नागरिक अधिकार मंच, मध्य प्रदेश का
घोषणा पत्र 

भारतीय समाज एक अभूतपूर्व संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। उत्पीड़न व शोषण के पुराने  रूप पूरी तरह से समाप्त भी नहीं हुए हैं लेकिन नए प्रकार के शोषण की व्यवस्था ने अपने पंजों में समाज को पुरी तरह से जकड़ लिया है। कामगारों की अपने शोषण के खिलाफ लड़ाई के तरीके व रणनीतियां पुरानी पड़ चुकी है और संघर्ष के नए तौर तरीके अभी पुरी तरह से सामने नहीं आये हैं। चारों और श्रम और प्राकृतिक संसाधनों की लूट मची हुई है। पूंजी का बेरहम पहिया देश के सदूर आदिवासी इलाकों व अन्य स्थानों में प्रकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए लोगों की जिंदगी को निर्ममता से कुचल रहा है। प्राकृतिक संसाधानों पर लोगों के अधिकार को नकारा जा रहा है और उनको पूंजी के मालिको को सौंपा जा रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था के मुनाफे के तर्क ने दुनिया को पर्यावरणीय संकट की ओर धकेल दिया है। पूंजीवाद एक ऐसी व्यवस्था साबित हुआ है जो पहले पर्यावरण को नुकसान पहुॅचा कर मुनाफा बनाता है और फिर पर्यावरण को बचानें के नाम पर मुनाफा बनाता है। ऐसे में मानवता की मुक्ति और उस प्रकिृत को बचाने की, जिसका मानवता एक अभिन्न हिस्सा है, की ऐतिहासिक चुनौती हमारे सामने है।

आजादी के बाद ’समाजवाद’ के नाम पर पूंजीवाद की शुरूआत की गई। नई-नई मिली आजादी से मेहनतकश जनता को उम्मीद थी कि उनके जीवन में खुशिया आयेंगी। उनका जीवन बेहतर होगा। इसलिए देश की सरकारों व शासको की मजबूरी थी कि वों जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाऐं। सरकारों ने अपने लिए यह जिम्मेदारी न्यूनतम रखी न कि उपयुक्त। समय बीतता गया। मेहनतकशो के सपने टुटने लगे। अमीरों और गरीबों के बीच  की खाई ओर चौड़ी होती गई। वर्ष 1991 में नई आर्थिक नीतियों के युग की शुरुवात हुई। अब देश की सरकारों व् शासको ने खुले बाजार की पूंजीवादी नीतियों को प्रत्येक समस्या के समाधान के रूप में पेश करना शुरू कर दिया। जनता के खून-पसीने से खड़े किए गए सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के साथ-साथ पानी, बिजली, परिवहन, शिक्षा व स्वास्थ्य आदि को प्रायवेट क्षेत्र के मुनाफा कमाने के लिए खोल दिया गया। जिसके पास पैसा है उनके लिए बाजार में सब सुविधाएं उपलब्ध हैं और जिनके पास पैसा नहीं है, उनके लिए सरकार द्वारा गरीबी रेखा के नाम पर चालायी जा रही योजनाएं हैं। आज सरकारें लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को न्यूनतम से भी न्युनतम करती जा रही हैं। 

भारत में जितनी अकूत संपदा 1991 के बाद से पैदा हुई है, उतनी देश के इतिहास मैं कभी पैदा नहीं हुई थी। लेकिन अमीर और गरीब के बीच की खाई आज जितनी चौड़ी होती जा रही है वो भी पहले कभी नहीं थी। करोड़ों-करोड़ श्रमिकों के श्रम से पैदा हुई इस संपदा के मालिक चंद मुठ्ठी भर पूंजीपति बने हुए हैं। एक तरफ दौलत और संपन्नता के टापू हैं तो दूसरी और इन टापुओं के चारो ओर अभाव व गरीबी का समुंद्र फैला हुआ है। भारत के पूंजीपतियों का दुनिया के अमीरों में शुमार हो रहा है। वहीं भारत सरकार की एक रिर्पोट के अनुसार देश की 79 प्रतिषत आबादी 20 रूप्या प्रतिदिन से भी कम पर अपना गुजर-बसर करने के लिए मजबूर है। दुनिया में मानव विकास के सुचकांक में भारत की गिनती नीचे से होती है। भारत की मेहनतकश अवाम अपने श्रम और सृजन की क्षमता से जिस भारत का निर्माण कर रही है, उसके बड़े हिस्से को न्यूनतम मजदूरी भी हासिल नहीं है। देश की कामगार आबादी का 93 प्रतिशत के करीब हिस्सा अंसगठित क्षेत्र में काम करता है जिनमें से अधिकांश को किसी भी प्रकार की सामजिक सुरक्षा हासिल नहीं है और न ही रोजगार की कोई सुरक्षा है। देश में शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य मूलभूत सुविधाओं को निजी क्षेत्र के हवाले कर मुनाफा कमाने की चारागाह में तबदील कर दिया गया है। बाकी रही सही कसर व्यवस्था में दीमक की तरह लगे भ्रष्टाचार ने पुरी कर दी है। अनाज से गोदाम भरे हुए हैं और वो पड़ा-पड़ा सड रहा है लेकिन देश में लोग कुपोषण का शिकार हो रहे हैं। 

