सुभाष गाताड़े
चार साल की बच्ची “खुशनुमा” की अब महज यादें बची हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब ठंड लग कर उसकी मौत हुई। सात भाई बहनों में सबसे छोटी
खुशनुमा शामली, उत्तर प्रदेश के किसी राहत शिविर
में रह रही थी, जहां उनका परिवार अन्य कई परिवारों के साथ
साम्प्रदायिक हिंसा के नाम पर अपने गांव से खदेड दिया गया था। अभी जैसे हालात हैं
उनमें उनका परिवार वापस जाने की भी नहीं सोचता। मुजफरनगर, शामली
एवं आसपास के इलाकों में दंगों की लपटें भले ही फिलवक्त थम गयी हों, मगर अभी तनाव बरकरार है। अख़बारों में प्रकाशित रिपोर्टों में इस बात के
विवरण छपे हैं कि खुशनुमा जैसे चालीस बच्चे इसी तरह से नफरत के सौदागरों के शिकार
हो चुके हैं।
दरअसल आजाद भारत में साम्प्रदायिक हिंसा या लक्षित हिंसा का का दायरा बढ़ता ही जा रहा है।
कब कौनसा शहर या मोहल्ला या कस्बा ऐसी हिंसा की जद में आएगा कहना मुश्किल है। अभी
पिछले साल तमिलनाडु के धरमपुरी जिले का “नाथम” एवं आसपास के गांव के दलित इलाके की
वर्चस्वशाली जाति “वनियारों” के संगठित हमले का शिकर बने, वजह बनी एक वनियार लड़की द्वारा दलित युवक से किए
प्रेमविवाह, इस घटना ने इतना तनाव पैदा
किया कि दलितों के सैकड़ों घरों को आग के हवाले किया गया।
मालूम हो कि संसद के शीतकालीन सत्र में पेश किए जाने वाले एक बिल का फोकस संगठित हिंसा की ऐसी तमाम
घटनाओं पर है, जब कहीं भाषाई अल्पसंख्यक तो कहीं
धार्मिक अल्पसंख्यक तो कहीं जातीय अल्पसंख्यक शिकार होने की घटनाएं सामने आती है।
मुंबई जहां रोजगार की तलाश में जाने वाले बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोगों पर
शिवसेना एवं महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का जो कहर समय समय पर बरपा होता रहता है,
या कर्नाटक में कभी तमिलभाषी “कन्नडिगा” अतिवादियों के निशाने पर आ
जाते हैं या कश्मीर में जिस तरह अल्पसंख्यक “पंडित” आबादी को खदेड़ा गया, ऐसी तमाम सम्भावित घटनाओं को मद्देनज़र रखते हुए यह बिल बनाया गया है।
प्रश्न उठता है कि एक लोकतंत्र में ऐसे तमाम अल्पमत आवाज़ों के लिए क्या कोई जगह बची
रहेगी, उनकी आवाजों को सुना जा सकेगा या उन्हें लोकतंत्र के
बहुसंख्यकवाद में हो रहे रूपान्तरण के मद्देनजर खामोशी ही कूबूल करनी पड़ेगी?
