@ प्रशांत कुमार दुबे


Courtesy-www.diplomatie.gouv.fr

मृत्युदंड को  भले  ही कानूनी रूप से उचित ठहराया जाए, लेकिन क्या इसे सभ्य समाज का ध्योतक माना जा सकता है? मृत्युदंड की मांग एक अत्यंत शांत और अहिंसक मनुष्य में थोड़ी  देर के लिए ही सही पर हिंसा का भाव पैदा कर देती है। धीरे-धीरे यह हिंसा समाज का अनिवार्य अंग भी बनने लगती है। कानूनी तौर पर न्यायालयों द्वारा दिए जाने वाले मृत्युदंड के बरस्क अब खाप पंचायतें या अन्य कई अनैतिक संगठन भी स्वयंभू होकर मृत्युदंड की सजा सुनाने लगे हैं। इस विषाक्तता को  समाप्त करने की पैरवी करता आलेख।

त्वरित न्याय का एक नमूना देखिए! मध्यप्रदेश के सीहोर  जिले के इछावर ब्लॉक के कनेरिया गांव में 11 जून 2010 ¨ मगनलाल ने अपनी 5 बेटियों को मौत के घाट उतारा। प्रकरण दर्ज हुआ। 3 फरवरी 2011 को सीहोर अदालत से उसे फांसी की सजा सुनाई गई। 12 सितम्बर 2011 को  उच्च न्यायालय ने भी यह सजा बरकरार रखी और 9 जनवरी 2012 को  उच्चतम न्यायालय ने इसकी पुष्टि कर दी। यही नहीं 22 जुलाई 2013 को  राज्यपाल और राष्ट्रपति के यहां से भी इसकी दयायाचिका खारिज हुई और  तुरत-फुरत 8 अगस्त 2013 को  फांसी का दिन मुकर्रर कर दिया गया। यानी केवल तीन साल में ही प्रकरण का निपटारा। जबलपुर सेंट्रल जेल में बंद इस कैदी को  फांसी देने के लिए जल्लाद भी लखनऊ से आ गया, रिहर्सल भी हो गई थी, लेकिन 7 अगस्त को  फांसी की सजा को लेकर दिल्ली के कुछ प्रगतिशील वकीलों युग चौधरी, रिषभ संचेती, कॉलिन गोंजाल्विस और सिद्धार्  ने रात 11 बजे इस पर स्थगन लिया।

लेकिन यह त्वरित निपटारा हमारी न्यायिक व्यवस्था के ऊपर एक तमाचा भी है। यह दर्शाता है कि जो  व्यक्ति आर्थिक रूप से कमजोर है, जिसके पास एक अच्छा वकील खड़ा करने की हिम्मत न हो, उसे पर्याप्त साक्ष्यों  के अभाव में भी धड़धड़ाते हुए फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया जाता है। मगनलाल के  इस प्रकरण में उसे विधिक सहायता तो  मिली, लेकिन उसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं थी और  मगन का पक्ष कहीं भी ठीक से नहीं रखा गया। इस पूरे प्रकरण में न्याय व्यवस्था से कई जगह चूक हुई है। साधारणतया फांसी दिए जाने का कारण सहित लंबा आदेश आता है। शायद यह पहला ही ऐसा प्रकरण है जिसमें केवल एक शब्द में फैसला आया है जिसमें लिखा है ’’बर्खास्त"।

मगनलाल बारेला का परिवार मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले  के सेंधवा ब्लॉक से आकर 30 बरस पहले  आकर कनेरिया में बस गया। परिवार के पास दो  एकड़ जमीन थी तथा परिवार में थीं दो  पत्नियां और 8 बच्चे। घर खर्च चलाने हेतु परिवार की दोनों  महिलाएं भी पास ही के जंगल से मूली (लकड़ी का गट्ठा) लाकर बेचती थीं। इसका अधिकतम दाम 45 रूपये तक ही मिल पाता है। इसके अलावा रो जगार गारंटी और  वन विभाग में थोड़ा काम मिलता है। 

वैसे मगनलाल पर कर्ज की बात कई मीडिया रिपोर्ट में सामने आई है, पर परिवार इससे अनभिज्ञ है। संतू और बसंती बाई बताती हैं कि कई बार हम लकड़ी बेचकर आटा लाते थे और तब खाना बनता था। फसल आने पर कुछ दिन तो  सब ठीक रहता था, लेकिन उसके बाद फिर यही स्थिति बन जाती थी।

चार्जशीट के अनुसार मगनलाल ने गरीबी की परिस्थिति से तंग आकर अपनी पांच बेटियों  की हत्या कर दी। लेकिन जमीनी परिस्थितियां और कोई साक्ष्य ऐेसा सिद्ध नहीं कर पाते। उनके भाई (अगन और जगन) बताते हैं कि शाम के करीब 5 बजे हम लोग  अपने घरों में थे। उसकी दोनों पत्नियां संतू और बसंती रोज की तरह लकड़ी लेने जंगल गई थीं। मगन घर पर लड़कियों  के साथ अकेला था। अचानक हल्ला व हंगामा सुनकर हम लोग इस तरफ आए, तो  हमने देखा कि हमारा भाई मगन, फांसी के फंदे पर झूल रहा है। छगन दौड़कर  घर से कुल्हाड़ी लाया और भाई की रस्सी काटी तब वह अर्धमरणासन्न अवस्था में था। उसके बाद हमने देखा कि घर के अंदर पाँचों लड़कियां (1 से 6 वर्ष तक की) मरी पड़ी हैं। सभी की गर्दन पर वार किया गया था। हमने सोचा कि भाई ने ही इन्हें मारा है और तब हमने उसे पेड़ से बांधा और पुलिस को फोन किया।

