उपासना बेहार
दुनिया भर में 1 मई को
अन्तराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रुप में मनाया जाता है। भारत में भी 1 मई 1923 से मजदूर दिवस
मनाने की शुरुवात हुई। उन्नीसवी शताब्दी के नवें दर्शक में अमेरिका के मजदूरों
द्वारा काम के घंटे को कम करने के लिए प्रर्दशन और हडताल किये जाने लगे, उनकी मांग थी कि
आठ घन्टे का कार्य दिवस हो। सरकार को मजदूरों के इस आन्दोलन के सामने झुकना पड़ा, उसके बाद से 1 मई 1890 को ‘‘मजदूर दिवस’’ के रूप में मनाया
जाने लगा। लेकिन आज हम यहा बात करेगें एक
ऐसे मजदूर वर्ग की जिसका शोषण हमारे देश में सबसे ज्यादा होता है और यह वर्ग है
महिला घरेलू कामगार, कहने को भले ही
ये कामगार हो लेकिन इन्हें नौकरानी ही माना जाता है। इन घरेलू कामगारों के काम का
नेचर तीन तरीके से होता है,
प्रथम जो अनेक
घरों में कार्य करती हैं,
दूसरे वे जो एक
ही घर में सीमित समय के लिए कार्य करती हैं और तीसरे वे जो एक ही घर में
पूर्णकालिक कार्य करतीं हैं।
घरेलू कामगार
महिलाओं के साथ तरह तरह से क्रूरता, अत्याचार और शोषण होते है। कुछ समय पहले ही मीडि़या में आये
दिल दहला देने वाले केस भूले नही होगें जिसमें कुछ घरेलू कामगारों को इसकी कीमत
अपनी जीवन देकर चुकानी पड़ी थी। जौनपुर से बसपा के सांसद धनंजय और उनकी डा. जागृति
सिंह को पुलिस ने घरेलू कामगार महिला की मृत्यु के सिलसिले में गिरफ्तार किया था
तथा उन पर अपने अन्य घरेलू सहायकों को प्रताड़ना देने के भी आरोप लगे थे। उसी
प्रकार मध्यप्रदेश के पूर्व विधायक राजा भैया (वीर विक्रम सिंह) और उनकी पत्नी
आशारानी सिंह को अपनी घरेलू नौकरानी तिजी बाई को आत्महत्या के लिए उकसाने वाले
मामले में सजा हुई थी। ऐसा नहीं है कि घरेलू कामगारों खासकर महिलाओं और नाबालिगों
के साथ बढ़ते अत्याचार में सिर्फ राजनेता ही शामिल नहीं हैं, बल्कि
बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले, बैंक, बीमा कर्मचारी, प्रोफेसर, चिकित्सक, इंजीनियर, व्यापारी, सरकारी अधिकारी इत्यादी सभी शामिल हैं।
कॉरपोरेट जगत की
वंदना धीर घरेलू कामगार किशोरी को अर्धनंगा रखती थी ताकि वह भाग न जाये, उसके शरीर पर
चाकू और कुत्ते के दांत से काटने के जख्म थे वही वीरा थोइवी एयर होस्टेस अपनी
घरेलू काम करने वाली किशोरी को बेल्ट से पीटती और भूखा रखती थी, बाद में उसे
पुलिस ने छुडाया। यह तो इनके साथ होने वाले अत्याचार के कुछ केस हैं जो मीडि़या
में आ जाने के कारण लोगों के सामने आ गये। वरना हजारों की संख्या में ऐसे घरेलू
कामगार होगीं जो अपने नियोक्ता के अत्याचार चाहे वो शारीरिक, मानसिक, शाब्दिक हो, सह रही होगीं। ये
हिंसा चारदीवारी के भीतर होने से पता भी नहीं चलता है, जब तक की कोई बड़ी और भयानक
दुर्घटना ना हो जाये। घरेलू कामगार महिलाओं को अपने साथ हो रहे हिंसा की शिकायत
करने पर रोजीरोटी छीन जाने का डर रहता है। इसी काम से वह अपने घर परिवार को चलाने
में सहयोग करती हैं। इसी कारण वह शिकायत करने की हिम्मत नही कर पाती हैं।
होना तो यह चाहिए
कि घरेलू कामगार महिलाओं को प्रायवेट सेक्टर में काम करने वाले कर्मचारी की तरह
माना जाना चाहिए और कर्मचारियों को मिलने वाली सामान्य सुविधाएं जैसे-न्यूनतम
मजदूरी, काम के घंटों का
निर्धारण, सप्ताह में एक
दिन का अवकाश इत्यादि मिलनी चाहिए। बहुत से परिवारों में घरेलू कामगार महिलाओं के साथ अच्छा
