-राम पुनियानी


हैदराबाद के सैदाबाद और मदन्नापेठ इलाकों में अप्रैल के पहले सप्ताह में स्थानीय मुसलमानों के विरूद्ध साम्प्रदायिक हिंसा हुई। इस हिंसा में कई मकानों को नुकसान पहुंचाया गया, कुछ लोग घायल भी हुए और महिलाएं बलात्कार का शिकार बनीं। इस दंगे के ठीक पहले, प्रवीण तोगड़िया ने इसी इलाके में अत्यंत भड़काऊ भाषण दिया था। ऐसी अफवाह थी कि मुसलमानों ने एक स्थानीय हनुमान मंदिर में गौमांस और हरा रंग फेंका। ये अफवाहें हिंसा भड़काने के लिए पर्याप्त थीं। पुलिस ने हिंसा के आरोपियों को जल्द ही हिरासत में ले लिया। सभी आरोपी हिन्दू निकले और वे सब हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों से जुड़े हुए थे। 

इसी साल, नए वर्ष की पूर्व संध्या पर, कर्नाटक के बीजापुर जिले के सिन्दगी कस्बे में सरकारी इमारतों पर पाकिस्तान का झंडा फहराए जाने की खबर उड़ी। यह खबर, जंगल की आग की तरह पूरे कस्बे में फैल गई। इसके बाद शुरू हुई हिंसा में राज्य परिवहन निगम की 6 बसों सहित दर्जनों वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। बाद में हुई जांच में यह सामने आया कि इस घटना के पीछे श्रीराम सेने के प्रमोद मुत्तालिक थे। मुत्तालिक, जो कि एक पूर्व आरएसएस प्रचारक हैं, ने पहले एक सरकारी इमारत पर पाकिस्तान का झंडा फहराया और फिर कस्बे में इसकी खबर फैलाई। 

इन दोनों हिंसक घटनाओं को धार्मिक पहचान, प्रतीकों और भड़काऊ भाषणबाजी के जरिए अंजाम दिया गया। साम्प्रदायिक हिंसा एक ऐसा कैंसर है जिसने हमारे सामाजिक-राजनैतिक तंत्र को बुरी तरह जकड़ लिया है। साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे “दूसरे से घृणा करो“ की सोच का सबसे बड़ा हाथ होता है। इस सोच की नींव बनती हैं “दूसरों“ के बारे मे फैलाए गए मिथक और आमजनों के मन में अनवरत दुष्प्रचार के जरिए मजबूती से बैठा दिए गए पूर्वाग्रह। साम्प्रदायिक दंगे, दरअसल, साम्प्रदायिक राजनीति का नतीजा हैं। साम्प्रदायिक राजनीति वह राजनीति है जिसका आधार धार्मिक पहचान होती है। समाज में “दूसरे“ के प्रति घृणा का वातावरण निर्मित करने के लिए सबसे पहले इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जाता है। उसके बाद, संबंधित समुदाय के सामाजिक-धार्मिक जीवन के चुने हुए पहलुओं को बढ़ा-चढ़ाकर, गलत परिपेक्ष्य में, इस ढंग से प्रस्तुत किया जाता है कि संबंधित समुदाय, दानवों का समूह प्रतीत होने लगे।

