स्वदेश सिन्हा



‘‘
किसी चीज पर इसलिए विश्वास मत करो कि तुम्हें वैसा बताया गया है, या कि परम्परा से ऐसा होता आया है अथवा स्वयं तुमने उसकी कल्पना की है।तुम्हारा शिक्षक तुम्हें बताये, उस पर विश्वास इसलिए न कर लो क्योंकि तुम उसका सम्मान करते हो। किन्तु उस चीज को तुम उचित परीक्षण एवं विश्लेषण के बाद सभी के लिए हितकर और कल्याणकारी लगे, उसी सिद्धान्त पर विश्वास करो और उस पर दृढ़ रहो, उसे अपना मार्गदर्शक बनाओ।’’ - गौतम बुद्ध 

आज यह विश्वास करना कठिन है कि सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से सबसे पिछड़े तथा निर्धनतम पूर्वी उ.प्र. से सटे नेपाल की तराई में स्थित लुम्बनी नामक स्थल पर आज से दे हजार पाँच सौ वर्ष ईसा पुर्व ऐसे महामानव का जन्म हुआ जो आज भी अपनी चिन्तन की उत्कृष्टता तथा बौद्धिकता से सम्पूर्ण मानव जाति को चमत्कृत करता रहता है। उनके विचारों का प्राचीन तथा आधुनिक धर्मों पर गहरा असर पड़ा है। धर्मों के इतिहास में वे पहले ऐसे चिन्तक थे जिन्होंने जीव हत्या सहित सभी तरह के हिंसा का विरोध किया। बाद में उनकी इसी अवधारणा को हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम तथा यहूदी धर्मों ने अपनाया।

नागार्जुन, अश्वघोष, धर्मकीर्ति, शान्तिदेव, रक्षित जैसे अनेक बौद्ध विचारकों ने बुद्ध के विचारों के बारे में बहुत कुछ लिखा है। इनमें आपस में काफी वाद-विवाद तथा अन्तर्विरोध भी है। करीब अस्सी वर्ष के उम्र में गौतम बुद्ध की मृत्यु महापरिनिर्वाण के पश्चात् अशोक, कनिष्क जैसे सम्राटों ने बुद्ध के धर्म तथा उनके विचारों को सारे देश तथा सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया में फैलाया। भारत में अनेक कारणों से इसका प्रभाव कम होता गया परन्तु लंका, थाइलैण्ड, वर्मा, जापान,कोरिया, चीन, अफगानिस्तान, इण्डोनेशिया तथा जावा द्वीप समूह तक आज भी अपने-अपने रूपों में यह धर्म मौजूद है।

बुद्ध के मूल विचार बहुत ही सीधे-साधे हैं। उन्होंने चार आर्य सत्यों का प्रतिपादन किया- प्रथम-संसार में दुख है, द्वितीय-दुखों का कारण है,तृतीय-दुखों का निवारण भी है और चौथा-दुखों का निवारण भी इसी दुनिया में है।गौतम बुद्ध ने किसी काल्पनिक स्वर्ग नर्क की बात नहीं की, उनका कहना थाकि मानव जाति के कष्टों तथा दुःखों का निवारण इसी दुनिया में है।उन्होंने यज्ञ, बलि तथा धार्मिक कर्मकाण्डों में धन सम्पदा की बर्बादी का प्रबल विरोध किया। वे मानते थे कि धन संचय तथा व्यक्तिगत सम्पत्ति मनुष्यों के दुःखों का मूल कारण है। उन्होंने अपने अनुयायियों को अध्यात्मिक स्वतन्त्रता से कभी वंचित नहीं किया। वे कहते हैं ‘‘सबसे बड़ी प्रमाणिकता अपने भीतर की आत्मा की आवाज है।’’ बुद्ध के उपदेशों में हठवादिता नहीं है। यह बात उस युग के साथ-साथ आज के युग में असाधारण है। उन्होंने विवादों को दबाने अथवा उनका गला घोटने से इंकार कर दिया। वे असहिष्णुता को धर्म का सबसे बड़ा शत्रु मानते थे और अपने शिष्यों को सच्चे तथा सत्य की तलाश स्वयं करने की बात करते थे। उनकी आत्म दीपो भवकी अवधारणा में यह बात स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।

अपने मृत्यु के कुछ समय पूर्व प्रिय शिष्य आनन्द से बुद्ध कहते हैं-  ‘‘मैंने सत्य का प्रचार गुप्त सत्य और प्रगट सत्य का भेद किए बिना किया है क्योंकि सत्य के सम्बन्ध में आनन्द तथागत के पास ऐसा कुछ भी नहीं है  जैसा कोई धर्म गुरु बन्द मुट्ठी में अपने तक सीमित रखे।

महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. जाकिर हुसैन, बाबासाहब अम्बेडकर,  मार्टिन लूथर जैसे राजनेताओं, रोमा रोला, ज्यां पाल सार्त्र, राहुल  सांकृत्यायन जैसे विचारकों पर उनके सत्य और अहिंसा का  गहरा प्रभाव पड़ा था। वे हिन्दू धर्म के जाति व वर्ण व्यवस्था के घोर विरोधी थे। इसीलिए डॉ0 भीमराव अम्बेडकर ने अपने हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।

आज के असहिष्णुता, हिंसा, लोभ तथा धार्मिक कट्टरता से भरे सम्पूर्ण विश्व में तथागत गौतम बुद्ध के विचारों की कितनी प्रासंगिकता है यह बतलाने की और आवश्यकता नहीं है।
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लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है , तथा गोरखपुर में रहते हैं