एल.एस. हरदेनिया
यह दुःख की बात है कि राष्ट्रीय एकता परिषद की भूमिका
मात्र फायर ब्रिगेडी रह गई है। परिषद की 23 सितंबर की बैठक उत्तरप्रदेश में हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद बुलाई गई। इस
परिषद में 148 सदस्य हैं।
148 सदस्य वाली संस्था की बैठक सिर्फ एक दिन में संपन्न
हो गई। इन सदस्यों में से वे ही बैठक में बोल सके जो प्रमुख पदों पर या राजनीतिक दलों
के नेता हैं। ये सब नेता लगभग उसी भाषा में बोले जिसमें वे रोज बोलते हैं। इस बड़े
संगठन का नाम है राष्ट्रीय एकता परिषद। परन्तु एकता परिषद की बैठक में एक मिनट भी इस
मुद्दे पर विचार नहीं हुआ कि राष्ट्रीय एकता कायम रखने के लिए क्या उपाय किए जाएं।
पूरी बैठक में लगभग सतही बातें हुईं।
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने परिषद की बैठक को
संबोधित करते हुए कहा कि सरकार को सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई
करनी चाहिए, फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों। अगर
किसी भी पार्टी का कोई भी व्यक्ति इस तरह की घटनाओं में संलिप्त पाया जाता है तो उसे दंडित किया जाना चाहिए।
उन्होंने सांप्रदायिक हिंसा भड़काने में सोशल मीडिया
के दुरूपयोग पर भी चिंता जताई। गौरतलब है कि केंद्र सरकार पहले भी सोशल मीडिया पर लगाम
कसने की बात कह चुकी है। अब जबकि चुनाव करीब हैं तो सरकार बंदिशें लागू कर सकती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि सांप्रदायिक
हिंसा को भड़काने में सोषल मीडिया का इस्तेमाल किया गया है। पूर्व में पूर्वोत्तर के
लोगों के खिलाफ हिंसा भड़काने में इसका इस्तेमाल हुआ था। हमें सोशल मीडिया का दुरूपयोग
रोकने का रास्ता तलाशना होगा। पीएम ने कहा कि हाल के सांप्रदायिक हिंसा के पीछे कुछ
ऐसी नकली वीडियो का फैलाव सामने आया है जिससे सौहार्द बिगड़ा। पिछले साल उत्तर पूर्व
में भी इसी तरह से सोशल मीडिया का गलत इस्तेमाल हुआ था। सोशल मीडिया से युवाओं को जानकारी
मिलती है। मुझे उम्मीद है कि सोशल मीडिया के दुरूपयोग को रोकने के लिए भी आज चर्चा
होगी।
प्रधानमंत्री और अन्य वक्ताओं ने साम्प्रदायिक घटनाओं
को भड़काने में सोशल मीडिया की भूमिका की बात बार-बार की पर वे यह भूल गए कि जब सोशल मीडिया का अस्तित्व नहीं था उस समय भी दंगे होते थे। इसलिये अकेले
सोशल मीडिया के दंगों के लिए दोशी मानना असली कारणों से भागना होगा। हमें इस बात को
स्वीकार करना होगा कि समाज में जो भावनात्मक एकता रहना चाहिए उसका पूरी तरह से अभाव
है। विभिन्न धर्मों के मानने वाले एक दूसरे को संदेह की नजर से देखते हैं। देश में
आये दिन इस तरह की बातें कही और लिखी जाती हैं, जिससे विभिन्न धर्मावलंबियों में मतभेद
की खाई बढ़ती जा रही है। एक जमाने में शहरों में मिले-जुले मुहल्ले होते थे। हिन्दू के
पड़ोस में मुसलमान और मुसलमान के पड़ोस में हिन्दू रहता था। अब ऐसी स्थितियां बहुत
कम बची हैं। जो आपसी सौहार्द था उसमें भारी कमी आई है।
इसके साथ ही दोनों धर्मों के मानने वालों के बीच
कुछ ऐसे तत्व हैं जो दिन रात फूट फैलाने वाली बातें करते हैं। इस तरह का प्रचार सतत
होता रहता है। वही प्रचार किसी दिन विस्फोटक रूप धारण कर लेता है। एक तरफ जहां बांटने
वाले लोग सतत सक्रिय रहते हैं वहीं जोड़ने वाले तत्व या तो तटस्थ हो जाते हैं या