देश के विभाजन के बाद, भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों का लगभग अस्त हो गया। मुस्लिम समुदाय के साम्प्रदायिक तत्वों ने अपना चोला बदल लिया। हिंसा व आक्रामकता की जगह वे मुसलमानों में दकियानूसीपन व पुरातनपंथी सोच को बढ़ावा देने लगे। अल्पसंख्यक साम्प्रदायिक तत्वों ने अपनी बची-खुची ताकत का इस्तेमाल, अल्पसंख्यकों को असहिष्णु बनाने के लिए किया। मुसलमानों की बढ़ती धार्मिकता व कट्टरता ने बहुसंख्यक समुदाय को प्रत्याक्रमण करने का बहाना और मौका दे दिया। विभाजन के समय हुई भीषण साम्प्रदायिक हिंसा के बाद कुछ साल शांति में गुजरे। सन् 1961 में जबलपुर में हुए साम्प्रदायिक दंगों के साथ, स्वतंत्र भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का सिलसिला शुरू हो गया। जबलपुर दंगों के बाद ही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन किया। साम्प्रदायिक दंगे, जिनमें एक समुदाय के सदस्य दूसरे समुदाय के अनजान लोगों पर हिंसक हमले करते हैं, का चरित्र शनैः-शनैः बदल रहा है। अब साम्प्रदायिक संगठनों का लक्ष्य अल्पसंख्यकों को डरा-धमकाकर उन्हें स्थायी रूप से आतंक के साये में जीने के लिए मजबूर करना हो गया है। इस मामले में हमेशा यह सावधानी बरती जाती है कि हिंसा की शुरूआत करने का आरोप अल्पसंख्यको के सिर मढ़ा जाए। मुसलमानों ने हिंसा शुरू की, ईसाईयों ने हिन्दुओं पर आक्रमण किया-जैसी अफवाहें फैलाई जाती हैं और तत्पश्चात यह तर्क दिया जाता है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ की गई हिंसा केवल बदले की कार्यवाही थी और उन्हें वही सजा मिली जो उन्हें मिलनी चाहिए थी। उपरलिखित साम्प्रदायिक हिंसा की दोनों घटनाएं साम्प्रदायिक दंगों के उत्पादन की प्रक्रिया दर्शाती हैं। बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिक ताकतें समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण कर अपनी शक्ति बढ़ाती हैं। इस ध्रुवीकरण को अंजाम दिया जाता है अल्पसंख्यकों के खिलाफ सुनियोजित ढंग से पूर्वाग्रह व मिथक फैलाकर। जब घृणा का बम तैयार हो जाता है तब उसमें अफवाहों की तीली लगाकर हिंसा का विस्फोट कर दिया जाता है। दंगा शुरू करने के लिए फैलाई जाने वाली अफवाहों की सूची बहुत लंबी नहीं है। गौहत्या, हिन्दू औरतों का अपहरण, उनके साथ बलात्कार और उनके स्तन काट दिए जाने, पूजास्थल का अपवित्र किया जाना और धार्मिक ग्रंथ का अपमान-ये वे अफवाहें हैं जो हमारे देश में हुए सैकड़ों साम्प्रदायिक दंगों का कारण बनीं। अभी हाल में इस सूची में पाकिस्तानी झंडे का फहराया जाना भी जोड़ दिया गया है। 

अधिकांश मामलों में हिंसा सुनियोजित होती है, यद्यपि कहा यह जाता है कि वह स्वस्फूर्त है और इसकी शुरूआत मुसलमानों ने की है। हैदराबाद और सिन्दगी की घटनाएं इस कुत्सित रणनीति का प्रमाण हैं। इसके पहले, कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के बहाने हिंसा भड़काई गई थी। स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या माओवादियों ने की थी परंतु ईसाईयों को उसके लिए दोषी ठहराया गया। स्वामी लक्ष्मणानंद के शव को जुलूस के रूप में ईसाई-बहुल इलाकों से ले जाया गया और इसके बाद खून की होली शुरू हो गई। गुजरात हिंसा की तैयारी तो बहुत पहले से की जा रही थी। वहां गोधरा ट्रेन आगजनी को हिंसा की शुरूआत करने का बहाना बनाया गया। मौत के सौदागरों ने गुजरात में जो कुछ किया, वह भारत के इतिहास का एक ऐसा काला पृष्ठ है जिसे मिटाने में कई दशक लग जाएंगे। बाबरी मस्जिद के ढ़हाए जाने के बाद कुछ मुस्लिम युवकों ने मुंबई के एक पुलिस थाने पर पथराव किया। जवाबी कार्यवाही में शिवसेना कार्यकर्ताओं ने एक मस्जिद पर गुलाल फेंकी और शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने मुसलमानों को “सबक सिखाने“ का आव्हान किया। अनेक न्यायिक जांच आयोगों और जन न्यायाधिकरणों की जांच रपटों से यह सामने आया है कि साम्प्रदायिक दंगों में बहुसंख्यकवादियों के साम्प्रदायिक संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भिवंडी दंगों की जांच करने वाले मादोन आयोग से लेकर मुंबई दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की रपट तक-दंगों की शुरूआत करने और उन्हें भीषण स्वरूप देने में बहुसंख्यकों के साम्प्रदायिक संगठनों की भूमिका रेखांकित की गई है। इन रपटों से यह भी सामने आया है कि दंगे भड़काने वाले यह सुनिश्चित करते हैं कि पहला पत्थर फेंकने का आरोप अल्पसंख्यकों पर ही लगे। 

