अंजलि सिन्हा

दिल्ली की एक सत्र अदालत ने छह वर्षीय भांजी के साथ यौन अत्याचार करने के जुर्म में नन्दन को उमर कैद की सज़ा सुना दी। अभी भी इस सदमे से उबरी पीड़िता के चिकित्सकीय इलाज के लिए सरकार को यह भी आदेश दिया कि वह उसे 2 लाख रूपए दे दे। अप्रैल 2011 में घटित इस जघन्य काण्ड में नन्दन फुसला कर अपनी भांजी को कहीं ले गया था और वहीं उसने इस काम को अंजाम दिया था। सजा का ऐलान करते हुए न्यायाधीश महोदया कामिनी लाउ ने कहा कि दरअसल बच्चों के साथ यौन अत्याचार करने वालों या बलात्कार के कई काण्डों में शामिल रहने वालों के लिए सबसे उपयुक्त सज़ा बन्ध्याकरण है मगर चूंकि भारत की विधायिका ने अभी सज़ा के इस वैकल्पिक रास्ते पर विचार नहीं किया है, इस वजह से अदालत के हाथ बंधे हैं। मालूम हो कि इसके पहले भी नन्दन परिवार के अन्य महिला सदस्यों के साथ यौन प्रताडना करने के मामले में पकड़ा गया था, मगरखानदान की इज्जतके नाम पर उन मामलों को वहीँ दबा दिया गया था।
ध्यान देने योग्य बात है कि अभी पिछले ही साल 15 वर्षीय एक बच्ची के साथ उसके सौतेले पिता द्वारा बलात्कार की घटना की सुनवाई के दौरान न्यायाधीश महोदया ने कहा कि विधि विशेषज्ञों द्वारा ऐसे बलात्कारियों के बन्ध्याकरण यानि उन्हें नपुंसक बनाने के प्रावधान के लिए कानून बनाने पर विचार करना चाहिये। शल्य चिकित्सा या रासायनिक प्रक्रिया द्वारा ऐसे पुरुषों को ऐसा बना देना चाहिए कि वे फिर ऐसे अपराध करने के काबिल ही नहीं रहें।
यूं तो जज की बेचैनी और क्रोध को आसानी से समझा जा सकता है। बलात्कार की दिनोंदिन बढ़ती घटनाएं अब लोगों को भी उद्वेलित कर रही हैं और यह किसी जज विशेष का मामला भी नहीं है। न्यायविदों के अलावा समाज का प्रबुद्ध समुदाय भी बचाव के विकल्पों पर विचारमंथन करता है। इन्ही उपायों में कभी मृत्युदण्ड, कभी उम्र कैद की अवधि बढ़ाने या फिर सार्वजनिक रूप से फांसी की सज़ा आदि सुझाव आते हैं। बन्ध्याकरण जैसे सुझाव इसके पहले भी कुछ संस्थाओं या समाज के कुछ हिस्सों की तरफ से आते रहे हैं।
मुद्दा यह है कि क्या पुरुषों के पौरुष खतम करने से दूसरे सम्भावित बलात्कारियों को वाकई भय होगा? यदि ऐसा होता तो मौत की सजा वाले अपराधो पर काबू पाया गया होता। दरअसल मौजूदा कानून के तहत भी दोषियों की गिरफ्तारी और सजा की दर काफी कम है। जितनी बड़ी संख्या में अपराध होता है उतनी बढ़ी संख्या में तो पीड़ित शिकायत के लिए पहुंचती हैं और ही जो शिकायत करती है उन्हें न्याय की गारन्टी होती है। इन दोनों का कारण हमारे यहां की टेढ़ी और लम्बी न्यायिक प्रक्रियाएं हैं तथा सामाजिक दबाव और लोकलाज का भय पीड़ितों को शिकायत करने से रोकता है।