आज भी देश की आबादी का बड़ा हिस्सा खेती किसानी से जुड़ा हुआ है व गॉव में निवास करता है जबकि कुल सकल घरेलू उत्पादन में कृषि का हिस्सा लगातार घटता जा रहा है। ऐसी स्थिति में खेतिहर समाज का समृ़द्ध होना मुमकिन नहीं है। किसानों के लिए खेती लगातार घाटे का सौदा साबित होती जा रही है, जिसके कारण किसान आत्महत्या तक करने को मजबूर हैं। ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा छोटे व मध्यम श्रेणी के किसानों व भूमिहीन मजदूरों का है। भारतीय कृषि एक पीड़ादायी संक्रमण से गुजर रही है, जिसका सबसे विपरीत असर छोटे व मध्यम किसानों व भूमिहीन मजदूरों पर पड़ेगा। इसके लिए यह जरूरी है कि ग्रामीण आबादी को नये तौर-तरीकों के आधार पर संगठित किया जाए ताकि सामुहिक उत्पादक के तौर पर उनकी हैसियत को बढ़ाया जा सके।
आजादी के बाद जब देश में संविधान बनाया गया तो उसमें देश के सभी लोगों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार दिया गया। सम्मान के साथ जीने के अधिकार में, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पानी, बिजली, भोजन, सामाजिक सुरक्षा व सभी प्रकार के सामाजिक भेदभाव व उत्पीड़न से मुक्ति स्वयं शामिल हो जाते है। इन सब के बिना सम्मान के साथ जीने के अधिकार का कोई मतलब नहीं रह जाता।

इन परिस्थितियों के मद्देनजर अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए संघर्ष करने तथा शोषण व अन्याय से मुक्त समाज के निर्माण के लिए हमें अपने विचार और कार्यभार स्पष्ट करने की जरूरत है, ताकि आजादी के आंदोलन से उपजी जनभावनाओं को संविधान की किताब से बाहर निकालकर मूर्त रूप प्रदान किया जा सके। 


असंगठित श्रम, संगठित शोषण

आजदी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की जो रूपरेखा पेश की गई उसमें संगठित और असंगठित क्षेत्र का विभाजन किया गया। संगठित क्षेत्र में अधिकतर सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र में लगाए गए उद्योग एवं संस्थान थे। इस क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों के लिए उपयुक्त वेतन के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थय, आवास, महॅगाई भत्ता आदि सभी समाजिक सुरक्षाएं शामिल थी। इनके लिए काम करने की आठ घंटे की कार्यअवधि तय की गई। संगठित क्षेत्र में काम करने वाली श्रम शक्ति भारत की कुल श्रम शक्ति का मात्र 7 प्रतिशत है। संगठित क्षेत्र के कामगारों को ता यह अधिकार मिले जो कि उनका हक़ था लेकिन असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों को इन अधिकारों से वंचित रखा गया।
1991 में लागू की गई आर्थिक उदारीकरण व निजीकरण की नीतियों के बाद से संगठित क्षेत्र में लगातार बढती ठेका प्रथा के कारण संगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। नई आर्थिक नीति के बाद से मजदूरों को मिले अधिकारों में कटौती लगातार जारी है। जिस सार्वजनिक क्षेत्र को मेहनतकश जनता के खून-पसीने से खड़ा किया गया था आज उसकों निजीकरण व व्यसायीकरण के योजनाओं के तहत कोड़ियों के दाम पर पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है।

