· प्रशान्त कुमार दुबे
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..किसान का बेटा प्रदेश में राज कर रहा है और केवल शिवराज के राज में 8360 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। प्रदेश अब दूसरा विदर्भ बनने की कगार पर है। पिछले 10 सालों में 15000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं । किसानी धीरे-धीरे घाटे का सौदा होती जा रही है। बिजली के बिगड़ते हाल, बीज का न मिलना, कर्ज का दवाब, लागत का बढ़ना और सरकार की ओर से न्यूनतम सर्मथन मूल्य का न मिलना आदि यक्ष प्रश्न बनकर उभरे हैं। किसानों को उनकी उपज का मिलने वाला समर्थन मूल्य अपने आप में इतना समर्थ नहीं है कि वह किसानों को उनकी फसल का उचित दाम दिला सके। ऐसे में ही खेती घाटे का सौदा बनती जाती है, किसान कर्ज लेते हैं और न चुका पाने की स्थिति में फांसी के फंदे को गले लगा रहे हैं। हालांकि सरकार यह बता रही हे कि हमने विगत दो सालों में सर्मथन मूल्य बढ़ा दिया है। लेकिन इस बात का विष्लेषण किसी ने नहीं किया कि वह समर्थन मूल्य वाजिब है या नहीं। कृषि मंत्री शरद पवार कृषि की बजाये आईपीएल पर ज्यादा ध्यान देते हैं जबकि उन्हें चाहिये कि वे आईएफएल (इंडियन फॉर्मर्स लाईफ) पर ध्यान दें।
मध्य प्रदेश के दमोह जिले के पथरिया ब्लॉक के महलवाड़ा के किसान मोहन राईकवार ने करीना इंडोसल्फान (एक जहरीली दवा) पीकर अपनी ईहलीला समाप्त करने की कोशिश की। उन पर बैंक और साहूकार का मिलाकर कुल 1.50 लाख रूपये का कर्ज था। उनके ठीक एक दिन पहले ही दमोह के ही देवरन गांव के उदय परिहार ने आत्महत्या करने की कोशिश की। उनके परिवारजन बताते हैं कि उसके यहां पैदावार बहुत कम हुई थी। कर्ज चुकाने की चिंता के कारण ही उन्होंने ऐसा कदम उठाया। प्रदेश में विगत एक माह में कर्ज के कारण आत्महत्या वाले किसानों की संख्या 13 हो गई जबकि 6 अन्य किसानों ने भी आत्महत्या का प्रयास किया। इन आत्महत्याओं के साथ एक बार फिर यह बहस उपजी है कि क्या कारण है कि धरती की छाती को चीरकर अन्न उगाने वाले किसान, हम सबके पालनहार को अब फांसी के फंदे या अपने ही खेतों में छिड़्ऱकने वाला कीटनाशक ज्यादा भाने लगा है। दरअसल अभी तक किसानों की आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक का जिक्र आता रहा है, लेकिन वास्तविकता इससे बहुत परे है। मध्यप्रदेश में विगत छः वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं में लगातार इजाफा हुआ है। प्रदेश में विगत 9 वर्षों में 12455 से भी ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है।
हाल ही में हुई आत्महत्या की सबसे ज्यादा दो घटनायें खुद मुख्यमंत्री और राजस्व मंत्री करण सिंह वर्मा के गृह जिले सीहोर, किसान कल्याण व कृषि विकास मंत्री डॉ. कुसमारिया के गृह जिले दमोह और पड़ोसी जिले नरसिंहपुर में हुई हैं। आत्महत्या के प्रयास की छह घटनाये तो केवल कृषि मंत्री के जिले में ही हुई हैं। किसान के बेटे शिवराज के कार्यकाल में ही 8360 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो इससे इतर बात करता है।
प्रदेश में रोजाना 4 किसान करते हैं आत्महत्या
