-राम पुनियानी



अहमदाबाद डेटलाइन से अखबारों में छपी खबरों (12 अप्रैल, 2015) के अनुसार, वहां के शाहपुर स्कूल, जिसके अधिकांश विद्यार्थी हिन्दू हैं, में गणवेश का रंग भगवा है और दानी लिमडा स्कूल, जहाँ मुस्लिम विद्यार्थियों का बहुमत है, यूनिफार्म हरे रंग की है। यह अत्यंत चैंकाने और धक्का पहुंचाने वाली खबर है। हम सब पहले से ही जानते हैं कि अहमदाबाद में मुसलमानों को उनके मोहल्लों में सीमित कर दिया गया है परंतु हालात इस हद तक बिगड़ चुके हैं, यह कल्पनातीत है। यह सब सन 2002 के गुजरात कत्लेआम के बाद से जारी समाज के सांप्रदायिकीकरण और ध्रुवीकरण की प्रक्रिया का नतीजा है और धार्मिक अलगाव व विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच भौतिक और मनोवैज्ञानिक दीवारें खड़ी हो जाने का शर्मनाक और दिल दहलाने वाला उदाहरण है।

यह प्रक्रिया वैसे तो पूरे देश में चल रही है परंतु गुजरात में वह अपने चरम पर है। यह सही है कि कुछ हद तक लोग उन इलाकों में रहना पसंद करते हैं जहाँ उनके समुदाय के लोगों की बहुसंख्या होती है। परंतु इस मामले में उत्तर भारत के महानगरों और छोटे शहरों में हालात बहुत खराब हो गए हैं। सांप्रदायिक आधार पर मोहल्लों का विभाजन, भयावह स्तर तक पहुँच चुका है। अहमदाबाद में 2002 के कत्लेआम के बाद से, अधिकांश मुसलमान, जो कि शहर की आबादी का 12 प्रतिशत हैं, जुहापुरा और शाह आलम क्षेत्रों में सिमट गए हैं। ये दोनों मुस्लिम-बहुल इलाके हैं। चाहे उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति कैसी भी क्यों न हो, मुसलमानों को मिश्रित आबादी वाले क्षेत्रों में मकान नहीं खरीदने दिया जाता। बैंक, मुस्लिम-बहुल इलाकों के रहवासियों को क्रेडिट कार्ड नहीं देते और न ही पिज़्ज़ा हट व अन्य ऐसी कम्पनियां अपने उत्पाद इन इलाकों में प्रदाय करतीं हैं।

भारत में मुस्लिम समुदाय की अपने पिंजरों में कैद होने की प्रक्रिया, सांप्रदायिक हिंसा के कई दुष्प्रभावों में से एक है और यह उसके समानांतर चलती रही है। किसी भी शहर पर सांप्रदायिक दंगे के व्यापक व दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं और उसके आसपास के कस्बे और नगर भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रह पाते। जिन भी शहरों में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई है वहां यही कुछ देखने को मिलता है। मुंबई, भागलपुर, जमशेदपुर और मुजफ्फरनगर में यह प्रवृति स्पष्ट नजर आती है। दिल्ली में क्या हालात हैं, यह इससे समझा जा सकता है कि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित व ‘‘उदारवादी’’ शिक्षण संस्थान के मुस्लिम शिक्षक तक मुस्लिम-बहुल इलाकों में रहना पसंद करते हैं। महानगरों में बड़े बिल्डर, अल्पसंख्यकों को रहवासी इमारतों में फ्लैट नहीं बेचते। मैं स्वयं प्रसिद्ध टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के एक प्रोफेसर को जानता हूँ जिन्हें उनके धर्म के कारण मकान नसीब नहीं हो सका।

मुंबई को देश का सबसे कॉस्मोपॉलिटन शहर माना जाता है, जहाँ विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग रहते हैं। परन्तु यहाँ भी प्रसिद्ध फिल्म कलाकार व सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आज़मी को मिश्रित आबादी वाले इलाके में मकान नहीं मिल सका। यही हाल एक अन्य फिल्मी हस्ती इमरान हाशमी का भी हुआ।

इस तरह की परिघटनाएं, एक लम्बी प्रक्रिया का नतीजा होती हैं और इनके चलते धर्म, लोगों की प्रमुख और एकमात्र पहचान बन जाता है। वह भारतीय नहीं बल्कि हिंदू या मुसलमान या ईसाई रह जाता है और यहाँ तक कि अपनी पसंद के घर में रहने का उसका अधिकार भी उससे छीन लिया जाता है। यह उन अलिखित नियमों के तहत होता है, जो सामाजिक तौर-तरीकों का हिस्सा बन जाते हैं। 

