मोहम्मद खुर्शीद खान 
(उर्दू सेअनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

1857. का गदर मुसलमानों पर बहुत ही विनाशकारी साबित हुआ। इस गदर में मुसलमानों का कोई हाल लेने वाला नहीं था। उस वक्त सर सैय्यद अहमद खान बिजनौर में थे। उन्होंने वहाँ पर कई अंग्रेज़ परिवारों की जाने बचाईं। मुसलमानों में इल्म की काफी कमी थी और चारों तरफ जिहालत थी इसका सर सैय्यद के दिल पर गहरा असर पड़ा और इसने उनके पूरे ख्यालात ही बदल डाले। अंग्रेज़ों ने मुसलमानों के ऊपर जो ज़ुल्म ढहाये थे उसे देख कर उनकी आंखें नम हो गयीँ और इसी वक्त आपने फैसला कर लिया कि इस उजड़ी हुई कौम को संभाला गया तो जल्द ही ये कौम तबाह बर्बाद हो जायेगी। अंग्रेज़ो की जान बचा कर सर सैय्यद ने उनके दिलों में हमदर्दी का जज़्बा पैदा कर दिया। वो जानते थे कि अंग्रेज़ सत्ता में हैं इसलिए उनके खिलाफ कुछ करने के बजाये उनसे मिल कर चलनें में फायदा है। इसलिए 1875 , में उन्होंने अलीगढ़ में मुसलमानों की शिक्षा के लिए एक मदरसे की स्थापना की। एक साल में 11 छात्रों ने दाखिला लिया। ये मदरसा तरक्की करके 1877 . में मोहम्मडन ऐंग्लो ओरियेंटल कॉलेज बना। इस कालेज में पहले साल 26 मुसलमान छात्र ग्रेजुएट हुए और गैरमुसलमानों की तादाद अलग थी। 1920 . में इसे अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी का दर्जा मिला। जो आज हिंदुस्तान का मशहुर शिक्षा केन्द्र है। 1878 . में सर सैय्यद अहमद खान को सर का खिताब मिला। ये खिताब उनके नाम का विशेष हिस्सा बन कर रह गया। अब लोग उन्हें सर सैय्यद के नाम से जानते हैं।

सर सैय्यद अहमद खान ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की सही पृष्टभूमि को अपनी किताबअसबाबे बगावते हिंदमें लिखा है। जिसमें उन्होंने अंग्रेज़ों को इस बात पर राज़ी किया है कि मुसलमानों की ये बगावत उनकी गलत नीतियों के कारण से हुई है। अब सर सैय्यद ने तय कर लिया कि मुसलमानों की भलाई सिर्फ आधुनिक शिक्षा हासिल करने में है। इस सलसिले में आपने 1866 . में इंग्लैण्ड का दौरा किया। इस सफर के दौरान आपने बहुत सी अंग्रेज़ी किताबों का विस्तृत अध्ययन किया। इंग्लैण्ड से वापस आकर 1870 . में आपने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की तरह एक विश्वविद्यालय बनाने का मन बनाया। और सबसे पहले आपने तहज़ीबुल एख्लाक पत्रिका निकाली। इसके ज़रिए आपने कौम को पश्चिमी शिक्षा की अहमियत से परिचित कराया। सर सैय्यद अहमद ने तहज़ीबुल एख्लाक में एक लेखगुज़रा हुआ ज़मानालिखा। इसमें उन्होंने नौजवानों को कौम की भलाई के काम के लिए तैय्यार किया। तहज़ीबुल एख्लाक में उन्होंने आम लोगों की भाषा में लेख लिखे। उन्होंनेउमर रफ्तामें एक नौजवान के दिलचस्प ख्वाब का बयान किया है। इंसान ज़िंदगी भर अच्छे और बुरे कम करता है और बुढ़ापे के आते ही उसको अपनी तमाम बुराईयों की फिक्र होता है और वो तौबा करने लगता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।बहस तकरारमें उन्होंने बताया है कि जिस तरह एक जगह कुत्ते इकट्ठा होते हैं तो एक दूसरे पर गुर्राते हैं, दाँत निकालते और नथुने फुलाते है, भौंकते हैं और जो कमज़ोर होता है वो दुम दबा कर भाग जाता है इसी तरह अनपढ़ जाहिल आदमियों की महफिल में होता है। आकर बैठ जाते हैं बातचीत होती है, लहजा तेज़ होता है फिर तकरार बढ़ जाती है और हाथापाई होती है। इंसान को चाहिए कि वो बातचीत के दैरान तहज़ीब का दामन छोड़े।उम्मीद की तोशीमें सर सैय्यद अहमद खान ने बड़ी खूबसूरती से उम्मीद की अहमियत को बताया है। उम्मीद ज़िंदगी का सहारा है, उम्मीद ज़िंदगी में दाखिल होकर लोगों को नई ज़िंदगी देता है।