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राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की मानें तो प्रदेश में प्रतिदिन 4 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह मामला केवल इसी साल सामने आया है बल्कि वर्ष 2001 से यह विकराल स्थिति बनी है। उपरोक्त तालिका को देखें तो हम पाते हैं कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों पड़ोसी राज्यों में कमोबेश एक सी स्थिति है। यह स्थिति इसलिये भी तुलना का विषय हो सकती है क्योंकि दोनों राज्यों की भौगोलिक परिस्थितियाँ लगभग एक सी हैं, खेती करने की पद्धतियाँ, फसलों के प्रकार भी लगभग एक से ही हैं। मध्यप्रदेश ने वर्ष 2003-2004 में भी सूखे की मार झेली थी और तब किसानों की आत्म्हत्या का ग्राफ बढ़ा था और विगत् दो-तीन वर्षों में भी सूखे का प्रकोप बढ़ा ही है तो हम पाते हैं कि वर्ष 2007 के बाद से प्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं में बढ़ोत्तरी हुई है। अभी हमारे पास वर्ष 2010 के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, अतएव हम बहुत सीधे तौर पर इस ट्रैंड को पकड़ नहीं पायेंगे
, लेकिन स्थिति तो चिंताजनक है। हम यह सोचकर खुश हो सकते हैं कि हमारे राज्य में महाराष्ट्र, आंधप्रदेश व कर्नाटक की तरह भयावह स्थिति नहीं हैं लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि इन राज्यों की स्थितियां हमसे काफी भिन्न हैं। और यदि आज भी ध्यान नहीं दिया गया तो प्रदेश की स्थिति और भी खतरनाक हो जायेगी।
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महिला किसान भी हैं इसमें शामिल
इस पूरी कवायद में से एक बात और निकलती है वह यह कि महिला किसान भी आत्महत्या कर रही हैं। अगर केवल दस वर्षों में देखें तो 2296 महिला किसानों ने, जो कि कुल आत्महत्याओं का 18.43 प्रतिशत है, आत्महत्या की है जो कि अपने आप में चौंकाने वाली बात है। इसमें भी वर्ष 2001 से लेकर 2004 तक तो इन मौतों में बढ़ोतरी होती रही लेकिन उसके बाद से इनमें कमी देखी गई है। प्रदेश में औसतन तीन दिन में दो महिला किसान आत्महत्या करती है।
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परिभाषा में उलझा किसान ?
एनसीआरबी के अनुसार किसान की परिभाषा क्या है । मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेन्ट के प्रोफेसर नागराज, जो कि कई सालों से किसान आत्महत्या के बारे में राष्ट्रीय अपराध ब्यूरों के आंकड़े के आधार पर विष्लेषण कर रहे हैं, बताते हैं कि पुलिस विभाग के अनुसार किसान की परिभाषा का मापदंड जनसंख्या के लिए परिभाषित किसान की परिभाषा से और भी कठिन है। पुलिस की परिभाषा के अनुसार किसान होने के लिए स्वयं की जमीन होना आवष्यक है और जो लोग दूसरे की खेती को किराये में लेकर (म.प्र की परम्परा के अनुसार बटिया/ अधिया लेने वाले) काम करते हैं उन्हें किसानों की श्रेणी में नहीं रखा गया है। यहां तक कि इसमें उन लोगों को भी शामिल नहीं किया गया है जो अपनी घर के खेतों को सम्हालते हैं लेकिन जिनके नाम में जमीन नहीं है। अगर किसी घर में पिताजी के नाम में सारी जमीन है लेकिन खेती की देखभाल उसका लड़का करता है तो पिताजी को तो किसान का दर्जा मिलेगा लेकिन बेटे को पुलिस विभाग किसान की श्रेणी में नहीं रखेगी। प्रोफेसर नागराज आगे बताते हैं कि पुलिस विभाग द्वारा जिस तरह से मापदंड अपनाया गया है उस हिसाब से वास्तविक किसान द्वारा आत्महत्या की संख्या राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की संख्या से और भी ज्यादा होगी।
