मई माह में हुए विस्थापन की तस्वीर


जबलपुर -  कटंगी मार्ग पर स्व.दीनदयाल उपाध्याय जी की स्मृति को अक्षुण बनाये रखने के लिए एक चौराहे पर उनकी प्रतिमा स्थापित की गयी है और इस चौराहे का नामकरण भी उन्ही के नाम पर कर दिया गया है.इसी चौराहे के ठीक सामने ५०० से ज्यादा झोपड़ियाँ (घरौंदे) वाली मलिन बस्ती कई दशकों से बसी हुई थी.इनके घरों में नगर निगम के नंबर भी चढ़े हुए थे,कई घरों में विद्युत कनेक्शन भी विधिवत लिए हुए थे,१०० परिवारों के राशन कार्ड थे,एवं मतदाता परिचय पत्र लगभग सभी वयस्क नागरिकों के बने हुए थे.१२ मई २०१० को जबलपुर विकास प्राधिकरण (जे डी ए) ने इस बस्ती के ५०० से अधिक परिवारों को हटाते हुए अतिक्रमण मुक्त किया.दीनदयाल चौक की ये बस्ती एक बेशकीमती भूखंड पर बसी थी.ज.वि.प्राधिकरण.को यह ज़मीन एक विशाल बस टर्मिनल बनाने हेतु उपयुक्त लगी.

                                                 हम बस टर्मिनल बनाने की इस योजना का स्वागत करते हैं,बेशक इस शहर को एक सर्वसुविधा युक्त बड़े बस स्टैंड की आवश्यकता हमेशा से रही है.तीन पत्ती चौक पर बना हुआ बस स्टैंड जिसे सरकारों ने हमेशा तिरस्कृत रखा,इसे ही विकसित और सुविधाजनक बनाया जाना चाहिए था,भविष्य में बनने जा रहा विशाल बस टर्मिनल शहर के हर छोर से अत्यधिक दूरी पर है,उतना ही दूर क्षेत्रीय बस स्टैंड एवं रेलवे स्टेशन से भी है,यदि वर्तमान बस स्टैंड को ही सरकार योजनाबद्ध तरीके से विकसित करे तो,करोड़ों रुपये की बचत होती एवं शहर के बीचों बीच बना यह बस स्टैंड नागरिकों को अतिरिक्त तक़ल्लुफ़ से दूर रखता.जबलपुर छावनी क्षेत्र के तीन बड़े मैदान जो पुर्णतः अनुपयोगी हो चुके हैं,उन्हें क्यों नहीं चुना जाता,क्या शहर का बस स्टैंड छावनी क्षेत्र में बनाया नहीं जा सकता.जबलपुर के इतिहास में पोलो मैदान का भी एक ज़िक्र है,यह पोलो ग्राउंड विशुद्ध अनुपयोगी है,इस तरह शहर भर में ४ से ५ मैदान अनुपयोगी थे,जिन्हें बस स्टैंड बनाने के लिए प्रयोग किया जा सकता था,५०० परिवारों को उनकी पहचान और ज़मीन से ख़ारिज कर देने का कौन सा तर्क संगत तात्पर्य है समझ नहीं आता.