भारत की श्रम शक्ति का लगभग 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है। असंगठित क्षेत्र के इन मजदूरों को न तो सेवा शर्तों और न ही न्यायोचित वेतन का लाभ मिलता है, न ही सामाजिक सुरक्षा का। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी (जोकि व्यक्तिगत है) का प्रावधान है (यह न्यूनतम मजदूरी भी असंगठित क्षेत्र के अधिकांश मजदूरों को नहीं मिल पाती) जबकि संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए उपयुक्त मजदूरी का प्रावधान है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी उन्हें समाज में बेहतर जिंदगी जीने के लिए न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं मिल पाती। उनको अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। उनके बच्चों को न तो बेहतर शिक्षा मिल पाती है और न ही काम के बेहतर अवसर। भारतीय अर्थव्यवस्था के लगातरार बढ़तें अनौपचारिकरण के कारण मजदूर वर्ग के इस तबके को संगठित करना लगातार कठिन होता जा रहा है। असंगठित क्षेत्र के इन कामगारों का दायरा औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्रों से लेकर लगातार बढ़ते सेवा क्षेत्र तक फैला हुआ है। असंगठित- अनौपचारिक क्षेत्र में जो मजदूर काम करते हैं वे देश की कुल श्रम शक्ति का लगभग 93 प्रतिशत है तथा इनका देश की कुल आमदनी अर्थात सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) में योगदान 60 प्रतिशत है। इन कामगारों के बिना कोई अर्थव्यवस्था, कोई शासन, कोई सरकार नहीं चल सकती। ये जब अपना हाथ रोक लेंगे ‘देश’ की समृद्धि और विकास का भागता पहिया वही जाम होकर रह जायेगा। 

असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले इस कामगार तबके के श्रम का शोषण तो पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा संगठित रूप से किया जा रहा है लेकिन अपने शोषण के खिलाफ इनका संघर्ष असंगठन व बिखराव का शिकार है। आज मजदूर वर्ग के सभी तबकों को एक साथ संगठित होकर अपनी मुक्ति के लिए पूंजीवादी व्यवस्था के खात्में के लिए संघर्ष तेज करने की जरूरत है।
मेहनतकशो के अधिकारों को हासिल करने के लिए राजनीतिक संघर्ष की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन हमें इस बात के लिए भी प्रयास करने होंगे कि जिन अलग-अलग प्रकार के पेशो में वे कार्यरत हैं उनकों इस प्रकार संगठित किया जाए तथा ऐसे प्रयोग किये जाए ताकि मजदूर अपने श्रम से पैदा उत्पाद के स्वयं सामूहिक मालिक बन सकें। आज के दौर में मेहनतकश वर्गों की मुक्ति के व्यापक संघर्ष में इस प्रकार की रणनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी। 

सबका अधिकार - शिक्षा व स्वास्थ्य
भारत उन देशो में शामिल है जहां शिक्षा व स्वास्थ्य की व्यवस्था सबसें ज्यादा प्राइवेट क्षेत्र के मुनाफा कमाने के क्षेत्र में तबदील कर दी गई है। कहने के लिए शिक्षा का प्रवेष द्वार सबके लिए खुला है। मगर करोड़ों बच्चे इसमें प्रवेश नहीं पाते। बाल मजदूर के रूप में असमय ही वे सीधे वयस्क जिन्दगी की धूप-बरसात में निकल पड़ने को मजबूर हैं। देश में ‘‘जैसा पैसा, वैसी शिक्षा’’ के नाम पर चलने वाली दुकाने हैं। हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक समानांतर दो प्रकार के शिक्षा संस्थान हैं। इस दो प्रकार की शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत एक ओर आम छात्रों के लिए सरकारी टाट्-पट्टी वाले स्कूल हैं तो दुसरी ओर शिक्षा की ऊॅची कीमत चुकाने वालों के लिए प्राइवेट स्कुलों से लेकर उच्च शिक्षा की कुलीन संस्थानों तक का अपना अलग ढॉचा है। सभी सरकारों द्वारा शिक्षा के इस व्यापार को खुला प्रोत्साहन दिया जा रहा है। हाल ही में केन्द्र सरकार ने लम्बे जनदबाव के कारण 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा का विधेयक पास जरूर कर दिया है लेकिन जब तक इस दोहरी शिक्षा प्रणाली को समाप्त कर सबके लिए एक समान शिक्षा व्यवस्था लागू नहीं की जाती तब तक सबको गुणवत्तापूर्ण व समान शिक्षा हासिल नहीं होगी।
शिक्षा की मौजूदा व्यवस्था में शिक्षा ज्ञान से असम्बद्ध है। समाजोपयोगिता और मानवीयता से उसका कोई सरोकार नहीं है। यहां इंजीनियरों, डॉक्टरांे, मैनेजरों व अन्य पैषेवरों को पूंजीपतियों के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने व स्वयं किसी भी कीमत पर खुब पैसा बनाने की गला काट प्रतियोगिता के लिए प्रषक्षित किया जाता है। यहां जो जितना ज्यादा पैसा बटोर पाता है वहीं सबसे सफल करार दिया जाता है।
यही हाल स्वास्थ्य सेवाओं का भी है। सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली किसी से छुपी नहीं है। शाशन द्वारा सरकारी अस्पातालों के बदतर कर दिए गए हालातों की वजह से प्राइवेट अस्पतालों का धंधा खूब फल फूल रहा है। प्राइवेट अस्पतालों में उनके मालिक खुलकर लोगों की जिंदगी और मौत का व्यापार चला रहे हैं। विज्ञान के इतने विकास के बावजूद लोग पैसे के अभाव के कारण सामन्य बीमारियों की वजह से भी अपनी जिंदगियों से हाथ धो रहे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ते व्यपारीकरण से आने वाले समय में सबके लिए समान शिक्षा व स्वास्थ्य हासिल करना ओर कठिन होता जायेगा।