साथ ही अगला सवाल और परेशान कर सकता है कि पुलिस विभाग से मिले यह आंकड़े कहीं गलत तो नहीं ! ज्ञात हो कि राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकड़े वही आंकड़े हैं जो उसे राज्य के अलग-अलग पुलिस अधीक्षक कार्यालयों से प्राप्त होते हैं। इससे अधिक प्रामाणिक जानकारी उनके पास कोई भी नहीं है। हम सभी जानते हैं कि राज्य में पुलिस व्यवस्था के क्या हाल हैं और कितने प्रकरणों को दर्ज किया जाता है। खासकर किसानों की आत्महत्या जैसे संवेदनशील मामलों को राज्य हमेशा से ही नकारता रहा है। ऐसे में एनसीआरबी की रिपोर्ट भी बहुत प्रामाणिक जानकारी हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है, यह सोचना गलत होगा।
ये तो होना ही था
लंबे समय से किसानों की आत्महत्याओं पर लिख रहे जाने-माने पत्रकार पी. साईनाथ का कहना है कि जब मैंने इस विषय पर लिखना शुरू किया था तो लोग हंसते थे। कोई भी गंभीरता से नहीं लेता था। लेकिन यदि समये रहते प्रयास किये जाते तो हमें यह दिन नहीं देखना पड़ता कि कृषि प्रधान देश में किसानों के लिये आत्महत्या मजबूरी बन जाये। कृषि मामलों के जानकार देविन्दर शर्मा कहते हैं कि यह तो होगा ही । एक तरफ सरकार छठवां वेतनमान लागू कर रही है जिसमें एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी यानी भृत्य तक को 15000 रूपया मासिक मिलेगा, जबकि एनएसएसओ का आकलन कहता है कि एक किसान की पारिवारिक मासिक आय है महज 2115 रूपये। जिसमें पांच सदस्य के साथ दो पशु भी हैं। सवाल यह है कि किसान सरकार से वेतनमान नहीं मांग रहा है बल्कि वह तो न्यूनतम सर्मथन मूल्य मांग रहा है। और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। उत्पादन लागत बढ़ रही है और किसान को सर्मथन मूल्य भी नहीं मिल रहा है।
प्रदेश में हर किसान पर हैं 14 हजार 218 रूपये का कर्ज
किसानों की आत्महत्या के तात्कालिक 8 प्रकरणों का विष्लेषण हमें इस नतीजे पर पहुंचाता है कि सभी किसानों पर कर्ज का दबाव था। फसल का उचित दाम नहीं मिलना, घटता उत्पादन, बिजली नहीं मिलना परन्तु बिल का बढ़ते जाना, समय पर खाद-बीज नहीं मिलना और उत्पादन कम होना । विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने प्रदेश के किसानों से 50,000 रूपया कर्ज माफी का वायदा किया था, लेकिन प्रदेश सरकार ने उसे भुला दिया। अब किसानों पर कर्ज का बोझ है । म.प्र. के किसानों की आर्थिक स्थिति के बारे में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आ रहे हैं। एनएसएसओ के 59वें चक्र की मानें तो प्रदेश के हर किसान पर औसतन 14 हजार 218 रूपये का कर्ज है। वहीं प्रदेश में कर्ज में डूबे किसान परिवारों की संख्या भी चौंकाने वाली है। यह संख्या 32,11,000 है। म.प्र. के कर्जदार किसानों में 23 फीसदी किसान ऐसे हैं, जिनके पास 2 से 4 हेक्टेयर भूमि है। साथ ही 4 हेक्टेयर भूमि वाले कृषकों पर 23,456 रूपये कर्ज चढ़ा हुआ है। कृषि मामलों के जानकारों का कहना है कि प्रदेश के 50 प्रतिशत से अधिक किसानों पर संस्थागत कर्ज चढ़ा हुआ है। किसानों के कर्ज का यह प्रतिशत सरकारी आंकड़ों के अनुसार है, जबकि किसान नाते/रिष्तेदारों, व्यवसायिक साहूकारों, व्यापारियों और नौकरीपेषा से भी कर्ज लेते हैं। जिसके चलते प्रदेश में 80 से 90 प्रतिशत किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं।