पूरी तरह से उदासीन। इसके कारण मतभेद की खाई बढ़ती जा रही है।
साम्प्रदायिक सौहार्द की नींव धर्मनिरपेक्षता पर
खड़ी है। पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने प्रत्येक भाषण में धर्मनिरपेक्षता का महत्व समझाते
थे। अब तो कांग्रेस नेता और अन्य पार्टी के नेता धर्मनिरपेक्षता की बात भूलकर भी नहीं
करते। राजनीतिक नेता इस बात को भूल जाते हैं कि यदि धर्मनिरपेक्षता कमजोर होती है तो
लोकतंत्र की जड़े भी कमजोर होंगी।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में एक बात यह कही कि
साम्प्रदायिक दंगों से किसी का लाभ नहीं होता है। प्रधानमंत्री के इस मत से सहमत होना
कठिन है। अनुभव बताता है कि साम्प्रदायिक दंगों के बाद धु्रवीकरण की स्थिति निर्मित
होती है। धु्रवीकरण के कारण मतदाताओं का भी ध्रुवीकरण होता है। इस ध्रुवीकरण का लाभ
उन पार्टियों और व्यक्तियों को मिलता है जो साम्प्रदायिकता की राजनीति करते हैं। इस
संबंध में अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। हमारी तो राय है कि दंगे इसलिये ही भड़काये जाते हैं जिससे राजनीतिक
ध्रुवीकरण हो और फिर उसका लाभ चुनाव में लिया जा सके।
प्रधानमंत्री ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही कि साम्प्रदायिक
स्थिति से निपटने की प्रमुख जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। यह बात इसलिये भी
सही है क्योंकि कानून व व्यवस्था राज्यों की विषय सूची में शामिल है। जहां यह बात सिद्धांततः
सही है कि साम्प्रदायिकता पर नियंत्रण पाना राज्य सरकार का उत्तरदायित्व है वहीं इस बात से भी इंकार नहीं किया
जा सकता कि यदि राज्य सरकार स्थिति पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है तो केन्द्र सरकार
मूक दर्शक नहीं बनी रह सकती है। आवष्यकता पड़ने पर उसे सीधे हस्तक्षेप करना चाहिए।
अमरीका में अनेक बार वहां की फेडरल पुलिस ने राज्यों में हस्तक्षेप किया है।
राज्यों में जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक की महत्वपूर्ण
भूमिका रहती है। इन अधिकारियों की नियुक्ति के अलावा केन्द्र सरकार का आई.ए.एस. और
आई.पी.एस. अधिकारियों पर सीधा नियंत्रण रहता है। केन्द्र को चाहिए कि वह ऐसे सख्त नियम
बनाए जिससे दंगों की स्थिति में कलेक्टर और एस.पी की जिम्मेदारी तय हो और असफल होने
पर सख्त सजा दी जाए।
एक और क्षेत्र ऐसा है जिसमें केन्द्रीय सरकार की
प्रमुख भूमिका है। उसका संबंध साम्प्रदायिक दंगों से निपटने के लिये और सख्त कानून
बनाने से है। पिछले आठ वर्षों से इस बारे में विचार विमर्श चल रहा है। श्रीमती सोनिया
गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार कमेटी ने एक ताकतवर कानून का मसौदा भी तैयार
कर लिया था। इस मसौदे पर पूरे देश में चर्चा हो चुकी है। उसके बावजूद उस मसौदे पर आधारित
कानून अभी तक नहीं बनाया गया है। यह इस बात का प्रतीक है कि केन्द्र सरकार इस मुद्दे
पर कितनी गंभीर है।
आवश्यकता इस बात की है कि परिषद को और क्रियाशील
बनाया जाए। परिषद की कुछ उप-समितियां बनाई जाएं जो साम्प्रदायिकता से संबंधित विभिन्न
पहलुओं पर विचार करें और उनका हल निकालें तभी इस परिषद की उपयोगिता होगी अन्यथा वह एक औपचारिकता पूरी करने का
बहाना बनी रहेगी।
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