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी डाक्टर व्ही. एन. राय ने सन् 1968 से 1980 के बीच हुए साम्प्रदायिक दंगों को अपनी पी. एच. डी. थीसिस की विषयवस्तु बनाया था। काम्बेटिंग कम्यूनल कन्फिल्क्ट्स शीर्षक के उनके उस शोध प्रबंध से लिया गया यह उद्धरण इस विषय पर विस्तृत प्रकाश डालता है। “अक्सर जिन परिस्थितियों में पहला पत्थर फेंका जाता है या आक्रमण की मुद्रा में पहला हाथ उठता है, उन परिस्थितियों के निर्माण के पीछे किसी बाहरी शक्ति का हाथ होने के स्पष्ट संकेत दिखलाई देते हैं - उस शक्ति के जो कि एक ऐसा वातावरण बनाना चाहती है जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य कोई ऐसी हरकत कर बैठें जिससे उनके खिलाफ बड़े पैमाने पर बदले की कार्यवाही शुरू की जा सके। आलोचना से बचने के लिए और स्वयं को पाक-साफ दिखाने के लिए इन शक्तियों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे ऐसा प्रदर्शित करें कि हिंसा मुसलमानों की ओर से शुरू हुई है। यह ऐसा ही है जैसे किसी कमजोर आदमी के साथ धक्का-मुक्की की जाए और जब वह अपने बचाव में हाथ उठाए तो उसे हमलावार करार देकर उसकी पिटाई शुरू कर दी जाए। सजा देने के पहले इस आशय का शोर भी मचाया जाता है कि संबंधित व्यक्ति मूलतः दुष्ट व हिंसक है और पहले हाथ उठाना उसके स्वभाव के अनुरूप है।“ (पृष्ठ 56-57)

 पिछले कुछ वर्षों में दंगा भड़काने के तरीकों में परिवर्तन आया है। अब अल्पसंख्यकों के विरूद्ध दुष्प्रचार, दंगा शुरू करने की निश्चित तिथि के कुछ समय पहले प्रारंभ नहीं किया जाता। यह लगातार जारी रहता है। दुष्प्रचार के मुद्दे भी बदल गए हैं। साम्प्रदायिक तत्वों के हौसले आसमान पर हैं। वे न तो पाकिस्तान का झंडा फहराने से डरते हैं और न ही हिन्दू पूजा स्थलों में गौमांस फेंकने से घबराते हैं। एक अन्य परिवर्तन है दंगों में मारे जाने वालों में मुसलमानों का बढ़ता अनुपात। सन् 1980 तक, लगभग 65 प्रतिशत मृतक मुसलमान हुआ करते थे (व्ही. एन. राय)। सन् 1991 में यह प्रतिशत 80 तक पहुंच गया (केन्द्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े)। सन् 2001 तक इस प्रतिशत में और वृद्धि हुई। ये आंकड़े अपनी कहानी स्वयं कहते हैं। साम्प्रदायिक हिंसा ने समाज को धार्मिक आधार पर ध्रुवीकृत कर दिया है और दंगों में बहने वाले खून से साम्प्रदायिक राजनीति और पुष्ट हुई है। इससे धार्मिक पहचान से जुड़े मुद्दे, सामाजिक सोच के केन्द्र में आ गए हैं और मूल सामाजिक-आर्थिक सरोकार नेपथ्य में खिसक गए हैं। 

साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण करने और हिंसा व घृणा का कुत्सित खेल खेलने वाली शक्तियों को कुचलने के लिए कई स्तरों पर विभिन्न उपाय किए जाने की ज़रूरत है। हमें आमजनों और प्रशासनिक व पुलिस तंत्र के सदस्यों को पूर्वाग्रहों से मुक्त करना होगा। साथ ही, मोहल्ला स्तर पर ऐसे अंतरधार्मिक मंच तैयार करने होंगे जो अफवाहों का मुकाबला करें और सच का पता लगाएं। यदि आम जनता को यह पता लग जाएगा कि सरकारी भवन पर पाकिस्तानी झंडा किसने फहराया या मंदिर में गौमांस फेंकने वाला कौन था तो साम्प्रदायिक हिंसा पर अपने आप रोक लग जावेगी।

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)