बिजली मार रही है झटके
छत्तीसगढ़ के अलग होने के साथ ही प्रदेश में बिजली खेती-किसानी के लिये प्रमुख समस्या बन गई है। प्रदेश में विद्युत संकट बरकरार है । सरकार ने अभी हाल ही में हुये विधानसभा चुनाव के समय ही अतिरिक्त बिजली खरीदी थी, उसके बाद फिर वही स्थिति बन गई है। प्रदेश में किसान को बिजली का कनेक्शन लेना राज्य सरकार ने असंभव बना दिया है। उद्योगों की तरह ही किसानों को खंबे का पैसा, ट्रांसफार्मर और लाईन का पैसा चुकाना पड़ेगा, तब कहीं जाकर उसे बिजली का कनेक्शन मिलेगा। बिजली तो तब भी नहीं मिलेगी, लेकिन बिल लगातार मिलेगा। बिल नहीं भरा तो बिजली काट दी जायेगी, केस बनाकर न्यायालय में प्रस्तुत किया जायेगा । यानी किसान के बेटे के राज में किसान को जेल भी हो सकती है। घोषित और अघोषित कुर्की भी चिंता का कारण है। बनखेड़ी में भी यही हुआ कि बिल जमा न करने पर एक किसान की मोटरसाईकिल उठा ले गये।
ऐसा नहीं कि सरकार के पास राशि की कमी थी, बल्कि सरकार के पास इच्छाशक्ति की कमी थी। गांवों में लगातार बिजली पहुंचाने के लिए भारत सरकार ने दो अलग-अलग योजनाओं में राज्य सरकार को पैसा दिया गया। पहली योजना है राजीव गांधी गांव-गांव बिजलीकरण योजना जबकि दूसरी योजना है सघन बिजली विकास एवं पुर्ननिर्माण योजना। राजीव गांधी योजना के लिए राज्य सरकार को वर्ष 2007-2008 में 158.21 करोड़ वर्ष, 2008-09 में 165.11 करोड़ रूपये मिला। इसी प्रकार सघन बिजली विकास एवं पुननिर्माण योजना में भी वर्ष 2007-08 व 2008-09 में क्रमषः 283.11 व 374.13 करोड़ रूपया राज्य सरकार के खाते मे आया। कुल मिलाकर दो वर्षों में 980.56 करोड़ रूपया राज्य सरकार को बिजली पहुंचाने के लिए उपलब्ध हुआ लेकिन इसके बाद भी न ही राज्य सरकार ने किसानों को कोई राहत दी और न ही भारत सरकार की इस राषि का उपयोग कर बिजली पहुंचाई। इतनी राषि का उपयोग कर किसानों को बिजली उपलब्ध कराई जा सकती थी, लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। प्रदेश के हजारों किसानों के विद्युत प्रकरण न्यायालय में दर्ज किये गये।
सर्मथन मूल्य नहीं है समर्थ
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कृषि विशेषज्ञ एमएस स्वामीनाथन का कहना है कि समर्थन मूल्य मूल उत्पादन की औसत लागत से 50 प्रतिशत् अधिक होना चाहिये । प्रदेश में विधानसभा चुनावों के मध्यनजर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने प्रदेश के किसानों से 50,000 रूपया कर्ज माफी का वायदा किया था, लेकिन प्रदेश सरकार ने उसे भुला दिया। अब किसानों पर कर्ज का बोझ है । दूसरी ओर भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण (2008-09) की रिपोर्ट कहती है कि देश के कई राज्यों में सर्मथन मूल्य लागत से बहुत कम है, मध्यप्रदेश में भी कमोबेश यही हाल हैं। समर्थन मूल्य अपने आप में इतना समर्थ नहीं है कि वह किसानों को उनकी फसल का उचित दाम दिला सके। ऐसे में ही खेती घाटे का सौदा बनती जाती है, किसान कर्ज लेते हैं और न चुका पाने की स्थिति में फांसी के फंदे को