एल. एस. हरदेनिया
इस समय पाकिस्तान दुनिया के उन चंद
देशों में से है जहां धार्मिक सहिष्णुता लगभग समाप्त हो गई है। इसी तरह पाकिस्तान
में रहने वाले अल्पसंख्यक भी स्वयं को पूरी तरह असुरक्षित मानते हैं। प्रारंभ में
तो वहां हिन्दू और ईसाई अपने को असुरक्षित समझते थे परंतु अब वहां रहने वाले शिया और
अहमदियों के साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाने लगा है जैसा पिछले वर्षों से
हिन्दुओं और ईसाईयों के साथ होता रहा है।
अभी हाल में पाकिस्तान के गुजरानवाला शहर में एक वृद्ध महिला एक सात वर्ष की बच्ची और शिशु की हत्या कर दी गई। अहमदिया परिवार के
इन तीनों लोगों की हत्या एक हिंसक भीड़ ने की थी। हिंसक भीड़ अहमदियों से इसलिये
नाराज थी क्योंकि एक अहमदी युवक ने अपनी फेसबुक में ईश निंदा से संबंधित कुछ बातें
जारी की थीं।
यह घटना कोई अनोखी नहीं है। पिछले कई दशकों से वहां इस तरह की घटनायें आये दिन हो रही हैं। यह
दुर्भाग्य है कि पाकिस्तान में बढ़ती हुई यह असहिष्णुता और अल्पसंख्यक विरोध
पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना की नये राष्ट्र की परिकल्पना से पूरी
तरह विपरीत है। जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के समय जो भाषण दिया था उसमें
उन्होंने स्पष्ट कहा था कि हमारे देश में न तो हिन्दू रहेगा और ना ही मुसलमान।
यह स्थिति देश के नागरिक के संदर्भ में होगी क्योंकि धर्म का संबंध व्यक्ति की आस्था से है न कि देश की नागरिकता
से। अहमदी स्वयं को मुसलमान मानते हैं परंतु पाकिस्तान के परंपरागत धार्मिक नेताओं
का मानना है कि इनका इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं है। अहमदी मिर्जा गुलाम अहमद को
मसीहा मानते हैं। वे उन्हें अल्लाह का संदेश वाहक भी मानते हैं। अहमदियों की यह
विवेचना परंपरागत इस्लाम के मानने वालों की समझ के विरोधी है। उनकी इस मान्यता के
चलते उनके विरूद्ध आये दिन आंदोलन होते रहते हैं। इन आंदोलनों का उपयोग राजनीतिक
धु्रवीकरण के लिये किया जाता है। सर्वप्रथम 1953 में अहमदियों के ऊपर हिंसक हमले हुये थे। वर्ष 1974 में अहमदियों पर हिंसक हमलों का एक और दौर प्रारंभ हुआ। इस तरह के
आंदोलन के चलते पाकिस्तान की संसद ने संविधान में संशोधन कर अहमदियों को
गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया। संशोधन करते समय यह आशा प्रगट की गयी थी इसके बाद
अहमदियों के कट्टरपंथी मुस्लिम आलोचक शांत हो जायेंगे और उनके ऊपर हिंसक हमले बंद
हो जायेंगे। परंतु उनके विरूद्ध हिंसक हमले चालू रहे और यह प्रयास किया जाने लगा
कि वे या तो अपनी आस्था को त्याग दें या परंपरागत इस्लाम स्वीकार कर लें और यदि
ऐसा नहीं करते हैं तो वे पाकिस्तान छोड़कर चले जायें। पाकिस्तान के कट्टरपंथी इसी
तरह का रवैया अन्य अल्पसंख्यकों के बारे में भी अपनाये हुये हैं।
वर्तमान में उन्हें स्वयं को मुस्लिम कहने की इजाजत नहीं हैं और ना ही वे अपने पूजा स्थलों को मस्जिद कह सकते हैं। यदि वे इस
कानून का उल्लंघन करते हैं तो उनके विरूद्ध कानूनी कार्यवाही हो सकती है और उन्हें
सजा भी हो सकती है। एक तरफ उन्हें मुस्लिम नहीं माना जाता वहीं दूसरी ओर उन्हें वे
सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं जो अन्य गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को प्राप्त हैं।
