रंजीत वर्मा
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हाल में जारी एक रिपोर्ट से यह तथ्य सामने आया है कि बलात्कार के मामले में आरोपी को सजा सुनाये जाने का अनुपात लगातार गिर रहा है। दूसरी ओर रिपोर्ट में यह भी साफ दर्शाया गया है कि बलात्कार के मामलों में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सजा को लेकर अदालतों के ढीले रवैये से यह बढ़ोतरी हो रही है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1973 में सजा सुनाये जाने का औसत 44.26 प्रतिशत था जो क्रमश: गिरता हुआ 1983 में 36.83, 1993 में 30.30, 2003 में 26.12 तक चला आया।
2010 में यह भले ही 2003 के मुकाबले थोड़ा ऊपर उठ कर 26.50 पर आया लेकिन इसे कहीं से भी बलात्कारियों को हतोत्साहित करने वाला नहीं कहा जा सकता। तभी तो बलात्कार की घटनाओं में कहीं कोई कमी देखने में नहीं आ रही है। ब्यूरो के अनुसार 1973 में 2919 बलात्कार की घटनाएं दर्ज हुई जो 1983 में दोगुनी यानी 6019 पर पहुंच गई और 1993 में फिर दोगुनी होती हुई 12218 पर आ गयीं। 2003 में यह संख्या रही 15913 और 2010 में 20262। क्या इन आंकड़ों को देखकर नहीं लगता कि कानून बलात्कार की घटना को संजीदगी से नहीं लेता। तभी तो स्थिति विस्फोटक होती हुई यहां तक पहुंच गयी है। देखा जाये तो कानून का पालन हो, इसकी पहली जिम्मेदारी पुलिस की है। अदालतें तो बाद में आती हैं।
वैसे भी आपराधिक न्याय पण्राली में साक्ष्यों और सबूतों के बिना वह कुछ नहीं कर पाती और यह सब जुटाने का काम पुलिस का है। इसलिए जब बलात्कार की संख्या में बढ़ोत्तरी और अदालतों से अभियुक्तों के छूटते चले जाने का प्रतिशत सामने आता है तो किसी को यह समझते देर नहीं लगती कि यौन अपराध के मामले में पुलिस या तो गंभीरता से काम नहीं करती या वह यौन अपराध को गंभीर अपराध नहीं मानती। लोगों का अनुभव तो यह भी है कि इस तरह के मामलों में पुलिस पीड़ित महिला के साथ इस तरह का व्यवहार करती है जैसे वही दोषी हो जबकि अदालतें कई बार कह चुकी हैं कि पीड़ित को सहअभियुक्त न माना जाए। कई बार तो पुलिस का व्यवहार पीड़ित महिला के लिए उतना ही अपमानजनक होता है जितना बलात्कार का शिकार होते वक्त। क्या यही वे कारण नहीं कि अनेक मामलों में पीड़ित या उसके परिजन थाने में रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराते। हालांकि मामला दर्ज न कराये जाने की एक वजह यह भी बतायी जाती है कि कई बार बलात्कारी परिचित या रिश्तेदार होता है, इसलिए लोग बात दबा जाते हैं। देखा जाए तो यह रवैया सिर्फ भारतीय पुलिस का ही नहीं, बल्कि वैिक है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसी आधार पर भारतीय पुलिस के रवैये को नजरअंदाज कर दिया जाए।
हालांकि इस मामले में विकसित देशों के आंकड़े भी कम चौंकाने वाले नहीं हैं। 1991 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में बलात्कार के सिर्फ 55 प्रतिशत मामले पुलिस में दर्ज हुए और कनाडा में 1985 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ 38 प्रतिशत। भारत में इस तरह का कोई उपलब्ध आंकड़ा नहीं है लेकिन लोग अच्छी तरह समझते हैं कि न दर्ज होने वाले मामले दर्ज होने वाले मामलों से ज्यादा होते हैं। कहीं यहां भी इसके पीछे पुलिस का वही नकारात्मक रवैया तो नहीं है जिसकी वजह से पीड़ित महिला या उसका परिवार थाने नहीं जाना चाहता। खैर, जब इस बढ़ती घटना को लेकर अपनी पुलिस से सवाल किया जाता है तो उसका कहना होता है कि भारत में पुलिस बल की संख्या काफी कम है। 2010 में जुटाये गए आंकड़ों के अनुसार यहां प्रति एक लाख पर 133 पुलिस कर्मचारी हैं जबकि सुचारू ढंग से काम करने के लिए यह संख्या 250 होनी चाहिए। शायद अपराध को नियंतण्रसे बाहर होता देखकर ही हाल के महीनों में विभिन्न पदों पर पांच लाख पुलिस कर्मचारियों की भर्ती की गयी है।
लेकिन सच यह भी है कि सिर्फ संख्या बल बढ़ाना समस्या का समाधान नहीं बल्कि पर्याप्त प्रशिक्षण भी उतना ही जरूरी है। अभियुक्त को अदालत से सजा दिलाने में पुलिस सफल नहीं हो पाती है तो इसकी एक वजह यह भी बतायी जाती है कि मामले की जांच वैज्ञानिक तरीके से करने का उसके पास कोई साधन नहीं होता लेकिन साधन न होना इतनी बड़ी कमी नहीं है कि इसे ही सारी गड़बड़ियों का आधार मान लिया जाये। अगर यही एकमात्र वजह होती तो इन्हीं सीमित साधनों के बलबूते आखिर कैसे मिजोरम की पुलिस इतने साक्ष्य जुटा लेती है कि वहां सजा का प्रतिशत 96.6 तक पहुंच गया है। जानकार बताते हैं कि वहां ऐसा इसलिए है क्योंकि पुलिस पर समाज का दबाव रहता है और पुलिस को न चाहते हुए भी मुस्तैदी से काम करके लोगों के सामने खुद को साबित करना होता है। देखा जाए तो कमोबेश लगभग यही स्थिति पूरे पूर्वोत्तर राज्यों की है। नगालैंड में सजा की दर 73.7 प्रतिशत है तो अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में 66.7 प्रतिशत और मेघालय में 44.4 प्रतिशत। इसकी एक वजह यह भी है कि वहां महिलाओं में शिक्षा दर देश के अन्य हिस्से की महिलाओं के मुकाबले ज्यादा है।
सीधी सी बात है कि यौन अपराध को लेकर सबसे पहले समाज को अपना रवैया बदलने की जरूरत है। इसे सामाजिक जागरूकता से ही खत्म किया जा सकता है। सामाजिक जागरूकता से न सिर्फ पुलिस और अदालत खुद को दबाव में महसूस करेंगे बल्कि इससे बलात्कारी पर भी एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक दबाव बनेगा और वह बलात्कार की घटना को अंजाम देने के पहले हजार बार सोचेगा।
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