कमला भसीन
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ना रोजी है ना रोटी है, ना तन पे एक लंगोटी है,
पर वो- मन्दिर मस्जिद को
रोते हैं, नफरत के बीज बोते हैं
छुये आसमान महंगाई, पीठ पेट से लग आई है,
घनघोर उदासी छाई है,
पर वो- मन्दिर मस्जिद को
रोते हैं, और अपना देश डुबोते हैं
बच्चे मजदूरी पर जीते हैं,वो इल्म से रहते रीते हैं,
हम खून के आंसू पीते हैं
पर वो- मन्दिर मस्जिद को
रोते हैं, ऐसे भी नेता होते हैं
ना नारी का यहां मान हैं,ना दलितों की पहचान हैं
ना विकलांगों को स्थान हैं
पर वो- मन्दिर मस्जिद को
रोते हैं, जो है उस को भी खोते हैं
है जहर हवा में पानी में, और नेताओं की बानी में,
नहीं जोष बचा जवानी में, सब लगे हुये मनमानी में
पर वो- मन्दिर मस्जिद को
रोते हैं, बरबादी पे खुष होते हैं
असली बातों से सरोकार नहीं,है देश से इनको प्यार नहीं
ये मजहब के भी यार नहीं,
इसीलिये - मन्दिर मस्जिद को
रोते हैं, सब नारे इनके थोथे हैं
अब हमने तो ये माना हैं, बस सच्चा एक तराना है
मन्दिर मस्जिद तो काफी हैं, इक देश है उसे बचाना हैं
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