वर्ष 2012 से 2013 के बीच में 54 बार अहमदियों के ऊपर हिंसक हमले हुये हैं। हमलों की इसी तरह की
श्रंखला में एक वृद्ध महिलाउसकी सात वर्ष की पोती और एक दुधमुही बच्चे की हत्या की
गई। इन तीनों का उस फेसबुक से कुछ लेना-देना नहीं था जिसमें कुछ ईश विरोधी बातें
लिखी गई थीं। यह भी एक सोचने की बात है कि फेसबुक में कुछ लिख दिये जाने से क्या
खुदा का कुछ बिगाड़ा जा सकता है, पाकिस्तान में रहने वाले कट्टरपंथी वहां रहने वाले
अल्पसंख्यकों का नामोनिशान समाप्त कर देना चाहते हैं। यह सिलसिला पाकिस्तान के
बनने के साथ प्रारंभ हो गया था जो आज तक जारी है। कट्टरपंथियों के इस दुराग्रह पूर्ण रवैये के कारण
भारी संख्या में हिन्दू और सिक्ख पाकिस्तान छोड़कर चले गये। यदि वे
पाकिस्तान में आज रहते होते तो 1941 की जनगणना के अनुसार भी उनकी आबादी का प्रतिशत 20 होता।
इसके बाद शनैः शनैः पाकिस्तान में कट्टरपंथियों का दबदबा बढ़ता गया। कट्टरपंथियों के इसी रवैये के कारण अहमदी भी गैर-मुसलमान माने जाने
लगे। इसके अतिरिक्त शियाओं पर भी मुसलमान होने पर इन कट्टरपंथियों ने प्रश्न चिन्ह
लगाना प्रारंभ कर दिया। ये कट्टरपंथी यह भूल गये कि पाकिस्तान की आबादी में शियाओं
का प्रतिशत 20 है। यदि इन कट्टरपंथियों का बस चले तो वे संविधान में संशोधन करके
शियाओं को भी गैर-मुस्लिम करार दे दें। कट्टरपंथी शायद भूल गये होंगे कि पाकिस्तान
के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना स्वयं शिया थे। शायद यह तथ्य शियाओं को
गैर-मुसलमान घोषित करने में सबसे बड़ी बाधा है।
जिहादियों को प्रशिक्षण देकर अफगानिस्तान के कम्यूनिस्टों और हिन्दू भारत के विरूद्ध काम करने के
लिये तैयार किया गया था। अब ये जिहादी स्वयं पाकिस्तान के लिये मुसीबत बन गये हैं।
पाकिस्तान में किसी की हिम्मत नहीं है जो इन पर नियंत्रण कर सके। अब ये जिहादी
पाकिस्तान में रहने वाले यहूदियों, हिन्दुओं और अब बरेलवी (जिन्हें साफ्ट सुन्नी समझा जाता है) के खून
के प्यासे हो गये हैं। इनकी हरकतों के कारण इस्लाम की प्रतिष्ठा पर भी धब्बा लगा
है। यह बताया गया है कि गुजरानवाला में की गई हत्याओं के बाद इन जिहादियों ने
नाच-गाकर जश्न मनाया। जैसे उन्होंने कोई युद्ध जीत लिया हो। सबसे दुखद बात यह है
कि यह खूनी अध्याय रमजान के पवित्र माह में लिखा गया था। उस रमजान के माह में सभी
मुसलमान प्रार्थना करते हैं और स्वयं द्वारा की गई किसी भी गलती के लिये क्षमा
मांगते हैं। उस हिंसक भीड़ की करतूत को जिसने एक वृद्ध महिला और बच्चों को मारा था टेलीविजन पर दिखाया गया और लोग उसे देखते रहे। सबसे दुःखद बात यह है
कि इस त्रासदी से भरपूर घटना की निंदा प्रधानमंत्री नवाज शरीफ समेत बड़े ओहदों पर
बैठे किसी पाकिस्तानी नेता ने नहीं की। अहमदियों के प्रति घृणा इस कदर बढ़ गयी है
कि जिहादीप्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. मोहम्मद सलाम के योगदान को सिर्फ इसलिए भूल गये
हैं क्योंकि वे अहमदी थे। डा. सलाम को उनके योगदान के लिये नोबल प्राइज भी मिला
था। उनकी मृत्यु के बाद उनकी कब्र में लिखा गया था “पहला नोबल पुरस्कार प्राप्त मुस्लिम” बाद में एक मेजिस्ट्रेट ने कहा कि कब्र पर लिखा “मुस्लिम” शब्द हदा देना चाहिये क्योंकि वे अहमदी थे और अहमदी मुसलमान नहीं है।