आवास व बुनियादी सुविधाएं 
एक बेहतर आवास मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने वाली जरूरतों में से एक है, जो किसी व्यक्ति के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक बेहतर आवास की कल्पना मूलभूत सुविधाओं पानी, बिजली,सीवर, सड़क आदि के बिना नहीं की जा सकती। आवास का अधिकार संविधान के तहत जीने के अधिकार की श्रेणी में आता है लेकिन आज भी देश की आधी से ज्यादा आबादी को आवास की सुरक्षा हासिल नहीं है और वह स्लम की अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर है। गॉव में आजीविका कमाने के लगातार कम होते जा रहे अवसरों व सुविधाओं की कमी ने लोगों को बडी संख्या में शहरों की ओर पलायन के लिए मजबूर किया है। आने वाले समय में शहरीकरण की प्रक्रिया ओर तेज होगी। हमारे देश में गॉव की गरीबी व बदहाली तो पहले ही जग जाहिर है। शहर जोकि आधुनिक सम्पन्नता के केन्द्र माने जाते हैं उनकी आधी से ज्यादा आबादी झुग्गी-बस्तियों में निवास करती है जहां मूलभूत सुविधाओं का नितांत अभाव है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार लगभग ६१.८  मिलियन लोग स्लम में निवास करते है। जो अपने श्रम से औरों के लिए घर व इमारतें बनाते है वे ही बेघर रहने के लिए मजबूर हैं। अब अपने घर का सपना मध्यम वर्ग के लिए भी देखना मुश्किल होता जा रहा है ऐसे में गरीब मेहनतकशो के लिए अपने घर का सपना देखना भी प्रतिबंधित है। समय-समय पर सरकारों द्वारा आवास नीतियां बनायी गई व उनमें कमजोर वर्गों के लिए आवास के लिए प्रावधान भी किए गए लेकिन मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की।
वैसे तो मूलभूत सुविधाएं देश में बहुत बड़ी आबादी को पहले भी हासिल नहीं थी लेकिन 1990 के बाद शुरू हुई नई आर्थिक नीतियों के बाद मूलभूत सुविधाओं को मुक्त बाजार व पूंजीपतियों के हवाले करने की शुरुवात कर दी गई। पानी, बिजली आदि को निजी कम्पनियों के हवाले किया जा रहा है ताकि वे इनसे मुनाफा कमा सकें। सरकारें सार्वजनिक व निजी क्षेत्र की सांझेदारी (च्च्च्) के नाम पर जन सुविधाओं के व्यपारीकरण को आगें बढ़ा रही हैं। हमारा मानना है कि सभी प्रकार की मूलभूत सुविधायें हासिल करना सभी लोगों का अधिकार है, वे इन सुविधाओं को उपलब्ध कराना सरकार व प्रशाशन की जिम्मेदारी। जन सुविधाओं के व्यपारीकरण व निजीकरण को बढ़ावा देने की बजाए सार्वजनिक सेवा संस्थाओं की खामियों को दूर कर उनकों जनता के प्रति जवाबदेह बनाया जाए तथा उनमें कार्य करने वाले कामगारों को निर्णय प्रक्रिया व प्रबंधन में भागीदार बनाया जाए। 
आज सुधार परियोजनाओं के नाम पर जन सुविधओं के निजीकरण व व्यापरीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है। मतलब साफ है कि आज जब सरकार किसी ‘सुधार’ की बात करे तो हमें चौकन्ना हो जाना चाहिए। सरकार के सुधार का मतलब लोगों की जीवन परिस्थितियों में सुधार नहीं होता। सुधार का मतलब होता है, समाज के सभी संसधानों को पूंजीपतियों के मुनाफा कमाने की चारागाह में तब्दील कर देना। सामाजिक संसधानों की यह खुली लूट बदस्तूर जारी है। सभी लोगों के लिए सम्मानजनक आवास व जन सुविधाओं की उपलब्धता सुनिष्चित कराना हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है।  