गले लगा रहे हैं। हालांकि सरकार यह बता रही हे कि हमने विगत दो सालों में सर्मथन मूल्य बढ़ा दिया है। लेकिन इस बात का विष्लेशण किसी ने नहीं किया कि वह समथ्रन मूल्य वाजिब है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सर्मथन मूल्य लागत से कम आ रहा है ! और वह लागत से कम आ भी रहा है लेकिन फिर भी सरकार ने इस वर्ष बोनस 100 रूपये से घटाकर 50 रूपया कर दिया। किसान की बेबसी की ज़रा इससे तुलना कीजिये कि वर्ष 1970-71 में जब गेहूं का समर्थन मूल्य 80 पैसे प्रति किलोग्राम था तब डीजल का दाम 76 पैसे प्रति लीटर था, लेकिन आज जबकि मशीनी खेती हो रही है और डीजल का दाम 36 रुपये प्रति लीटर है तब गेहूं का सर्मथन मूल्य 11 रुपये प्रति किलोग्राम हुआ है। यानी तब किसान को एक लीटर डीजल के लिये केवल एक किलो गेहूं लगता था अब उसे उसी एक लीटर डीजल के लिये साढ़े तीन किलो गेहूं चुकाना होता है।
विडंबना यह भी है कि विगत् तीन वर्षों से सूखे की मार झेल रहे प्रदेश में इस साल कमोबेश वही खस्ता हाल हैं। इस साल भी 152 तहसील सूखे की चपेट में हैं। समझ से परे यह भी है कि यह कैसी सरकार कि किसान कर्ज के दवाब से मर जाये और सरकार कारण ढूंढती रहें। जब तक सूखा घोषित नहीं होगा तो किसान को अपनी फसल के मुआवजे की तो चिंता नहीं होगी।
सरकार ने अभी जो समर्थन मूल्य रखा है । वह इतना समर्थ नहीं है कि जो किसानों की आस बंधा सके। वर्ष 2010 में केन्द्र सरकार ने जो सर्मथन मूल्य तय किया है जो कि 2011 में प्रभावी होगा। उसके अनुसार वो तुअर दाल जो इस समय 7000 रुपये क्ंविटल है उसका सर्मथन सरकार ने 3000 रुपये रखा है । इसी प्रकार बाजार में जो गेहूं 16-17 3पये हे उसकी कीमत सरकार ने 11.20 आंकी है। कमोबेश सभी चीजों की यही स्थिति है। किसानी धीरे-धीरे घाटे का सौदा होती जा रही है। बिजली के बिगड़ते हाल, बीज का न मिलना, कर्ज का दवाब, लागत का बढ़ना और सरकार की ओर से न्यूनतम सर्मथन मूल्य का न मिलना आदि यक्ष प्रष्न बनकर उभरे हैं। सरकार एक और तो एग्रीबिजनेस मीट कर रही है लेकिन दूसरी ओर किसानी गर्त में जा रही है। किसान कर्ज के फंदे में फंसा कराह रहा है। समय रहते खेती और किसान दोनों पर ध्यान देने की महती आवष्यकता है, नहीं तो आने वाले समये में किसानों की आत्महत्याओं की घटनायें बढे़गी।
किसानी धीरे-धीरे घाटे का सौदा होती जा रही है। बिजली के बिगड़ते हाल, बीज का न मिलना, कर्ज का दवाब, लागत का बढ़ना और सरकार की ओर से न्यूनतम सर्मथन मूल्य का न मिलना आदि यक्ष प्रश्न बनकर उभरे हैं। सरकार एक और तो एग्रीबिजनेस मीट कर रही है लेकिन दूसरी ओर किसानी गर्त में जा रही है। किसान कर्ज के फंदे में फंसा कराह रहा है। इधर राज्य के कृषि मंत्री किसानों की मौतों को किसानों के पापों का फल बता रहे हैं वहीं दूसरी ओर केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार कृषि की बजाये आईपीएल पर ज्यादा ध्यान देते हैं जबकि उन्हें चाहिये कि वे आईएफएल (इंडियन फॉर्मर्स लाईफ) पर ध्यान दें। समय रहते खेती और किसान दोनों पर ध्यान देने की महती आवष्यकता है, नहीं तो आने वाले समये में किसानों की आत्महत्याओं की घटनायें और बढे़ंगी, और हम विदर्भ की तरह यहां भी मुंह ताकते रहेंगे।
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