दरअसल प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की तरफ से इस बिल को लेकर जिस
किस्म का शोरगुल मचाया जा रहा है, उससे यही बात प्रतीत होती
है। इस महत्वपूर्ण विधोयक को 'हिन्दूविरोधी' विशेषण देने की
उनकी कोशिशों से दरअसल दो बातें स्पष्ट होती हैं : एक, अधिकतर लोगों ने बिल को धयानपूर्वक देखने की भी जहमत नहीं उठायी है
; दूसरे, वह साठ साल पूरे कर
चुके इस गणतंत्र के इस कड़वे यथार्थ से मुंह मोड़ रहे हैं कि संविधाननिर्माताओं की
गयी तमाम प्रतिबध्दताओं के बावजूद आज भी जाति, भाषा,
धर्म, नस्लीयता के नाम पर अल्पमत आबादी स्थान
स्थान पर जनंहिंसा का शिकार हो रही है और प्रशासनिक मशीनरी, सिविल
कहे जानेवाले समाज में हावी संकीर्ण विचार आदि का ऐसा खतरनाक गठजोड़ बना है कि कहीं
भी न्याय मयस्सर नहीं हो पा रहा है।
इसे एक संयोग कहा जा सकता है कि
प्रस्तुत बिल के संसद में रखने की चर्चाए तब जोर पकड़ रही हैं जब “नेल्ली” कतलेआम
के तीस साल पूरे हो रहे हैं। याद रहे कि असम आन्दोलन की पृष्ठभूमि में सामने आए
नेल्ली कत्लेआम के अन्तर्गत कुछ ही घंटों में लगभग तीन हजार लोगों को - सभी
मुस्लिम अल्पसंख्यक - मार दिया गया था। इस दंगे में शामिल किसी भी व्यक्ति को आज
तक सजा नहीं हुई। पिछले दिनों नेल्ली कत्लेआम पर जापानी विदुषी माकिको किमुरा की एक किताब आयी है, 'द नेल्ली मेसेकर आफ 1983' - जो उस पूरे घटनाक्रम पर और इन्साफ से आज तक जारी
इन्कार पर निगाह डालती है।
लक्षित हिंसा एवं साम्प्रदायिक हिंसा में इन्साफ को किस तरह नकारा जाता है, इसकी एक अन्य मिसाल देना यहां काफी होगा। 1969
में तमिलनाडु के किझेवनमनी गांव में हुआ दलितों का कत्लेआम।
तमिलनाडु के दलितों को तब हमले का शिकार बनाया गया जब उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी
की अगुआई में मजदूरी के लिए हड़ताल की थी, हड़ताल को दबाने के
लिए इलाके के भूस्वामियों ने गांव पर हमला किया और एक झोपड़े में अपनी जान बचा कर
भागे 42 लोगों - जिनमें महिलाएं एवं बच्चे शामिल थे - को मार
डाला था। गौरतलब है कि हमलावरों को सज़ा नहीं हुई। अदालत में विराजमान न्यायाधीशों
ने यह कहा कि 'इस बात पर यकीन नहीं किया जा सकता कि हमलावर
पैदल वहां तक पहुंचे होंगे।' इसी आधार पर केस खारिज कर दिया
गया।
आखिर क्या कहता है यह बिल। बिल के उद्देश्य में इस बात को स्पष्ट
तौर पर अंकित किया गया है कि वह 'अनुसूचित जाति,
अनुसूचित जनजातियों, किसी भी राज्य में
रहनेवाले धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ लक्षित हिंसा - जिसमें जनहिंसा
भी शामिल है' को निष्पक्षपाती एवं गैरभेदभावपूर्ण तरीके से
रोकने एवं नियंत्रित के लिए प्रतिबध्द है ताकि कानून के सामने सभी के समान होने एव
सभी के समान सुरक्षा के हकदार होने की बात की गारंटी की जा सके।
प्रस्तुत बिल पर लिखे अपने आलेख 'राइटिंग इन्स्टिटयूशनल बायस' अर्थात
'संस्थागत पूर्वाग्रहों को दूर करते हुए' सुश्री तीस्ता सितलवाड (द मिल्ली गेजेट, 16 नवम्बर 2013) में लिखती हैं कि 'यह कोई आश्चर्य नहीं जान पड़ता कि ऐसा प्रस्तावित
कानून जो बहुसंख्यकवाद, साम्प्रदायिकता एवं जातिगत
पूर्वाग्रहों के घातक प्रभावों को रेखांकित करता है, उसने
