भारत डोगरा

शहरी निर्धन वर्ग और स्लम बस्तियों में सुधार का एक नया दौर आरंभ हो चुका है, पर सवाल यह है कि बढ़ते बजट और लुभावने नारों के बीच स्लमवासियों को वास्तव में कितना लाभ मिल पाएगा? यह सवाल उठाना इसलिए जरूरी है क्योंकि जन-भागीदारी के अभाव में बहुत अच्छी योजनाएं भी अपने उद्देश्य से बुरी तरह भटक जाती है। इसका एक जीता-जागता उदाहरण है कानपुर की नवीनगर काकादेव स्लम बस्ती। पहली नजर में तो यहां की योजना बहुत आकषर्क लगती है कि स्लमवासियों को हटाए बिना मूल स्थान का ही नए सिरे से विकास किया जाए ताकि स्लमवासियों को रहने के लिए छोटे फ्लैट मिल जाएं। अधिकांश लोग कहेंगे कि इससे अच्छा और क्या हो सकता है पर जब हम हाल ही में इस योजना का सही हाल जानने के लिए इस बस्ती में पहुंचे तो एक चिंताजनक स्थिति हमारे सामने उपस्थित हुई। यह सच है कि यहां बहुमंजिला फ्लैट बनाए गए है पर बहुत से मूल निवासी आज भी इन फ्लैट से बाहर है। यहां के अनेक लोगों ने बताया कि जब फ्लैट बनने लगे तो इन्हे हथियाने के लिए अनेक फर्जी लोग आगे आ गए जबकि यहां के अनेक मूल निवासियों को पीछे धकेल दिया गया। 

यह मूल निवासी आज भी स्लम बस्ती जैसी स्थिति में ही इन फ्लैटों के पास रह रहे है। वे कहते है कि उन्होंने फ्लैट पर अपना हक प्राप्त करने के लिए ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेकर कितना ही पैसा खर्च कर दिया पर उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। अब वे कर्जग्रस्त हो गए है व 10 प्रतिशत मासिक की दर पर लिया ब्याज चुकाना भी कठिन है। इतना ही नहीं, अब इन मूल निवासियों को कई बार अधिकारियों ने कह दिया है कि वे इस स्थान को छोड़कर चलें जाएं। इस तरह उन पर बेघर होने का खतरा भी मंडरा रहा है। यह एक क्रूर विसंगति है कि जो योजना आवास सुधारने के नाम पर शुरू की जाए वह कइयों को बेघर कर दे। जिन परिवारों को फ्लैट मिल गया, क्या उनकी प्रगति संतोषजनक मानी जा सकती है? ऐसे अनेक परिवारों ने बताया कि निर्माण कार्य इतना घटिया स्तर का हुआ है कि वे अपने भविष्य के बारे में अभी से अनिश्चित है। एक कील ठोको तो प्लस्तर नीचे गिरने लगता है। शौचालयों के पाइप लीक करते है। वष्रा में छत टपकती है। कभी कोई भूकंप जैसी आपदा आ गई तो न जाने इन घटिया स्तर के आवासों का क्या होगा, जो किसी आपदा के बिना ही टूट-फूट रहे है। इन फ्लैटों के आवंटन के समय प्रति आवास 16 हजार रुपए वसूला गया था जो अनेक परिवारों ने ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेकर दिया था।

 अब इस ब्याज के साथ मूलधन चुकाना उनके लिए एक मुसीबत बना हुआ है, साथ में घटिया निर्माण के कारण वे आवास को लेकर भी आश्वस्त नहीं हो पा रहे है। यह एक उदाहरण है ऐसे स्लम विकास का, जहां जन-भागीदारी से कार्य नहीं हुआ व इस कारण बहुत गड़बड़ी हुई। एक अन्य परंतु उलट उदाहरण पुणो में भी है, जहां आरंभ से अंत तक सभी कार्य जन-भागीदारी व निर्धन वर्ग के संगठनों की भागीदारी से हुआ। यहां बोझा ढोने वालों या हमालों के संगठनों ने सरकार से सस्ती जमीन के लिए आवेदन किया व यह जमीन प्राप्त होने पर एक आर्किटेक्ट के सहयोग से और अपनी मेहनत से अच्छी गुणवत्ता के लगभग 400 फ्लैट बनाए। जो हमाल पहले झोपड़ियों व स्लम बस्तियों में रहते थे, वे इन फ्लैटों में रहने लगे। सामुदायिक भावना के कारण इस कालोनी का रख-रखाव भी बहुत अच्छा रहा। यहां सामुदायिक भवन भी बनाया गया व अच्छा स्कूल भी आरंभ किया गया। इस तरह सही अथां में बोझा ढोने वालों को सभी ष्टियों से अच्छे आवासों में रहने का अवसर मिला। इन दो उदाहरणों का सबक यही है कि यदि लोगों की भागीदारी से स्लम-सुधार या स्लम के विकल्प खोजने का प्रयास हो, तभी उसमें सफलता मिलेगी। ऐसे अनेक उदाहरण कानपुर में भी मौजूद है कि ुजब लोगों की भागीदारी व समुदाय की संगठन शक्ति के आधार पर प्रयास किए गए तो उच्छे परिणाम मिले। 