सामाजिक बराबरी
भारतीय समाज सदियों पुरानी परंपराओं, रूडियों में आज भी जकड़ा हुआ है। आज भी इंसान और इन्सान के बीच की बराबरी कायम नहीं हो पायी है। कुछ हद तक जाति के बंधन पहले से कमजोर हुए हैं। महिलाओं की समाजिक व निजी दायरें में थोड़ी बराबरी कायम हुई है लेकिन महिलाओं, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों व अल्पसंख्यक समुदायों को सामाजिक व आर्थिक- राजनीतिक जीवन में बराबरी कायम करने के लिए अभी भी एक लम्बी लड़ाई लड़नी होगी। तमाम कानून बनाने के बावजूद दलित आबादी के साथ जाति के नाम पर सामजिक भेदभाव व उत्पीड़न कायम है। यह सामजिक उत्पीड़न जहां गॉवों में खुले रूप में जारी है वहीं शहरों में दबे छुपे ढ़ंग से कायम है। महिलाओं के ऊपर से पितृसत्ता के पुराने बंधन अभी टुटे भी नहीं थे कि पूंजीवदी बाजार और संस्कृति ने महिलाओं को खरीदी-बेची जानी वाली वस्तु में तबदील कर दिया है। सामाजिक परंपरा के नाम पर युवक-युवतियों को अपना जीवन साथी चुनने की स्वतंत्रता व संवैधानिक अधिकार से वंचित किया जा रहा है। उन्हें परंपरओं की रक्षा के नाम पर बलि चढ़ाया जा रहा है। 
भारतीय समाज ने ऊपर से आधुनिक जीवन शेली को तो अपना लिया है लेकिन वह अन्दर से आज भी पिछड़े मूल्यों व गैर बराबरी की परम्परओं, रूढ़ियों व विचारों में जकड़ा हुआ है। भारतीय समाज को आज आधुनिकता की सबसे बड़ी दरकार है जिसका मतलब है कि समाज में तर्क व व्यक्ति की प्रधानता को स्थापित किया जा सके। हमारे समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा बहुत सीमित है। यहां व्यक्ति के ऊपर समुदाय हावी है और आस्था तर्क के ऊपर हावी है। तर्क प्रधानता व व्यक्तिगत स्वतंत्रता के इस दायरे को बढ़ायें बिना सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन में बराबरी कायम नहीं की जा सकती। इसीलिए लोगों के बीच लिंग, र्धम, जाति व क्षेत्र के आधार पर होने वाले भेदभाव को समाप्त किए बिना समानता व न्याय पर आधारित शोषण मुक्त समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता। 

