अनिल चमड़िया

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इस समय देश में जो हालात हैं, उन्हें भूमंडलीकरण की नीतियों के नतीजे के रूप में देखा जा रहा है और भ्रष्टाचार, महंगाई, बढ़ती गरीबी ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें लेकर पिछले चार-पांच साल से लगातार आंदोलन हो रहे हैं।
 मतदाताओं में कांग्रेस को लेकर गहरी निराशा है, फिर भी भाजपा नरेंद्र मोदी के चेहरे और जुमलों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर जोर दे रही है। मोदी लोकसभा चुनाव में संघर्ष की पृष्ठभूमि खुद को हिंदू राष्ट्रवादी घोषित कर तैयार कर रहे हैं।  
क्या संघ को केंद्र में भाजपा की सरकार नहीं चाहिए? नरेंद्र मोदी को हिंदुत्ववाद के विस्तार का चुनावी अगुआ मान कर उन्हें मैदान में उतारा जा रहा है? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लगता है कि सरकार बनने की स्थिति नहीं है और इस चुनाव का इस्तेमाल हिंदुत्व की विचारधारा के सामाजिक आधार को बनाने में ही किया जाना बेहतर होगा? ऐसे कई सवालों के लिए पुख्ता आधार हैं।
 पहली बात तो यह कि दल (एकी) ने नरेंद्र मोदी की अगुआई में चुनाव लड़ने का फैसला होने के पूर्व ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग होने की चेतावनी दे दी थी, लेकिन उसकी भी परवाह नहीं की गई। भाजपा के साथ राजग में संसद में एक बहुत छोटे समूह की हैसियत रखने वाली शिवसेना और अकाली दल ही रह गए हैं। लिहाजा संघ के लिए यह चुनाव हिंदुत्व की विचारधारा के सांगठनिक आधार को पहले के मुकाबले ज्यादा मजबूत करने का अवसर है। तो क्या कांग्रेस को हराने के बजाय उसका उद््देश्य कांग्रेस को कमजोरी की हालत में बनाए रखने का है

मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करने की संघ और भाजपा की रणनीति से सबसे ज्यादा राहत कांग्रेस को मिलती दिख रही है। कांग्रेस के खिलाफ असंतोष के जो कारण अब तक मौजूद रहे हैं, वे सांप्रदायिकता के मुद््दे से ढंक जाते हैं। कांग्रेस को भ्रष्टाचार और महंगाई से संबंधित सवालों का जवाब देने की जरूरत नहीं रह जाती। बल्कि कांग्रेस यह सवाल खड़ा करने की स्थिति में खड़ी होती है कि क्या मुल्क को सांप्रदायिक तत्त्वों के हाथों में सौंप दिया जाए। 

लोकसभा चुनाव में मुसलिम वोट बड़ी अहमियत रखते हैं। वे ये यह पूछ सकते थे कि आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को क्यों झूठे मामलों में क्यों फंसाया जाता रहा है, सच्चर आयोग की रिपोर्ट के मद्देनजर क्या किया गया, मुसलमानों के हालात दूसरी कमजोर जातियों की तरह लगातार खराब होते जा रहे हैं। अब कांग्रेस को ऐसे सवालों से बचने में आसानी होगी।
दूसरे, गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करने के लिए जो ताकत मिली है वह कांग्रेस के दौर में ही बढ़ी है। आखिर इस ताकत के आधार क्या हैं? जबकि मोदी को गुजरात के अलावा किसी भी राज्य के चुनाव प्रचार में सफलता नहीं मिली। 

इसके बरक्स एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह उभर कर सामने आया है कि नरेंद्र मोदी को हिंदुत्ववाद के साथ पिछड़ी जाति के नेता के रूप में भी पेश किया जा रहा है। भाजपा-संघ की यह समझ बनी है कि पिछड़ों के बीच पिछड़ों और अति पिछड़ों के नेता के रूप में मोदी को पेश किया जाए है तो इन तबकों का समर्थन उन्हें मिल सकता है। अगर पिछड़ों-दलितों के प्रति संघ और भाजपा के पिछले बीसेक सालों के इतिहास पर नजर डालें तो यह बात उभर कर सामने आती है कि 1991 में केंद्र सरकार द्वारा पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू करने के फैसले का हिंदुत्ववादी विरोध करने के बाद इन संगठनों ने पिछड़ों के बीच जातिवाद को तेजी से बढ़ाया है। जातिवाद से ब्राह्मणवाद सुरक्षित रहा है। 