अगर हम नवम्बर 2011 में नेशनल क्राइम्स रेकार्ड ब्युरो द्वारा प्रकाशित आंकड़ों पर गौर करेंगे तो विचलित करने वाली स्थिति बन सकती है। ब्युरो के मुताबिक विगत 40 सालों में महिलाओं के खिलाफ अत्याचारों की संख्या में 800 फीसदी इजाफा हुआ है, दूसरी तरफ इस दौरान दोषसिद्धी अर्थात अपराध साबित होने की दर लगभग एक तिहाई घटी है। उदाहरण के लिए वर्ष 2010 में बलात्कार की 22,171 घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज हुई जिसमें दोषसिद्धी दर महज 26.6 थी। स्त्रियों के साथ छेड़छाड़ के 40,163 मामले जिसमें दोषसिद्धी दर 29.7 फीसदी तो प्रताडना  के 9,961 मामले जिनमें दोषसिद्धी दर 52 फीसदी।
अतएव पहला मुद्दा तो यह है कि बलात्कार जैसे अपराध के लिये पूरी न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने की जरूरत है। तथा पीड़ितों को फिर से परेशान करने वाले प्रावधानों को समाप्त किया जाना चाहिए। जैसे की अबतक बलात्कार की पुष्टि के लिए मेड़िकल टेस्ट में फिगर का इस्तेमाल होता है। पिछले दिनो इस प्रकार की जांच प्रक्रियाओं का काफी विरोध हुआ था। इसके अलावा बलात्कार की जांच के सभी मामलों में डीएनए जांच को अनिवार्य बनाया जाए। दरअसल डीएनए जैसी वैज्ञानिक जांच का बेहतर उपयोग हो सकता है।
मालूम हो कि बलात्कार पीड़ितों से डीएनए सैम्पल एकत्रित करने की बात यूं तो पांच साल पहले जारी क्रिमिनल प्रोसिजर कोड में शामिल की गयी है, मगर हकीकत यही है कि अधिकतर अस्पताल या फारेन्सिक लैब इस पर अमल नहीं करते हैं, अभी भी लोग खून का ग्रुप जांचने की पुरानी पद्धति पर निर्भर रहते हैं जबकि यह हकीकत है कि 25 फीसदी आबादी का खून ग्रुप एवं सीमेन का समूह एक ही किस्म का हो सकता है। फास्ट ट्रैक कोर्ट की मांग भी बहुत बार हो चुकी है। राजस्थान या अन्य जगहों पर जब कुछ विदेशी महिलाओं के साथ अत्याचार हुआ तब इन मामलों की जांच के लिए तत्काल ऐसा कोर्ट बिठाया गया लेकिन यहां की महिलाओं के साथ केस और सुनवाई वैसे ही सालों लटके पड़े रहते है।
हमारा समाज महिलाओं के लिये कितना असुरक्षित है इसे देखते हुए यह भी स्पष्ट है कि ऐसे मामलों में न्याय की रफ़्तार भी बहुत धीमी होती है। पिछले दिनों की बात है कि दिल्ली के एक कोर्ट में हाल में सामूहिक बलात्कार के दो आरोपियों को बरी कर दिया क्योंकि कहा गया कि पीड़िता ने कोर्ट में आरोपियों को नहीं पहचाना तथा अपना बयान बदल दिया। वजह साफ है कि एक तो कानूनी प्रक्रियाओं में ऐसे छेद हैं जिनका फायदा आरोपी उठा लेते हैं जैसेकि कलमबन्द बयान जो पीड़िता से लिया जाता है और जो केस को आगे चलाने के लिए जरूरी होता है, वही देर से लेना तथा इस बीच पीड़ित पक्ष को डराने-धमकाने, लालच देने आदि का मौका मिल जाता है। कई मामलों में तो यह भी होता है कि मेडिकल परीक्षण में बलात्कार की पुष्टि हो जाने के बाद भी, विभिन्न परिस्थितिजन्य सबूतों के बावजूद भी पीड़िता के विरोधाभासी बयानों के आधार पर आरोपी छूट जाता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बलात्कारियों का अंग भंग करना या उसे मार ड़ालना समाधान नही है बल्कि सख्ती से वे जेल के अन्दर रहे तथा उम्रकैद की अवधि भी बढ़ा दी जानी चाहिए। उन्हें जेल के अन्दर भी बैठाकर