-राम पुनियानी
अपराध और सज़ा के संदर्भ में हम एक अजीब दौर से गुजर रहे हैं। एक ओर सांप्रदायिक हिंसा के दोषी सीना फुलाए घूम रहे हैं तो दूसरी ओर आंतकी हमलों के लिए जिम्मेदार ठहराए गए सैकड़ों निर्दोष युवा जेल की सलाखों के पीछे हैं। उनका दोष केवल इतना है कि वे एक धर्म-विशेष के अनुयायी हैं। हमारा समाज और हमारी पुलिस यह मान कर चलती है कि सभी मुसलमान आतंकवादी हैं। सांप्रदायिक हिंसा व आतंकवाद-दोनों के लिए उन्हें दोषी ठहराया जाता है। उनका दानवीकरण चरम पर है। समाज का एक बड़ा हिस्सा, अल्पसंख्यकों के बारे में कपोल-कल्पित मिथकों को सच मानता है तो पुलिस का एक बड़ा तबका, सांप्रदायिक हिंसा व आतंकी हमलों के मामलों में उनके खिलाफ एक-पक्षीय व पूर्वाग्रहपूर्ण कार्यवाही करता है।
ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं जिनमें आतंकी हमलों के बाद गिरफ्तार किए गए मुस्लिम युवकों को अदालतों ने निर्दोष करार दिया। यह अलग बात है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था की कछुआ चाल के कारण इसमें बरसों लग गए। झूठे फँसाए गए हर ऐसे युवक की अपनी दुःख भरी कहानी है परंतु मोहम्मद आमिर खान - जो अब 32 वर्ष का है - की आपबीती (मार्च 2012) दिल को हिला देने वाली है। इस कहानी का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि यह युवक अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करने के लिए तैयार है। इससे भी बड़ी बात यह है कि वह उस व्यवस्था के सकारात्मक पक्षों को स्वीकार करता है जिस व्यवस्था ने उसे 14 साल जेल की अंधेरी कोठरियों में कैद रखा। उसके मन में उस व्यवस्था के प्रति कड़वाहट नहीं है जिसने उसे कई वर्ष एकांत कारावास में रखा।
जिस वक्त दिल्ली पुलिस ने आमिर को कई आतंकी हमलों का “मास्टरमाइंड“ होने के आरोप में गिरफ्तार किया था, वह 18 साल का था और दसवीं क्लास में पढ़ता था। पुलिस ने उसके साथ क्या सलूक किया, यह बताने की ज़रूरत नहीं है। हमारे देश में पुलिस सुधारों की बातें तो खूब हो रही हैं पंरतु खाकी वर्दी वालों की मनमानी पर कोई रोक नहीं लग सकी है। वे शारीरिक यंत्रणा देने के नए-नए तरीके ईजाद करते रहते हैं और डंडे के बल पर, किसी से भी कोरे कागजों पर दस्तखत करा लेना उनके बांए हाथ का खेल है। कानून के तथाकथित रक्षक, कानून तोड़ने में सबसे आगे हैं। पुलिस थानों और जेलों में उनका साम्राज्य है। वहाँ वे किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं रहते और बड़े से बड़ा अपराध कर बच निकलते हैं।
आमिर इस पूरे भयावह दौर से गुजरा। जेल में रहते हुए उसने इग्नू के जरिए अपनी पढ़ाई जारी रखने की कोशिश की। चूंकि वह “गलत“ धर्म का था और उसे ज्यादा से ज्यादा कष्ट देना जरूरी था इसलिए उसे एकांत कारावास में डाल दिया गया जिससे उसकी पढ़ाई जारी न रह सके। चौदह लंबे साल जेल में गुजारने के बाद भी उसका मानसिक संतुलन बना हुआ है, यह सचमुच आश्चर्यजनक है। उसमें अभी भी पत्रकारिता और कानून की पढ़ाई करने का उत्साह बाकी है।
आमिर के जेल में रहने के दौरान उसके पिता नहीं रहे और उसकी माँ लकवाग्रस्त हो गईं। पुलिस द्वारा उस पर लादे गए अगणित झूठे मुकदमे लड़ने के लिए घर की सारी संपत्ति बिक गई। उसके समुदाय के नेताओं के पास उसकी मदद करने के लिए समय नहीं था। पारिवारिक मित्रों और रिश्तेदारों ने भी “पाकिस्तानी आतंकी“ की मदद करना मुनासिब नहीं समझा।
आज वह जेल से बाहर है। उस पर दो मामले अभी भी चल रहे हैं। वह एक एन.जी.ओ. में काम कर अपनी माँ के महंगे इलाज का खर्च किसी तरह पूरा कर रहा है। वह जीवन में कुछ बनने के सपने देख रहा है।