व्यवहार भी किया जाता है। उनके सुख-दुख के समय वह परिवार साथ रहता है, मदद करता है।
लेकिन घरेलू
कामगार महिलाओं के साथ अत्याचार की घटनाऐं लगातार बढ़ रही हैं। उत्पीडन की घटनाऐं
उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग से ज्यादा आ रही हैं। इसका कारण इस वर्ग द्वारा
घरेलू कामगार के प्रति आपसी विश्वास की कमी, सामंती मानवीय स्वभाव, पैसा दे कर खरीदा गुलाम समझना, कम पैसे में
ज्यादा से ज्यादा काम कराने की मानसिकता आदि को माना जा सकता है। इसके अलावा शोषण
करने वाला वर्ग ज्यादातर ऊंची जातियों से होता हैं और घरेलू कामगार वर्ग ज्यादातर
छोटी जातियों से, इसलिए ऊंची
जातियों ये उत्पीडन-शोषण करना और इनसे न के बराबर मजदूरी में हाड़तोड़ मेहनत
करवाना बड़ी जातियां अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं।
घरेलू कामगार
महिलाऐं आजीविका के लिए सुबह से शाम तक लगातार कार्य करती है। अलसुबह उठ कर पहले
अपने घर का काम करती हैं उसके बाद वह घरों में काम करने जाती हैं। दिनभर काम करने
के बाद वापस घर आ कर अपने घर का काम भी करती है। उसे एक दिन की भी छुटटी ना तो
अपने घर के काम से और ना ही दूसरों के घरों के काम से मिल पाती है। काम के अत्यधिक
बोझ के कारण उसे अक्सर पीठ दर्द, थकावट, बरतन मांजने व कपड़े धोने से हाथों और पैर की ऊंगलियों में
घाव होने की शिकायत होती हैं, इसके बावजूद उसे काम करना पड़ता है। अगर उसका स्वास्थ्य
खराब हो जाये तो इलाज कराना मुश्किल हो जाता है क्योंकि सरकारी अस्पतालों में समय
ज्यादा लगता है और प्रायवेट अस्पताल में पैसे ज्यादा लगते हैं।
देश में लाखों
घरेलू कामगार महिलाऐं है लेकिन देश की अर्थव्यवस्था में इसे गैर उत्पादक कामों की
श्रेणी में रखा जाता है। इसी कारण देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के
योगदान का कभी कोई सही आकलन नहीं किया गया। जबकि इनकी संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा
रही है। इन महिलाओं को घर के काम में मददगार के तौर पर माना जाता है। इस वजह से
उनका कोई वाजिब एक सार मेहनताना नही होता है। यह पूर्ण रुप से नियोक्ता पर निर्भर
करता है।
घरेलू कामगार
महिलाऐं ज्यादातर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछडे़ और वंचित समुदाय से होती हैं।
उनकी यह सामाजिक स्थिति उनके लिए और भी विपरित स्थितियाँ पैदा कर देती है। इन
महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न, चोरी का आरोप, गालियों की बौछार या घर के अन्दर शौचालय आदि का प्रयोग न
करने, इनके साथ छुआछूत होना
जैसे चाय के लिए अलग कप एक आम बात है।
घरेलू कामगार
महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या उनका कोई संगठन का ना होना है। इस कारण अपने ऊपर होने
वाले अत्याचार का ये सब मिल कर विरोध नही कर पाती है, इनके मांगों को
उठाने वाला कोई नही है। घरेलू कामगारों को श्रम का बेहद सस्ता माध्यम माना जाता
है। संगठन ना होने के कारण इनके पास अपने श्रम को लेकर नियोक्ता के साथ मोलभाव
करने का ताकत नहीं होता है,
इसके कारण
नियोक्ता इनका फायदा उठाते हैं। इसी के चलते काम के दौरान हुई दुर्घटना, छुट्टी, मातृत्व अवकाश, बच्चों का पालना,घर, बीमारी की दशा
में उपचार जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं हो पाती है। यदि घर में काम करने वाले किसी