संदर्भ के तौर पर, विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की अनुशंसाओं के तहत सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण देने का जब फैसला कर लिया तब लालकृष्ण आडवाणी ने हिंदुत्व की एकता पर खतरा बताते हुए सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा निकाली थी और समर्थन वापस लेकर वीपी सिंह की सरकार गिरा दी थी। आडवाणी की रथयात्रा से मुल्क में सामाजिक स्तर पर विभाजन हुआ और कई जगह दंगे भड़के। मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्व का हमला केंद्र में कांग्रेस की सरकार के होने के बावजूद बाबरी मस्जिद के विध्वंस तक पहुंच गया। अब वही संघ और उसकी पार्टी लालकृष्ण आडवाणी को पीछे छोड़ कर नरेंद्र मोदी को पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। 

दरअसल, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद देश पिछड़े वर्ग की जातियों और दलितों के बीच जो उभार हुआ उसमें उनकी राजनीतिक आकांक्षा मजबूत हुई। उनमें यह खयाल पैदा हुआ कि प्रधानमंत्री कोई पिछड़ा और दलित भी हो सकता है। कई प्रदेशों में तो पिछड़ों और दलितों का नेतृत्व ही एक दूसरे का प्रतिद्वंद्वी बन कर उभरा है। संघ ने मंडल आयोग के इस उभार को समझा और हिंदुत्व में ब्राह्मण के बजाय ब्राह्मणवाद की सत्ता को बचाने का एक फार्मूला निकाला। इस फार्मूले को सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया गया। सोशल इंजीनियरिंग का मतलब पिछड़े वर्ग की जातियों के प्रतिनिधियों को सत्ता कीप्रमुख जगहों पर बैठाना। इनमें बंगारू लक्ष्मण को पार्टी अध्यक्ष बनाने से लेकर कल्याण सिंह, उमा भारती आदि को मुख्यमंत्री बनाने के फैसलों को याद किया जा सकता है। 

सोशल इंजीनियरिंग से संघ और हिंदुत्व की विचारधारा को यह फायदा हुआ कि न केवल ब्राह्मणवाद का विरोध थम गया, बल्कि ब्राह्मणवाद का आधार विकसित होता दिखाई देने लगा। पिछड़े वर्ग की जो जातियां और दलित हिंदुत्व की विचारधारा का विरोध उस पर ब्राह्मण वर्चस्व के कारण करते थे, उनमें से कइयों को ब्राह्मणवाद का मुखर सिपाही बना देने में संघ को कामयाबी मिली। सांप्रदायिक हमलों में भी उनकी भूमिका बहुत बढ़ी है। हिंदुत्व की विचारधारा में जिस कट्टरता की बात की जाती है उसके सभी प्रमुख किरदार पिछड़े वर्ग से ही आते हैं। कल्याण सिंह कीही सरकार के दौर में बाबरी मस्जिद गिराई गई थी और नरेंद्र मोदी की सरकार के दौरान गुजरात दुनिया के सबसे बड़े कत्लगाह के रूप में तैयार किया जा सका। 