खिलाने के बजाय उनसे श्रम कराया जाना चाहिये तथा उससे उत्पादित या बने वस्तुओं आदि जनहित में इस्तेमाल हो। दूसरा महत्वपुर्ण मुद्दा यह है कि अपराध के बचाव का  जिसमें अपराधी प्रवृत्ति या व्यवहार का जन्म ही हो। यानि लोग अधिकाधिक सभ्य ,संवेदनशील तथा दूसरों का सम्मान करने वाले बने। हर व्यक्ति की अधिकारों के प्रति यदि चेतना बढ़ती है तथा महिला समुदाय को बराबरी मिलती और वह सशक्त होती है तो उसके खिलाफ अपराध कम होंगे। पूरे समाज में चेतना और जागरूकता के साथ ही न्यायिक सक्रियता और सख्ती तथा चुस्त पुलिस प्रशासन समस्या से बचाव एवम् निराकरण के उपाय हो सकते हैं। 
दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह विचार करने का है कि किसी भी सभ्य होते समाज में सजा के मध्ययुगीन तरीकों को कैसे सही ठहराया जा सकता है। अपराधी का अपराध निश्चित ही छोटा नहीं है लेकिन सभ्य समाज जब सोच-समझ और विचार कर के सजा देगा तो वह  सख्त तो हो सकता है लेकिन क्रूर और बर्बर नहीं। पहले के समय में कई प्रकार के अपराधों के लिए हाथ, पैर, नाक, कान काट दिये जाते थे या इसी प्रकार क्रूरता की जाती थी ताकि दहशत फैलाकर अपराध पर काबू पाया जा सके। अब तो कई देशों ने अपने यहां  मौत की सजा का प्रावधान भी समाप्त कर दिया है। इसका अर्थ कतई यह नहीं है वहां  अपराध करने की छूट है।
वैसे यह उदाहरण भी इस समय दिया गया है कि कई विकसित कहे जाने वाले देशों में बलात्कार की सजा के लिए बन्ध्याकरण का प्रावधान है। जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी आदि में यह विकल्प है। लेकिन विकसित होने का पैमाना सभ्य होने की पुष्टि नहीं करता है। यदि ऐसा होता तो विकसित और सुपरपावर माने जाने वाले अमेरिका द्वारा इराक में स्थापित अबू गरेब जेल में कैदियों के साथ जो अमानवीय तथा संवेदना को कुन्द कर देने वाला बर्बर कृत्य का हवाला दुनिया भर की मीडिया में सूर्खियां बना वह नहीं होता। उस देश ने भी अपने यहां मौत की सजा को भी बरकरार रखा है। दुनिया भर के बाजारों तथा विकासशील तथा अविकसित समाजों से लूटकर यदि वह अपने देश के नागरिकों को कुछ सुविधाएं अधिक दे देता है तो इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह सभ्य भी हो गया है। इस मामले में उससे नहीं सीखना ही बेहतर होगा।
अरब देशों में आज भी कई गुनाहों के लिए जिसमें बलात्कार भी शामिल है, संगसार करने की सज़ा दी जाती है यानि सार्वजनिक जगह पर आरोपी व्यक्ति को पत्थर मार कर मृत्यु दण्ड दिया जाता है। सज़ा के इस तरीके पर दुनिया भर में विरोध के स्वर उठे हैं। ऐसी सज़ाओं को जो लोग - खास तौर पर अबोध बच्चे - देखते-सुनते होंगे उनके जेहन में डर के साथ साथ जो कि ऐसी सज़ाओं का उद्देश्य भी होता है लोगों में भय पैदा करना ताकि वे अपराध करने से पहले सोचें। इसके साथ उनकी सम्वेदनाएं भोथरी भी होती जाती हैं, वे यह सब देख सुन कर स्वयं भी क्रूरता की प्रवृत्ति में ढलने लगते हैं।