महिला के साथ नियोक्ता द्वारा हिंसा किया जाता है तो केवल पुलिस में शिकायत के
अलावा ऐसा कोई फोरम नहीं है जहां जाकर वे अपनी बात कह सकें और शिकायत कर सकें। कुछ
शहरों में स्वंयसेवी संस्थाओं द्वारा घरेलू कामगार महिलाओं के संगठन बने है और कुछ
जगह इस तरह के संगठन बनाने की ओर प्रयास किये जा रहे हैं।
देष में असंगठित
क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून (2008) है जिसमें घरेलू
कामगारों को भी शामिल किया गया है। लेकिन अभी तक ऐसा कोई व्यापक और राष्ट्रीय स्तर
पर एक समान रूप से सभी घरेलू कामगारों के लिए कानून नहीं बन पाया है, जिसके जरिये
घरेलू कामगारों की कार्य दशा बेहतर हो सके और उन्हें अपने काम का सही भुगतान मिल
पाये।
घरेलू कामगार को
लेकर समय समय पर कानून बनाने का प्रयास हुआ, सन् 1959 में घरेलू कामगार बिल (कार्य की परिस्थितियां) बना था, परंतु वह व्यवहार
में परिणित नही हुआ। फिर सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने 2004-07 में घरेलू
कामगारों के लिए मिलकर ‘घरेलू कामगार
विधेयक’ का खाका बनाया
था। इस विधेयक में इन्हें कामगार का दर्जा देने के लिए एक परिभाषा प्रस्तावित की
गयी थी “ऐसा कोई भी बाहरी
व्यक्ति जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किये जाने वाले भुगतान के बदले किसी घर
में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है तो स्थायी या अस्थायी, अंशकालिक या
पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जायेगा।” इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी, कार्यस्थल पर दी
जाने वाल सुविधाएं, काम के घंटे, काम से जुड़े
जोखिम और हर्जाना समेत सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है। लेकिन इस
विधेयक को आज तक अमली जामा नही पहनाया जा सका है। कार्यस्थल में महिलाओं के साथ
होने वाली लैंगिक हिंसा को रोकने के लिए देश में ‘‘महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न
(निवारण,प्रतिषेध तथा
प्रतितोष) अधिनियम 2013’’
बनाया गया है
जिसमें घरेलू कामगार महिलाओं को भी शामिल किया गया है।
मोदी सरकार ने कुछ
समय पहले ही घोषणा की है कि वे घरेलू कामगार के लिए एक विधेयक लाने वाले हैं। अगर
घरेलू काम करने वालों को कामगार का दर्जा मिल जाये तो उनके स्थिति बहुत बेहतर हो
सकेगी। वे भी गरिमा के साथ सम्मानपूर्ण जीवन जी सकेगीं। यह भी अन्य कामों की तरह
ही एक काम होगा ना कि नौकरानी का दर्जा।
महाराष्ट्र और
केरल जैसे कुछ राज्यों में घरेलू कामगारों के लिए कानून बनने से उनकी स्थिति में
एक हद तक सुधार हुआ है। मध्यप्रदेश ने घरेलू कामगार महिलाओं के जाब कार्ड बनवाये
हैं और उन्हें कई सामाजिक सुरक्षा जैसे बच्चों की शिक्षा ,कन्या की शादी, इत्यादी सुविधाऐं
दी जा रही हैं। लेकिन यह देश व्यापी नही है।
लेकिन जब तक
घरेलू कामगार महिलाऐं संगठित नही होगीं और अपने हक की लड़ाई के लिए स्वयं आगे नही
आयेगी,उन्हें वो सम्मान
मिलना मुश्किल है जो कि उनका हक है। साथ ही इन्हें मजदूर वर्गो के संघर्ष के साथ
भी अपने को जोड़ना होगा। फिर भी असली लड़ाई तो सामंती सोच के साथ है जिसे खत्म कर
अमीर गरीब, मालिक नौकर का
भेद खत्म करना होगा। तभी समाज में समानता आयेगी और इसके लिए समाज के सभी तबकों को
प्रयास करना होगा।
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