साम्प्रदायिकता का जहर
मेहनतकश वर्गों व देश के समस्त नागरिकों के सामने साम्प्रदायिकता से निपटने की चुनौती समाने खड़ी है। साम्प्रदायिक सोच कहीं न कहीं लोगों की सामान्य सोच का हिस्सा बनती जा रही है। यह एक बहुत ही खतरनाक परिस्थिति है। साम्प्रदायिकता के इस जहर को फैलाने का काम जोर-शोर से जारी है। औपनिवेषिक काल से चला आ रहा साम्प्रदायिकता का इतिहास और हमारे समाज का पिछड़ापन इस खतरे के लिए पृष्ठभूमि का काम कर रहा है। साम्प्रदायिकता का नंगा नाच हम 1947 में हुए विभाजन के बाद के दंगों व 2002 में गुजरात में हुए अल्पसंख्यकों के नरसंहार के रूप में देख चुके है। इन दंगों में मरने वाले व दंगा कराने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले दोनों ही मेहनतकश वर्गों के लोग रहे हैं। साम्प्रदायिक व फासीवादी ताकतों ने अपने राजनीतिक मंसुबों को पुरा करने के लिए हमेसा ही मेहनतकश तबकों को अपने मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया है। 
भारत में साम्प्रदायिकता को फैलाने का मुख्य काम कट्टरपंथी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उससे जुड़े सगठनों ने किया है। वहीं साम्प्रदायिकता को हवा देने का काम अल्पसंख्यक समुदायों के अंदर मौजूद कट्टरपंथी ताकतों ने भी किया है। साम्प्रदायिक कट्टरपंथी ताकतों की मार सबसे ज्यादा महिलाओं, दतिलों व अन्य पिछडे व गरीब तबकों पर सबसे ज्यादा पड़ती है। ये ताकतें समाज को पुराने मूल्यों, परंपराओं के बंधन में जकड़े रखना चाहती हैं व मानव बराबरी व प्रगति की विरोधी है। साम्प्रदायिकता की राजनीति का प्रयोग भाजपा जैसी पार्टीयां खुले तौर पर करती है, वहीं कांग्रेस यही राजनीति परोक्ष रूप से (कभी-कभी खुले रूप से भी) करती है। 
साम्प्रदायिकता की समस्या के जिम्मेदार के तौर पर केवल राज्य सत्ता व राजनीतिक संगठनों को ही देखा जाता रहा है जो कि साम्प्रदायिकता की समस्या के केवल एक पहलू को ही उजागर करता है लेकिन साम्प्रदायिकता के फलने फूलने के लिए हमारे समाज का पिछड़पन व गैर-आधुनिक होना भी जिम्मेदार है। हमें अपने आप से यह सवाल पूछना ही होगा कि हमारें समाज के जन मानस के अन्दर वो कौन सा बारूद मौजूद है जो चंद साम्प्रदायिक शक्तियों के भड़काने पर जल उठता है। साम्प्रदायिकता से निपटने की सीधी चुनौती सभी लोगों के सामने है। हमें साम्प्रदायिक शक्तियों से जहां सीधे निपटना होगा वहीं हमें अपने समाज के जनतांत्रिकरण की प्रक्रिया तथा मेहनतकश वर्गों के संघर्ष को तेज करना होगा।