जहाँ तक विभिन्न लोगों के अपने-अपने मोहल्लों में सिमटने की प्रक्रिया का सवाल है, इस संदर्भ में कश्मीर घाटी में पंडितों को अलग बस्तियों में बसाने की योजना पर बहस जारी है। इस योजना का कई संगठनों और व्यक्तियों ने विरोध किया है क्योंकि अंततः इससे पंडित, अपनी बस्तियों में कैद होकर रह जायेंगे। कश्मीरियत की संस्कृति, जो कि घाटी में हिंदू-मुस्लिम सद्भाव का आधार थी, तो पहले ही पिछले दो दशकों से जारी हिंसा और अशांति की भेंट चढ़ गयी है। सरकार की यह नयी योजना इस अलगाव की भावना को और मजबूत ही करेगी।

अलग-अलग जातियों और पंथों को अलग-अलग बसाने की परंपरा पाकिस्तान में भी है। वहां तो राजनैतिक विमर्श ही संप्रदायों के इर्द-गिर्द घूमता है। अमरीका में अफ्रीकी-अमरीकियों की अलग बस्तियां हैं और ये उन पर हुए भीषण अत्याचारों की याद दिलाती हैं। पिछले कुछ वर्षों से कई विकसित देशों में उनके पूर्व उपनिवेशों से आने वाले अप्रवासियों की पृथक बस्तियां बन गयीं है। उन्हें उनके सामाजिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है और वे अपेक्षाकृत कम सुविधाओं वाली, गरीबों की बस्तियों में रहने के लिए मजबूर हैं।

सांप्रदायिक राजनीति के उभार से जनित इस सामाजिक अलगाव से हम कैसे निपटें? अपनी सिंगापुर यात्रा के दौरान मैंने वहां विशाल रहवासी काम्प्लेक्स देखे। मुझे बताया गया कि इन कॉम्प्लेक्सों में विभिन्न नस्लीय समूहों के लिए मकानों का निश्चित कोटा होता है। मलय, चीनी और तमिल मूल के लोगों के लिए इन आवासीय परिसरों में, आबादी में उनके अनुपात के अनुसार, मकान आरक्षित रहते हैं। इससे विभिन्न नस्लों के लोग एक-दूसरे के पडोसी बनते हैं, उनमें मेलजोल होता है और सामाजिक सद्भाव बढता है। और यहाँ भारत में हम स्कूली बच्चों के धर्म के आधार पर उनकी यूनिफार्म का रंग चुन रहे हैं! यहां एक और महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या कारण है कि स्कूलों में एक ही धर्म के बच्चे पढ़ रहे हैं? क्या इससे यह साफ नहीं हो जाता कि शहर, धर्म के आधार पर अलग-अलग इलाकों और बस्तियों में विभाजित हैं? क्या शहर का मुस्लिम इलाकों और हिंदू इलाकों में विभाजन, सांप्रदायिक सद्भाव की आत्मा और हमारे संविधान में निहित मूल्यों का हनन नहीं है? क्या यह बंधुत्व के भाव को चोट नहीं पहुंचाता?

हमें ‘‘दूसरे समुदाय’’ के बारे में व्याप्त मिथकों और पूर्वाग्रहों का खंडन करना होगा और आमजनों के मनोमस्तिष्क में पैठी गलत धारणाओं को मिटाना होगा। यही पूर्वाग्रह व गलत धारणाएँ, सांप्रदायिक हिंसा का आधार बनती हैं और उससे उपजता है सामाजिक अलगाव। यह दुष्चक्र चलता रहता है और अंततः नौबत यहाँ तक आ पहुँचती है कि हम अलग-अलग समुदायों का ‘‘सांस्कृतिक सीमांकन’’ कर देते हैं, जैसा कि इन दो स्कूलों के मामले में हुआ। अगर हमारी शिक्षा व्यवस्था में इस तरह की रूढि़बद्ध धारणाएँ घर करती गयीं तो हम भविष्य में कैसा समाज बनायेगें, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। जिस तरह की भौतिक और भावनात्मक दूरियां हममें बन रहीं हैं, वह देश की एकता के लिए एक बड़ा खतरा है। 

सांप्रदायिक हिंसा ने धार्मिक पहचान को तो मजबूती दी परंतु हमें सहिष्णुता व दूसरेको स्वीकार करना नहीं सिखाया, जो कि सभी धर्मों की मूल शिक्षाओं में शामिल है। मुझे याद है कि व्ही. शांताराम की 1946 में बनी उत्कृष्ट फिल्म पड़ोसीदेखने के बाद नम आखों के साथ, थिएटर से बाहर आते समय मैं यही सोच रहा था कि क्या कभी एक बार फिर भारत में हिंदू और मुसलमान इसी तरह मिलजुल कर रह पायेगें? क्या भारत की साँझा संस्कृति, जिसे हमने विरासत में पाया है, आज के विघटनकारी राजनैतिक वातावरण में जीवित रह सकेगी ?

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)