                                                                ठण्ड में ली गयी तस्वीर 

शहर का एक भी नागरिक इस बस स्टैंड का विरोध नहीं कर सकता चलिए भूमि अतिक्रमण मुक्त हो गई अब बस टर्मिनल बनने के लए तैयार है.८माह में २ बार बस टर्मिनल बनाने वाली कंपनी हाथ खींच चुकी है बदल चुकी है,अज्ञात कारणों से. बस टर्मिनल बनना एक पक्ष है और उससे जुड़ा पहलु घर उजाड़ना है,शहर को विकास के नाम सौंपने वाली सरकार उन विस्थापितों के प्रति कितनी जिम्मेदार है आइये देखा जाये,कितनी संवेदनशील है ? क्योंकि उन ५०० परिवारों को बस टर्मिनल से ज्यादा ज़रूरत सम्पूर्ण पुनर्वास की है.५०० परिवारों को दीनदयाल चौक से उजाड़कर सरकार ने कठौंदा पहुचाया था.नागरिक अधिकार के मंच के साथी सत्यम,निशांत,वसीम अहमद और अजय कुमार यादव यानी मैं, चारों वहां मौजूद थे.हमने देखा सरकारी अमले ने प्रत्येक परिवार को ५ किग्रा - आटा, १ किग्रा - नमक,५० ग्रा - हल्दी,मिर्च १ पैकेट तेल, ओ.आर एस पावडर के पैकेट एवं १ टैंकर पानी उपलब्ध कराया. १५ दिन में प्रति परिवार कुछ बांस बल्ली और प्लास्टिक,पन्नी आदि वितरित की,ये सरकार की पहली मदद थी,शायद आखिरी भी.इस विस्थापन से प्रभावित होने वाले लोगों की उम्र १ साल से ८० वर्ष तक थी.१२ मई को ही ३ परिवारों में बेटियों की शादी थी,एवं वहाँ बारात पहुचना थी,और उसी दिवस वे अपना सामान ढो रहे थे विस्थापनोपरांत.! विस्थापन के ही दिवस कुछ लोगों की मौत हुई थी, सरकार का ऑपरेशन बुलडोज़र यानी बस टर्मिनस के लिए ये पहला चरण था. नवम्बर माह में " विकास संवाद " भोपाल की साथी रोली शिवहरे,रूप नारायण चौधरी एवं मैंने पुनः दौरा किया, शीतलहर एवं खून जमा देने वाली तेज़ ठण्ड,खेतों एवं खुले मैदानों में प्लास्टिक एवं पन्नियों के अस्थाई घरौंदों में रह रहे इनकी कल्पना कीजिये,विकास एवं विस्थापन की चक्की के २ पाटों में पिसते ये लोग पहले से भी बदतर हालत में पहुच गए हैं.
                                                                      आठ माह बाद भी जनवरी २०११ में किसी भी घर में बिजली नहीं है,जबकि उन घरों के ऊपर से बिली की तारें गुज़र रही हैं,पर उन्हें रौशनी मयस्सर नहीं.एक आंगनवाडी की स्थापना नहीं हो सकी है,कक्षा १ से कक्षा ५ तक के बच्चे जिनकी संख्या १५० के करीब है,अब अपने पिछले स्कूल से १०किमी दूर आ गए हैं.मिडिल स्कूल के ७५ से ज्यादा बच्चे अपनी शाला पहुचने में असमर्थ है.इस तरह ६-१४ वर्ष तक की आयु के ये बच्चे अनिवार्य शिक्षा के कानून होने के बाद भी उससे महरूम हैं.आंगनवाडी एवं स्कूल ना जाने से बच्चों को मध्यान्ह भोजन भी नहीं मिलता,अब इन बच्चों का क्या होगा.आंगनबाड़ी स्थापित न होने से गर्भवती एवं धात्री महिलाएं टीकाकरण एवं पौष्टिक आहार से वंचित हैं. ०-६ वर्ष तक के बच्चों की संख्या बस्ती में १०० के करीब है,आंगनवाडी न होने के कारन उनका टीकाकरण और पोषण आहार दोनों ही बंद हैं,पहुँच मार्ग असाध्य है,गर्भवती महिलाओं का गाडी से आना भी दुष्कर है,२ प्रसव रास्ते में ही हो जाने की घटना पता चली है,एवं १ प्रसव १०८ एम्बुलेंस में.
                                                                     मैं स्कूल एवं सामुदायिक चिकित्सा केंद्र की बात नहीं करता क्योंकि वो बड़ी बात है,जबलपुर जिला प्रशासन और संभाग आयुक्त महोदय शायद स्कूल और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खोल पाने में सक्षम ना हों.पर एक आंगनवाडी तो तत्काल वहां खोली ही जा सकती है.सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद २००७ से ही भारत सरकार न्यूनतम विस्थापन सम्पूर्ण पुनर्वास के नारे जोर शोर से प्रचारित करती है,पर विस्थापन के बाद पुनर्वास को लेकर सरकार की ज़रा सी भी संवेदनशीलता नहीं दिखती,क्या यह उच्चतम न्यायालय की अवहेलना नहीं,इसके लिए दोषियों को कोई दंड नहीं देता,सुप्रीम कोर्ट खुद भी कोई दंडात्मक पहल क्यों नहीं करता.सरकार पुरे दमखम से अतिक्रमण हटती है,पुनर्वास में दुल्मुलाती है.विस्थापितों के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोगों पर सीधे सीधे विकास विरोधी होने का आरोप मढ़ दिया जाता है.विकास का विरोध कोई नहीं करता पर ये एक तरफ़ा विकास हो तो क्या इसके खिलाफ बोलना - सोचना नहीं चाहिए.ये सरकार की जिम्मेदारी है की विकास का लाभ कतार में खड़े आखिरी आदमी तक पहुचे.विकास के नाम पर विस्थापन एवं विस्थापन के बाद पुनर्वास की अल्प एवं मंशाहीनता हितों एवं हकों पर दवाब है. 

अजय यादव
नागरिक अधिकार मंच 
जबलपुर
9303756937