कानपुर में जब मिलों में मजदूरों के रोजगार कम होते जा रहे थे तो यहां श्रमिक भारती संस्था ने अनेक स्लम बस्तियों में महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जिसने हाल के समय में वाटरएड संस्था के सहयोग से स्लम बस्तियों की महिलाओं में से ’सिटीजन लीडर‘ का चयन किया। आगे इन्होंने जल व सफाई की व्यवस्था सुधारने के लिए समुदायों को संगठित किया। देवीगंज, इंदिरा मलिन व बारांदेवी बस्तियों में पूर्वनिर्मित सामुदायिक शौचालय खराब पड़े हुए थे। इस कारण इन बस्तियों के लोगों, विशेषकर महिलाओं को बहुत कठिनाई हो रही थी। लोगों ने इन्हें ठीक करवाने के लिए बार-बार अधिकारियों से संपर्क किया। आखिरकार उनके सामूहिक प्रयास की वजह से शीदा ही इन शौचालयों की मरम्मत करवाई गई व अब लोगों को काफी राहत मिली है। कानपुर की ही मक्कू सईद की भट्ठा बस्ती में पेयजल का संकट इतना बढ़ गया था कि लोगों का जीवन दूभर हो गया था। इस स्थिति में महिलाओं के स्वयं सहायता समूह ने अपनी बचत से ही पेयजल व्यवस्था दुरुस्त करने के उपाय किए। इतना ही नहीं, नई व्यवस्था के उचित रखरखाव की जिम्मेदारी भी उन्होंने संभाली। आज किसी बाहरी सहायता के बिना ही बहुत निर्धन महिलाओं ने अपनी स्लम बस्ती की स्थिति सुधारने का शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी पेयजल समस्या काफी हद तक दूर हो चुकी है। गोस्वामीनगर बस्ती ऐसे लोगों की बस्ती है जो सामाजिक व पर्यावरणीय स्तर पर बहुत उपयोगी भूमिका निभा रहे है। वे कानपुर की विभिन्न बस्तियों से पुराने कपड़े खरीदते है, उनकी मरम्मत करते है, फिर इन्हें कम कीमत पर गरीब लोगों को बेच देते है। इस तरह वे सस्ते से सस्ते तरीकों से सीमित संसाधनों का बेहतर उपयोग करते हुए निर्धन वर्ग की जरूरतों को पूरा करने में बड़ी भूमिका निभा रहे है। इसके बावजूद इस समुदाय की जरूरतों को अधिकारियों ने बहुत उपेक्षित किया। यहां बहुत गंदगी एकत्र होती रही व सफाई का कोई प्रयास नहीं किया गया।

 इस स्थिति में महिला समूहों, सिटीजन लीडर व अन्य बस्तीवासियों के सामूहिक प्रयास हुए तो कई वष्रो से जमा कई टन कूड़े को वहां से हटा दिया गया। इसी तरह के सामूहिक प्रयास से कई हैडपंपों की मरम्मत हो सकी व जल-संकट दूर करने में मदद मिली। अब इस बस्ती के लोगों का अगला प्रयास यह है कि शौचालयों की उचित व्यवस्था की जाए। ऐसे में जब स्लमवासी अनेक कठिनाईयों व आर्थिक संकट के बीच भी अपने सामूहिक प्रयास से सार्थक कार्य कर रहे है तो प्रशासन के लिए भी यह बहुत जरूरी है कि वह एक उत्साहर्वाक भूमिका निभाए तथा प्राथमिकता के आधार पर इन समुदायों की समस्याओं के समाधान में योगदान करे। जैसे-जैसे यह संदेश फैलेगा कि स्लमवासियों की एकता के आधार पर किए गए प्रयासों को सरकार भी सहयोग करती है तो कही और अधिक स्लम बस्तियां भी ऐसे प्रयासों के लिए प्रोत्साहित होगी।