विवेकसंगत प्रतिक्रिया नहीं गरमाहट को जन्म दिया है।' वह बताती
हैं कि किस तरह इस मामले में 'सबसे तीखी
प्रतिक्रिया ऐसे संगठनों की तरफ से सामने आयी हैं जिन्होंने बहुसंख्यकवादी और
वर्चस्वशाली पूर्वाग्रहों को भड़का कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकी हैं, जो खुद हिंसा को अंजाम देने वाले रहे हैं।
अस्सी के दशक के बाद से जबसे देश में साम्प्रदायिकता का दावान
तेज हो चला है और अनुसूचित तबकों के खिलाफ हिंसा की घटने के बजाये बढ़ रही हैं .यह
बात भी देखने में आ रही है कि किस तरह
जातीय दंगाई या साम्प्रदायिक दंगाइयों ने पुलिस स्टेशनों को ही अपने नियंत्रण में
लिया है जब कानून व्यवस्था के रखवालों ने उन पर अंकुश कायम करने की कोशिश की है।
इस मामले में 2002 में गुजरात की घटनाएं एक आइना
प्रदान करती हैं, जिनमें यह आरोप लगे हैं कि जब अहमदाबाद में
दंगाइयों की भीड़ सुनियोजित तरीके से हिंसाचार में लिप्त थी, उस
वक्त मुख्य पुलिस नियंत्रण कक्ष में मोदी सरकार के दो वरिष्ठ मंत्री मौजूद थे,
जिन्होंने चाहे गुलबर्ग सोसायटी की घटनाओं या नरोदा पाटिया की
घटनाओं को होने दिया, समय रहते मदद नहीं पहुंचने दी।
अगर हम भारत में विगत कुछ दशकों में तेज हो चली साम्प्रदायिक एवं
लक्षित हिंसा की घटनाओं को देखें तो यह बात देखने में आ रही है कि कानून व्यवस्था
की हिफाजत में तैनात मशीनरी की सक्रियता, संलिप्तता
या निष्क्रियता से बहुत कुछ तय होता है। यहां तक कि यह भी देखने में आया है कि
राज्य प्रशासन का दंगों के प्रति जैसा भी रूख हो जिला स्तर पर प्रशासन में बैठे
अधिकारियों के रूख पर बहुत कुछ निर्भर करता है। उदहारण के लिए वर्ष 2002 में
गुजरात में जिस तरह राज्य सरकार की अकर्मण्यता या संलिप्तता सामने आयी उन तूफानी
दिनों में भी, भावनगर जैसे कुछ इलाके ऐसे बचे रहे, जहां हिन्दुत्ववादी ताकतें माहौल को बिगाड़ नहीं सकीं क्योंकि वहां तैनात
राहुल शर्मा जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसर ने कानून के हिसाब से काम किया, वही सिलसिला हम 1984 के सिख विरोधी दंगों में या 1992-93
के दंगों में देखते हैं। यह अकारण नहीं कि लगभग बीस साल पहले एक
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी - जिन्होंने भारत में साम्प्रदायिक दंगों को लेकर किताब भी
लिखी - एवं जिन्हें दंगों को नियंत्रिात करने का अच्छा अनुभव था, उन्होंने साफ कह दिया था कि 'अगर पुलिस चाहे तो कोई
भी दंगा 24 घंटे से अधिक नहीं चल सकता।'
मालूम हो कि इस बिल में कई ऐसी नयी बातें हैं जो इस स्थिति को
ही सम्बोधित करने की कोशिश करती हैं। ऐसी बातें इसके पहले के कानूनों से अनुपस्थित
रही हैं, जिसमें सरकारी कर्मचारियों - खासकर कानून व्यवस्था का जिम्मा सम्भालनेवाले
अधिकारीगणों की - जवाबदेही का प्रश्न अनुपस्थित रहता आया है। यूं तो कर्तव्य में
लापरवाही की बात इसके पहले के कानूनों में शामिल रही है, मगर
पहली दफा इसमें कमाण्ड रिसपॉन्सिबिलिटी अर्थात सबसे जिम्मेदार व्यक्ति की
संलिप्तता पर फोकस है। मसविदा बिल में लिखा
गया है :
''जहां यह दिखाया जा सके कि व्यापक
