक खेडूत मजदूर चेतना संगठन, अलीराजपुर के साथ काम करते हैं
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