सर सैय्यद अहमद खान 1817 . में दिल्ली के एक प्रतिष्ठित परिवार में पैदा हुए। आपके पिता मीर तकी और माँ बहुत नेक, हिम्मतवाली बहुत अच्छे व्यवहार वाली महिला थीं। आपकी शिक्षा दीक्षा में माँ की बहुत बड़ी भूमिका थी। उन्होंने आपको ईमानदारी और सच्चाई की जिंदगी पर चलने का रास्ता दिखाया। सर सैय्यद पढ़ लिख कर 1838 . में ईस्ट इंडिया कम्पनी में मुलाज़िम हो गये। उनकी सच्चाई और ईमानदारी से प्रभावित होकर सरकार ने ईनाम से नवाज़ा और तरक्की करके जज बन गये। 1842 . में बहादुर शाह ज़फ़र ने सर सैय्यद कोआरिफ जंग जवादुद्दौलाकी उपाधि प्रदान की। सर सैय्यद अंग्रेज़ी हुकूमत के वफादार होने के बावजूद सच बात कहने से हिचकिचाते नहीं थे। उन्होंने सख्ती के साथ अंग्रेज़ों की आलोचना की है।

सर सैय्यद से पहले मीर अम्न नेबाग़ो बहारउस वक्त की बोलचाल की भाषा में लिखी थी। इसकी ज़बान किस्से कहानियों तक सीमित रही। गालिब ने अपने खतों के ज़रिए अपने दोस्तों को आसान भाषा में ऐसे खत लिखे जिसमें उन्होंने मुरास्ले को मकाल्में से आगे बढ़ने नहीं दिया। इसी कमी को पूरा करने के लिए सर सैय्यद अहमद खान ने कलम उठाई और ऐसी आसान और सरल भाषा की परम्परा स्थापित की, जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बोली जाती थी। उन्होंने इबारत आराई से भरपूर परहेज़ किया। उन्होंनेतहज़ीबुल एख्लाकमें भाषा के बारे में लिखा है।

जहाँ तक हो सका हमने उर्दू ज़बान के इल्मो अदब की तरक्की में अपने इन नाचीज़ पर्चों के ज़रिए कोशिश की। मज़मून के अदा करने का एक सीधा और साफ तरीका अख्तियार किया। रंगीन इबारत से जो तश्बीहात और इस्तेआरात खयाली से भरी हुई है और जिसकी शौकत सिर्फ लफ्ज़ों ही लफ्ज़ों में रहती है और दिल पर इसका कुछ असर नहीं होता, परहेज़ किया।