उसने कैसे और क्यों लड़कियों को  मारा या उसने ही लड़कियों को मारा यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। मगन का कहना था कि किसी ने आकर मेरी लड़कियों को  मारा और मुझे टांग कर चले गए। भाइयों और पत्नियों का कहना है कि उस समय वह शराब पिए हुए नहीं था। मगन कहता है कि उन तीन दिनों में क्या हुआ, मुझे कुछ नहीं पता। लोगों का कहना है कि वह लड़कियों को बहुत प्यार करता था और कभी किसी को  मारता भी नहीं था। वो तो बेटियों  क¨ अपने साथ बिठाकर ही खाना खिलाता था, पर उस दिन अचानक क्या हुआ, यह समझ से परे है।

गांव की ही मधु मीना कहती हैं कि मगन को घटना के दो-तीन माह पहले से ही कुछ हो  गया था। वह गुमसुम और शांत रहने लगा था, कुछ बात करते तो  ही बोलता था। जंगल में ही डोलता (घूमता) रहता था। वह कुछ पागल सा हो  गया था। ऐसा केवल मधु नहीं, बल्कि अधिकांश लोग यही कहते हैं। लेकिन पूरे प्रकरण में ऐसा जिक्र कहीं भी नहीं आया है।

बहरहाल इस पूरे प्रकरण ने देश में फांसी के जिन्न को  फिर से बाहर लाकर खड़ा कर दिया है। अजमल कसाब की फांसी ने इस बहस को  फिर सुलगाया है कि भारत को  मृत्युदंड बरकरार रखना चाहिए या नहीं। एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार भारत में पिछले दो  दशक में केवल चार व्यक्तियों को  फांसी दी गई है, लेकिन इस कतार में चार सौ  पैंतीस नाम हैं। मानवाधिकार समूहों ने भी भारत में मृत्युदंड खत्म किए जाने की मांग फिर दोहराई है। वैसे 110 देश मृत्युदंड को  नकार चुके हैं।

उच्चतम न्यायालय ने 1982 में ही कहा था कि मृत्युदंड बहुत विरल (रेअरेस्ट ऑफ रेयर) मामलों  में ही दिया जाना चाहिए। हालांकि हाल ही में भारत ने अड़तीस अन्य देशों  के साथ संयुक्त राष्ट्र में मृत्युदंड का समर्थन किया। यह भारत के एक विरोधाभास को  ही दर्शाता है। एक ओर देश ने मानवाधिकारों के संरक्षण वाली अंतरराष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन दूसरी ओर वह उन थोड़े से देशों में शामिल है जो  मृत्युदंड को  बरकारर रखने की पैरवी कर रहे हैं। 

मृत्युदंड लोककतांत्रिक व्यवस्था और सभ्य समाज के नाम पर कलंक है। गौरतलब है कि सरकार पहले तो  किसी व्यक्ति को गरीबी में जीने दे, उसे बेहतर जीवन जीने के अवसर ही  उपलब्ध ना कराए, लेकिन उन विपरीत परिस्थितियों में जब व्यक्ति हताश-निराश हो कर कोई कदम उठा ले तो  उसे फांसी दे दी जाए। बहरहाल, फांसी देकर सरकार ने अपनी कमियों पर ही परदा डाला है। गौरतलब है कि मगनलाल की पत्नियां और शेष 4 बच्चे पिछले  3 वर्षों  में सामाजिक कार्यकर्ताओं  की बदौलत ही उससे पहली बार मिल पाए हैं।

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महात्मा गांधी ने कहा था  कि मैं मृत्युदंड को  अहिंसा के खिलाफ मानता हूं, अहिंसा से परिचालित व्यवस्था हत्यारे क¨ सुधारगृह में बंदकर सुधरने का मौका  देगी। अपराध एक बीमारी है, जिसका इलाज होना चाहिए। आंबेडकर ने भी कहा था कि मैं मृत्युदंड खत्म करने के पक्ष में हूं। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मुझे लगता है कि जब भी कहीं कोई  व्यक्ति फांसी पर चढ़ाया जाता है तो  वह अकेला नहीं, बल्कि उसके साथ उसके मानवाधिकार भी सूली पर टांग दिए जाते हैं।
यह वही सरकार है जो कि  कसाब को  फांसी दिए जाने के मामले में कहती रही कि आम आदमी चाहता था कि कसाब को  फांसी दी जाए, इसलिए दी गई। क्या फांसी की सजा का प्रावधान किसी जनमत संग्रह का परिणाम है? अगर लोग  चाहेंगे कि सरेआम चौराहे पर फांसी दी जाए, तो क्या सरकार तब भी  यह मांग सरकार स्वीकार कर लेगी? न्याय सुधार के लिए है लेकिन मृत्युदंड लोगों को सुधार का  यह अवसर प्रदान नहीं करता। हमें समझना होगा कि मृत्युदंड कभी भी न्याय का पर्यायवाची नहीं हो  सकता।


मगनलाल भी इस जटिल प्रक्रिया में फंसा है और उसके मामले में अक्टूबर में अंतिम सुनवाई होनी है| बहरहाल देर से ही सही पर देश में मगन की फंसी की सजा को अब उम्र कैद में बदले जाने की मांग जोर पकड़ रही है | हमें यह उम्मीद भी नहीं तोडनी चाहिए कि आगामी एकाध दशक में हम यह भी कह सकेंगे कि भारत देश अपराधियों को मृत्युदंड नहीं बल्कि सुधरने का मौक़ा देने वाला लोकतांत्रिक देश है|