हमारे सामने चुनौती है -
यहीं हैं हमारी आज की परिस्थितियां। इनसे निपटने की चुनौती हमारे सामने है। इन चुनौतियों से निपटे बिना देश की मेहनतकश जनता अपना भविष्य नहीं गढ़ सकती। दुनिया के कामगारों ने ही यह दुनिया बनायी है और वे ही इसके वास्तविक मालिक हैं। मेहनतकश ही अपने कंधो पर दुनिया को यहां तक लाया है। दुनिया को पूंजी की गुलामी से आजाद करके, मानवता को हर बंधन व जकड़न से मुक्त करके आगे ले जाने का ऐतिहाससिक कार्यभार भी उसी के कंधों पर है। वे हम ही हैं जिनमें नए व स्वस्थ्य के सृजन की अपार क्षमता है। क्या हमरा श्रम व सृजन की क्षमता पूंजी की चाकरी करते रहेंगे या फिर हम क्रांतिकारी परिवर्तन का आगाज़ करेंगे ताकि करोड़ो-करोड़ लोगों की श्रम शक्ति के आधार पर समृद्ध, गौरवषाली और शोषणविहीन एक नए भारत का निर्माण किया जा सके।
क्या हम समाज की मौजुदा व्यवस्था द्वारा पाली पोसी जा रही स्वार्थपरकता, व्यक्तिवाद, गुलामी की मानसिकता एव जात-पॉत के पिछड़े विचारों में जकड़े रहेंगे या फिर क्रांतिकारी सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण का उद्घोष करेंगे ताकि एक स्वस्थ, सुसंस्कृत और आत्म सम्मानी, तर्क व व्यक्ति की गरिमा पर आधारित भारत का निर्माण किया जा सके। 
क्या करोड़ों बाल-मजदूरों का बचपन श्रम, शोषण, अन्याय व अज्ञान की चक्की में पिसता रहेगा। क्या हमारी आधी आबादी महिलायें पितृस्तात्म्क ,नारी विरोधी संस्कृति के द्वारा दबायी कुचली जाती रहेंगी ? पूंजीवादी बाजार संस्कृति के द्वारा औरत को खरीदी-बेची जाने वाली वस्तू में तबदील किया जाता रहेगा ? क्या हजारों साल से दबाये कुचले गए दलित लोग आज भी उसी अमानवीय उत्पीड़न, हिंसा और भेदभाव का शिकार बनायें जाते रहेंगे ? क्या अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ हिंसा व उनके सामाजिक व राजनीतिक-आर्थिक हॉषियाकरण की मुहिम ऐसे ही चलती रहेगी? और हम चुपचुाप देखते रहेंगे, बरदाशत करतें रहेंगे ? या इनके मुक्ति-संग्राम के योद्धा और सहभागी बनेंगे। 
क्या हम ‘नयी आर्थिक नीति’ जैसी नीतियों को बेरोकटोक लागू होने देंगे? रोजगार व श्रम अधिकारों पर इनका हमला जारी रहेगा? सार्वजनिक सुविधाओं का बचा खुचा तंत्र भी समाप्त कर दिया जायेगा। लोगों को शिक्षा, स्वास्थ, आवास, भोजन आदि के अधिकारों से पहले से भी अधिक वंचित किया जाता रहेगा और हम कुछ न कहेंगे ? मूक दर्शक बनें रहेंगे ? या फिर जनता के तमाम मेहनतकश तबकों और जनपक्षधर शक्तियों के साथ मिलकर इस अन्याय के विरूद्ध, इन जन विरोधी नीतियों के विरूद्ध संघर्ष का ऐलान करेंगे।
क्या हम सार्वजनिक क्षेत्र व सेवाओं को भ्रष्टाचार के दानव के मुहॅ मे जाते देखते रहेंगे ? या भ्रष्टाचार के इस दानव से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार होंगे। क्या हम मौजुदा पूंजीवादी व्यवस्था की पोषक राजनीति का वोट बैंक बने रहेंगे ? या मेहनतकशो की परिवर्तनकामी राजनीति के विकल्प के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करेंगे ताकि सच्चे समाजवदी लोकतंत्र की स्थापना की जा सके जिसमें कामगार अपने श्रम से पैदा हुए उत्पाद के स्वयं मालिक बनेंगे तथा सभी लोगों की राज्य के संचालन में सक्रिय भूमिका होगी। आइये इस ऐतिहासिक कार्यभार के लिए अपनी कमर कसें व आज से ही इस महान काम में जुट जाये। वास्तव में हम ही आज के नागरिक है और कल के भविष्य निर्माता भी।


हम लड़ेगे - 
(1) सभी को सम्मानजनक रोजगार के अधिकार के लिए व उपयुक्त मजदूरी के लिए, सभी मेहनतकशो को सम्मपूर्ण सामाजिक सुरक्षा के लिए, व श्रम को पूंजी की गुलामी से मुक्त कराने के लिए।
(2) सभी को बेहतर आवास व मूलभूत सुविधाओं तथा भोजन के अधिकार के लिए।
(3) सभी को निःशुल्क एक समान शिक्षा व स्वास्थ्य के अधिकार के लिए तथा शिक्षा व स्वास्थ्य को भ्रष्ट पूंजीवादी राजनीति व मुनाफे के तंत्र से मुक्त कराने के लिए।
(4) दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यक समुदाय, आदिवासी व अन्य पिछड़े समुदायों के खिलाफ होने वाली हिंसा, भेदभाव व उत्पीड़न के खिलाफ व उनके सामाजिक सम्मान व बराबरी के लिए।
(5) सभी लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए, सार्वजनिक संस्थाओं के लोकतांत्रिकरण के लिए व सार्वजनिक संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार के खात्में के लिए।


हम प्रतिबद्ध हैं
हम प्रतिबद्ध हैं समाज परिवर्तन के उस क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति जो शोषण , अन्याय , गैर बराबरी व सामाजिक भेद भाव पर आधारित इस व्यवस्था का खात्मा करेगा और इसके स्थान पर एक शोषण मुक्त, बराबरी तथा श्रम व व्यक्ति की गरिमा पर आधारित समाजवादी समाज व्यवस्था का निर्माण करेगा। 
इंकलाब जिंदाबाद