आमिर और उसके जैसे सैकड़ों अन्य युवाओं की जिन्दगियां बर्बाद करने के लिए कौन जिम्मेदार है? इसके पीछे हमारे पुलिस बल का पूर्वाग्रहपूर्ण नजरिया तो है ही, समाज में मुसलमानों के प्रति बैरभाव भी इसके लिए कम उत्तरदायी है। जहां पुलिस यह मानकर चलती है कि मुसलमान आदतन अपराधी और आतंकवादी हैं वहीं साम्प्रदायिक ताकतों का दुष्प्रचार, पाठ्यपुस्तकें और कुछ हद तक मीडिया भी समाज में मुसलमानों की छवि का दानवीकरण करने के लिए जिम्मेदार हैं। क्या इन निर्दोष युवकों के पुनर्वास के लिए समाज और राज्य को पहल नहीं करनी चाहिए? मक्का मस्जिद धमाकों में आरोपी बनाए गए युवकों को निर्दोष पाए जाने के बाद 3 लाख रूपये प्रति व्यक्ति की दर से मुआवजा दिया गया था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब उन्हें गिरफ्तार किया गया था तब आतंकी हमले के लिए दोषी मुसलमान युवकों की गिरफ्तारी की खबर को मीडिया की सुर्खियों में जगह मिली थी। परंतु जब उन्हें बरी किया गया तब यह खबर बहुत छोटे शीर्षक से अंदर के पृष्ठों पर छपी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में इस संदर्भ में स्थितियां बेहतर हुई हैं। विशेषकर, हेमन्त करकरे द्वारा की गई सूक्ष्म जांच, जिसे राजस्थान एटीएस ने आगे बढ़ाया, से हालात बेहतर हुए हैं। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, दयानंद पाण्डे, स्वामी असीमानंद और उनकी भगवा गैंग के अन्य सदस्यों की कुत्सित हरकतों का पर्दाफाश हो गया है। यह महत्वपूर्ण है कि इस भगवा गैंग की गिरफ्तारी के बाद से देश में आतंकी बम हमलों की घटनाओं में भारी कमी आई है। इस तथ्य से हम उचित निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
ऐसा लगता है कि करकरे के पहले, आतंकी हमलों की जांच करने वाले पुलिसकर्मियों ने अपनी आंखें, कान और दिमाग बंद रखकर काम किया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि आतंकी हमलों में निर्दोष होते हुए भी फंसाए गए मुस्लिम युवकों का उचित पुनर्वसन होना चाहिए और उन्हें उपयुक्त मुआवजा मिलना चाहिए परंतु इससे भी ज्यादा जरूरी हैं पुलिस सुधार और शारीरिक यंत्रणा पर आधारित पुलिसिया जांच पद्वति पर कड़ी रोक। किसी भी अपराध के आरोपियों के कानूनी व मानवाधिकारों को पूरा सम्मान मिलना चाहिए। मुस्लिम युवकों के साथ मनमाना व्यवहार करने वाले, उन पर थर्ड डिग्री इस्तेमाल करने वाले पुलिसकर्मियों को सामान्यतः कोई सजा नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि खाकी वर्दी ने उन्हें किसी की भी जिंदगी बर्बाद करने का हक दे दिया है। आमिर की आपबीती वह आईना है जिसमें हमारी व्यवस्था का नितांत विद्रूप चेहरा साफ-साफ दिखलाई दे रहा है। जरूरत इस बात की भी है कि अल्पसंख्यकों के बारे में प्रचलित मिथकों का तार्किक खण्डन किया जाए और साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास हों। हमें उम्मीद है कि सत्ता में बैठे लोग इस मुद्दे पर गहन आत्मचिंतन करेंगे।
ऐसा बहुत कम होता है कि 18 वर्ष की आयु में बिना किसी अपराध के जेल में ठूंस दिया गया युवक, 32 साल की उम्र में बाहर आए और तब भी उसके मन में व्यवस्था के प्रति कोई कड़वाहट न हो। क्या ऐसे में हमारी व्यवस्था का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वह इस युवक की हरसंभव मदद करे? यह सुनिश्चित किया जाए कि उसकी अपाहिज मां का समुचित इलाज हो और उसे अपने सपनों को साकार करने का-बहुत देर से ही सही-परंतु पूरा अवसर मिले।
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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