हिंदुत्ववाद मूलत: ब्राह्मणवादी विचारधारा है। हिंदुत्व का संबोधन उसके सामाजिक आधार को विस्तारित करने की एक रणनीति है। इसका लक्ष्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अन्याय को सांप्रदायिकता की आड़ में दबाना है। कश्मीर के मुद्दे को मुसलमानों के मुद्दे के रूप में स्थापित करने की जो कोशिश श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व के समय संघ और जनसंघ ने की थी वह आज उसी रूप में दिखने लगी है। जबकि कश्मीर का मुद्दा भारत के गणतांत्रिक देश बनने के तौर-तरीकों पर राजनीतिक सवाल खड़ा करने वाला मुद््दा रहा है। राष्ट्र या राज्य के राजनीतिक मुद््दों को या सामाजिक-आर्थिक असमानता को सांप्रदायिक मुद्दों में तब्दील करना हिंदुत्ववाद के उद्देश्य को पूरा करता है। गुजरात में ही 1980 के दशक में जब पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया गया था, तब मुसलमानों के खिलाफ तत्काल दंगे शुरू करा दिए गए थे। नरेंद्र मोदी को गुजरात में सफल हिंदुत्ववादी इसीलिए माना जाता है, क्योंकि न केवल मुसलमानों पर हमले की खुली छूट दी गई, बल्कि श्रमिक जातियों को भी औकात में रहना सिखाया गया है। सरकारी तौर पर तय न्यूनतम मजदूरी देश में सबसे कम गुजरात में है। 

जब यह कहा जाता है कि संघ के लिए महत्त्वपूर्ण विचारधारा है तो उसकी विचारधारा के विस्तार को मापने की कसौटी क्या होती है? विचारधारा को हम संसदीय राजनीति की भाषा में मापने लगते हैं। भाजपा की सीटों के कम होने और ज्यादा होने से संघ की ताकत का आकलन किया जाता है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब सिख विरोधी दंगे हुए तो संघ ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया था। भाजपा को तब महज दो सीटें मिली थीं। लेकिन उसके बाद बाबरी मस्जिद को ढहाने की स्थिति में हिंदुत्ववाद की फौज पहुंच गई। संघ की यह रणनीति है कि वह अपनी विचारधारा का सांगठनिक आधार मजबूत करे। 1971 में पाकिस्तान के बंटवारे और उसमें इंदिरा गांधी की अगुआई में कांग्रेस की भूमिका को हिंदुत्व की जीत के रूप में दर्ज कराने के इरादे से संघ ने खुद को कांग्रेस में घुसा लिया था। जब कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार और इंदिरा गांधी की निरंकुशता के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ और सत्ता में आने की गुंजाइश बनी तो संघ ने खुद को जनता पार्टी में मिला लिया। 
वर्ष 1980 में जनता पार्टी से निकल कर जनसंघ ने भाजपा का चोला धारण किया। भाजपा ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने का इरादा जाहिर किया और गांधीवादी समाजवाद का नारा लगाया। उस समय जगजीवन राम ने हरिजन नेता के रूप में उपेक्षा किए जाने का आरोप लगाया था। संघ अपनी विचारधारा के विस्तार के अवसर तलाशता है। हिंदुत्व में कट्टर और नरम का कोई अर्थ नहीं है। विचारधारा के रूप में उसका एक ढांचा पहले से बना हुआ है जिसमें इंसान-इंसान के बीच भेद की कई तरह की भावनाएं हैं। खुद को सर्वश्रेष्ठ मान कर दूसरे धर्मों से घृणा के पाठ वहां मौजूद हैं। 

मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद संघ और उसके चुनावी संगठन लगातार पिछड़े वर्गों और दलित जातियों के बीच जातीय आधार पर गोलबंदी करने में सक्रिय रहे हैं। पिछड़े, दलित और आदिवासी कई-कई जातियों के समूह हैं। एक जाति के नेतृत्व के खिलाफ दूसरी जातियों में गोलबंदी करना आसान हो जाता है और उन्हें हिंदुत्ववाद के आधार पर संगठित किया जाता है। उनके बीच हिंदुत्ववाद की पैठ बनाने के लिए मिथकों और पैराणिक कथाओं की मनमानी व्याख्याएं की गई हैं और कई झूठी कहानियां भी गढ़ी गई हैं। इस देश में पिछड़े-दलितों और आदिवासियों को ब्राह्मणवादी विचारधारा से लैस किए बिना हिंदुत्ववाद के विस्तार की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि लड़ने, खपने, श्रम करने की ताकत के अलावा उनकी संख्या भी ज्यादा है। नरेंद्र मोदी के बारे में जितने तरह के प्रचार हो रहे हैं, उन सभी को एक जगह जमा कर लें तो संघ द्वारा मोदी के इस इस्तेमाल का मतलब समझा जा सकता है।