जब पाकिस्तान बना था उस समय उनसे मांग की
गयी थी कि अहमदियों को इस्लाम के मानने वालों की सूची से हटा दिया जाये। इस पर
जिन्ना ने कहा था यदि कोई स्वयं को मुस्लिम मानता है तो मैं कैसे फैसला कर सकता
हूं कि वह मुसलमान है कि नहीं। इस बारे में फैसला तो खुदा पर छोड़ दिया जाये। जब
पाकिस्तान बना था उस समय कराची को पाकिस्तान की अस्थायी राजधानी बनाया गया था। उस
समय कराची में सभी धर्मों के मानने वाले रहते थे। विभिन्न तरीकों से इस्लाम को
मानने वाले भी रहते थे। वास्तु के लिहाज से भी कराची में भारी विविधता थी और उनकी
पृथक मस्जिदें भी थीं। कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के चर्च भी थे। पारसी और यहूदियों
के पूजाघर भी थे। हिन्दुओं और जैनियों के मंदिर तो थे ही।
अब 67 साल के बाद पाकिस्तान का नक्शा ही बदल गया
है। कुछ चर्च हैं पर अब उनमें जाने वालों की संख्या नगण्य हो गयी है। पाकिस्तान
में रहने वाले ईसाई या तो उत्तरी अमरीका चले गये हैं या आस्ट्रेलिया। कम ही जैन और
हिन्दू मंदिर बचे हैं। कुछ मंदिरों की जमीन पर असामाजिक तत्वों ने कब्जा कर लिया है।
न किसी ने ऐसे तत्वों को रोका और ना ही किसी में उन्हें रोकने की हिम्मत है।
पाकिस्तान में धार्मिक सहिष्णुता समाप्त हो गयी है। किस हद तक वहां लोग असहिष्णु
हो गये हैं इसका जीता जागता उदाहरण पंजाब के गर्वनर सलमान तासीर की हत्या है।
सलमान तासीर की हत्या इसलिये की गई थी क्योंकि वे एक निस्सहाय ईसाई महिला की
सहायता कर रहे थे। इस महिला के ऊपर ईश निंदा का आरोप था। उनकी हत्या उन्हीं के एक
अंगरक्षक ने की थी। उस हत्यारे का जोरदार स्वागत किया गया। उसका स्वागत करने वालों
में वकीलों सहित अनेक पढ़े-लिखे मुसलमान भी शामिल थे।
एक स्वतंत्र मानव अधिकार आयोग के अनुसार पाकिस्तान की सबसे बड़ी समस्या असहिष्णुता को सहना है। इस
आयोग के निदेशक आई.ए. रहमान का कहना है कि जब तक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की
रक्षा की बात नहीं होगी पाकिस्तान की स्थिति ऐसी ही रहेगी। पाकिस्तान में ईश निंदा
से संबंधित कानून का उपयोग अल्पसंख्यकों के विरूद्ध होता है। इस कानून के चलते 2012 और 2013 के कुछ महीनों के बीच तथाकथित ईश निंदा की 200 घटनायें हुईं। इस दौरान 1800 से ज्यादा लोग आहत हुये हैं और 700 लोगों की हत्या की गई है।
पिछले वर्षों में हमारे दिमागों में
पाठ्यपुस्तकों टेलीविजन और अखबारों के माध्यम से हमें यह सिखाया गया है कि इस्लाम
ही एकमात्र पवित्र धर्म है और इस्लाम का वह स्वरूप ही पवित्र है जिसे वे पवित्र
मानते हैं। पाकिस्तान उस समय तक आधुनिक बहुआयामी देश नहीं बन सकता जब तक कि
पाकिस्तान इन प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों से छुटकारा नहीं पा लेता है।
यह लेख पाकिस्तान विदुषी फराहनाज़ इसपहानी द्वारा लिखे लेखक के आधार पर लिखा
गया है। वे पाकिस्तान की संसद की सदस्य रह चुकी हैं। वे पाकिस्तान की संसद की विदेशी
मामलों और मानव अधिकार से संबंधित कमेटी की सदस्य रही हैं। अभी हाल में उनकी एक किताब
छपी है जिसका शीर्षक है ”पाकिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यक” इनका लेख दिनांक 02 अगस्त 2014 के हिन्दू में छपा है।)
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