या सुनियोजित तरीके से गैरकानूनी गतिविधि को अंजाम दिया गया है, इस बात को माना जाएगा कि यह मान लिया जाएगा कि वह जिम्मेदार अधिकारी जिसके
जिम्मे साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा को रोकने, उसकी देखरेख
का काम था, उसने निगरानी नहीं बरती और वह जिम्मेदारी में
उल्लंघन का दोषी है।''
कहने का तात्पर्य अगर आइन्दा कोई
वरिष्ठ अधिकारी '1984 की दिल्ली'
या '2002 के गुजरात' या '1986
के हाशिमपुरा' जैसी घटनाओं के सामने आने के
बाद महज कनिष्ठ पदों पर तैनात अफसरों को 'बली का बकरा'
बना कर बेदाग नहीं रह सकता, उस पर भी कार्रवाई
होगी तथा कमसे कम दस साल की सज़ा उसे काटनी होगी।
दूसरी महत्वपूर्ण बात जो देखने में आयी है, वह दंगों में संलिप्त रहे अधिकारियों के खिलाफ
कार्रवाई करना अब तक कानून में मुश्किल रहा है क्योंकि उसके लिए राज्य सरकार से
अनुमति लेनी पड़ती है। अपराध दंड संहिता की धारा 197 के
अन्तर्गत - जो उपनिवेशकाल से हमारे यहां चली आयी है - अधिकारी पर कार्रवाई के लिए
सरकार से यह इजाजत लेनी पड़ती है, जो आम तौर पर मिलती नहीं।
यह प्रस्तावित बिल इस बाधा को एक तरह से दूर करता है। अन्य अपराधों के लिए सरकार
ने अगर तीस दिन के अन्दर अनुमति नहीं दी या खारिज नहीं की, तो
अपने आप यह मान लिया जाएगा कि उसने अनुमति दी है।
तीसरी महत्वपूर्ण बात, नुकसान
की भरपाई से सम्बधित है, जिसमें मुआवजे एवं पुनर्वास के ठोस
नियम बनाए गए हैं इसका अब मानकीकरण किया जा रहा है, जो किसी
खास सरकार की इच्छा पर नहीं बल्कि तार्किक आधार पर तय होगा। स्पष्ट है कि अब यह
किसी सरकार के रहमोकरम पर निर्भर नहीं रहेगा। इतनाही नहीं यह नियम सभी के लिए हैं
चाहे वह ''बहुसंख्यक'' समुदाय का हो या
''अल्पसंख्यक'' समुदाय का हो। विधोयक
सरकार को वैधानिक रूप से मजबूर करता है कि वह किसी भी हालत में एक महीने के अन्दर
मुआवजे का भुगतान करे।
चौथी महत्वपूर्ण बात, यह भी विदित है कि साम्प्रदायिक या लक्षित हिंसा के
बहुत पहले से ही अल्पसंख्यक या कमजोर समुदाय के खिलाफ नफरत भरे भाषणों, बयानबाजी के जरिए माहौल का विषाक्त किया जाता है। यूं तो भारतीय दण्ड
विधान की धारा 153 ए के तहत ऐसे भडकाउ वक्तव्य के लिए सज़ा
तजवीज की गयी है, लेकिन बिल ने नफरत भरे प्रचार को नए सिरे
से परिभाषित किया है। इसके अलावा उसने कई अन्य अपराधों को फिर से परिभाषित किया है
- यंत्रणा, लैंगिक हिंसा, कर्तव्य न
निभाना, संगठित एवं लक्षित साम्प्रदायिक हिंसा।
प्रस्तुत बिल पर अन्तिम राय बनाने के पहले सभी को 2002 की
घटनाओं पर फिर एक बार गौर
करना चाहिए, जब राज्य की कथित संलिप्तता या
अकर्मण्यता के चलते आधिकारिक तौर पर एक हजार से अधिक लोग साम्प्रदायिक हिंसा में
मारे गए थे, आज भी हजारों लोग अपने घरों को लौट नहीं
सके हैं। क्या 21 वीं सदी में भारत की बनती ऐसी छवि जहां
जनअपराधों को आसानी से जज्ब किया जाता है, हमें
मंजूर है ?
अगर नहीं तो हमें इस बिल को संसद में रखने के लिए
अपनी आवाज़ बुलन्द करनी चाहिए। अगर बिल के कुछ प्रावधानों को लेकर कुछ संशोधन हों
तो उन पर चर्चा अवश्य चलती रहे।
हमें यह तय करना है कि इक्कीसवीं सदी
में 2002 की घटनाएं कभी नहीं !
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