सर सैय्यद ने उर्दू ज़बान में काफी वुस्अत (विस्तार) पैदा की और उसकी अपने उस्लूब और बयान और अपने अंदाज़े तहरीर से इबारत में दिलकशी पैदा की और ज़बान को सादा और सलीस बनाया। तहज़ीबुल एख्लाक के ज़रिए सर सैय्यद ने मुसलमानों के अंदर सुधार की कोशिश की। आप लड़कियों की शिक्षा के विरोधी थे। उनका कहना था कि मर्दों में तालीम देने से औरतें खुद बखुद पढ़ी लिखी हों जायेंगीं। सर सैय्यद नें हिंदू और मुसलमानों दोनों की बेहतरी की कोशिश की। 1885 . से 1888 . तक उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस का ज़बरदस्त विरोध किया और मुसलमानों को हर तरह की राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने की सलाह दी। इन विषयों पर लिखे लेखों के कारण बहुत से लोग सर सैय्यद के विरोधी हो गये और उनके खिलाफ लेख लिखे जाने लगे। जिन अखबारों में आपके खिलाफ लेख प्रकाशित हुए उनमें मुरादाबाद से प्रकाशित होने वालालौहे महफूज़और कानपुर से निकलने वालानूरुल आफाक़और आगरा से प्रकाशित होने वालातेरहवी सदीवगैरह थे। इनमें आपके कार्टून भी प्रकाशित हुए। आपको काफिर भी कहा गया। विरोधियों ने आपके खिलाफ काफी जहर उगला लेकिन सर सैय्यद को अपनी कौम पर भरोसा था और वो अपने इरादों पर अटल रहे। मोहम्मडन ऐंग्लो ओरियेंटल कॉलेज के विरोधियों ने एक फतवा मक्का के उलमा से भी मंगवाया जिस में लिखा था कि ईमान वालों पर ये फर्ज़ है कि वो उस शिक्षा केन्द्र को गिरा दें। इसकी सख्त आलोचना करते हुए सर सैय्य्द ने अंजुमन इस्लामिया लाहौर में एक बड़े जलसे को खिताब करते हुए फरमाया।

मैं अर्ज़ करता हूँ कि में एक काफिर हूँ मगर मैं आपसे पूछता हूँ कि अगर एक काफिर आपकी कौम की भलाई के लिए कोशिश करे तो क्या आप उसको अपना खादिम और खैरख्वाह नहीं समझेंगे। आप मेरी मेहनत और अपनी मशक्कत से अपने बच्चों के लिए एक अज़ीम तालीमी इदारा बनने दीजिए। इस कॉलेज को कायम करने में मुझे दस साल लगें हैं और आप एक ही दिन में इसे बर्बाद करने पर तुले हुए हैं।
आपकी तकरीर सुनकर लोगों के दिल भर आये और तमाम मर्द और औरतों ने सर सैय्यद को हिमायत और भरपूर मदद देने का वादा किया। औरतों ने अपने ज़ेवरात उतार कर सर सैय्यद की झोली में डाल दी।

इल्मी अदबी कारनामेः सर सैय्यद अहमद खान ने 1859 . में मुरादाबाद में फारसी मदरसा कायम किया और 1864 . में मुरादाबाद में यतीमखाना खोला। 1864 . में गाज़ीपुर तबादला हो गया वहाँ साइंटिफिक सोसाइटी कायम की और एक फारसी मदरसा भी कायम किया जो आजकल विक्टोरिया कॉलेज के नाम से मशहूर है। इस साल सर सैय्यद का तबादला अलीगढ़ हुआ, यहाँ अंग्रेज़ों की मदद से अलीगढ़ ब्रिटिश इंडिया असोसियेशन कायम की। 1866 . में अलीगढ़ के जमीनदारों ने सर सैय्यद की तहरीक को पसंद किया और भरपूर मदद का वादा किया। 1884 . में एजुकेशन कांफ्रेंस कायम की। 1898 . में आपका इंतेकाल हुआ।
लेखनः जामे हजम सर सैय्यद की पहली पुस्तक है जो 1840 में प्रकाशित हुई। इस किताब में बादशाह अमीर तैमूर से लेकर बहादुरशाह का परिचय कराया है।

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