नंदिता दास
मैंने सोचा नहीं था कि गोरा बनाने वाले सौंदर्य प्रसाधनों के खिलाफ चेन्नै की स्वयंसेवी संस्था ‘वुमन ऑफ वर्थ’ ने इंटरनेट पर ‘डार्क इज ब्युटिफुल’ नामक जो अभियान शुरू किया था वह इतना लोकप्रिय हो जाएगा। इस संस्था ने इस अभियान की ‘पोस्टर गर्ल’ यानी उसका चेहरा बनने के लिए मुझसे जब आग्रह किया था, तब मैं अपने नजरिये की वजह से हां कह दिया था। इस अभियान का नारा है: ‘स्टे अनफेयर, स्टे ब्युटिफुल’ यानी सांवली बनी रहो, खूबसूरत बनी रहो। मुझे बहुत खुशी है कि यह मुहिम सफल साबित हो रही है। फिल्मी सितारे तमाम तरह की चीजों का विज्ञापन करते हैं, जिन्हें वे खुद कभी इस्तेमाल नहीं करते। अभिनेत्रियां और मॉडल्स गोरा बनाने वाली क्रीम का वर्षों से विज्ञापन करती रही हैं। यह उनका फैसला है। हम न तो इतिहास को दोष दे सकते हैं, न बाजार की ताकतों को... यह तो दरअसल समाज के नजरिये का मामला है। दुश्मन इस तरह के सौंदर्य प्रसाधन नहीं बल्कि हमारा अपना दिमाग, अपना सोच है। स्त्री के प्रति अनादर का भाव कई रूपों में सामने आता है। यह सोच भी उसी का एक रूप है, और यह हर वर्ग में पाया जाता है।
सशक्त अभिनय करने वाली लेकिन सुंदरता के कथित पारंपरिक पैमानों पर खरी न उतरने वाली अभिनेत्रियों को काफी संघर्ष करना पड़ा है। उदाहरण के लिए स्मिता पाटील को ही लीजिए, जिन्हें कभी-कभी तो भेदभाव के कारण रोना तक पड़ा था। साधारण दिखने वाले अभिनेताओं को भी थोड़ा संघर्ष करना पड़ता है लेकिन वे फिल्मों में हीरो बन जाते हैं। मेरा अपना अनुभव यह है कि प्राय: मुझे इस तरह की टिप्पणियां सुननी पड़ी हैं कि ‘आप इतनी काली हैं फिर भी आपमें इतना आत्मविश्वास क्यों है...हमें मालूम है कि आप हल्का मेकअप पसंद करती हैं लेकिन बात मानिए, आप एक उच्चमध्यवर्गीय किरदार को परदे पर पेश कर रही हैं...’ जब से मैं सार्वजनिक जीवन में आई हूं और मेरे बारे में चर्चाएं होने लगी हैं, १० में से ९ लेखों में मेरी चर्चा सबसे पहले मेरी चमड़ी के रंग से ही शुरू होती हैं।
बचपन से ही मैं अपने बारे में सुनती आई हूं कि ‘बेचारी! इसका रंग कितना गहरा है!’ या ‘आप सांवली तो हैं लेकिन आपके नाक-नक्श बहुत अच्छे हैं!’ बहरहाल, मैं खुद को खुशकिस्मत मानती हूं कि मुझे ऐसे माता-पिता मिले जिन्होंने मेरे भीतर कोई हीनग्रंथि या आत्मविश्वास की कमी नहीं पैदा होने दी लेकिन गोरा न होना आपके ऊपर गहरा प्रभाव डाल सकता है, यह आपके बुनियादी हौसले को प्रभावित कर सकता है और आप जीवन में जो कुछ भी करते हैं उसके लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। इसकी वजह यह है कि गोरेपन के लिए आग्रह व्यापक तौर पर फैला हुआ है। आप गुड्डे-गुड़ियों को ही देख लीजिए जिनसे बच्चों का बचपन में ही वास्ता पड़ता है, या फिर लोककथाओं-दंतकथाओं और लोकगीतों को देखिए, सबमें गोरेपन की महिमा मिलेगी। मुझे तो तो तब आशचर्य हुआ जब सामाजिक कार्य के सिलसिले में मैं जब ओडीशा गई तो वहां दूरदराज के गांव में जहां खाने के लिए पर्याप्त अनाज तक नहीं था, वहां मुझे फेयर ऐंड लवली क्रीम के पुरान्ो पड़ चुके ट्यूब नजर आए।
प्राय: मैं यह सोचती रहती हूं कि जो चीज हमें जन्म के साथ मिली है, जिसमें हमारी अपनी कोई भूमिका नहीं है उसके लिए हम गर्व या शर्म का अनुभव क्यों करें? मैंने तो कुछ नहीं किया जो औरत या हिंदू या भारतीय या काली पैदा हुई हूं। लेकिन अपने अब तक के जीवन में मैंने बहुत कुछ किया है और अगर मेरा मूल्यांकन ही करना है तो इन्हीं कामों के आधार पर किया जाना चाहिए। बेशक यह कहना आसान है, इस पर अमल करना मुश्किल है। गोरेपन की क्रीमों संख्या जिस तरह बढ़ती जा रही है उससे मैं सदमे में हूं। फिल्म-दर-फिल्म, पत्रिका-दर-पत्रिका, विज्ञापन-दर-विज्ञापन, होर्डिंग-दर-होर्डिंग फिल्मी हीरोइनें गोरी से गोरी होती जा रही हैं! आप कह सकते हैं कि इसमें सदमे वाली क्या बात है, यह तो हमेशा से होता रहा है। मुद्दा यह है कि कामकाजी महिलाओं की संख्या जब दिन-ब-दिन बढ़ रही है और वे अपनी ख्वाहिशें और अपनी चिंताएं जाहिर कर रही हैं, स्त्री-पुरुष समानता और संवेदनशीलता की बातें हो रही हैं, तब उम्मीद की जाती है कि इस तरह का नस्लवाद उतार पर होगा।
और अब तो पुरुषों के लिए भी गोरेपन के प्रसाधन उतनी संख्या में आ गए हैं और उनमें असुरक्षा की जो भावना है वह भी उभर कर सामने आ रही है। इतना दबाव है फिर भी इन मसलों पर सार्वजनिक बहस नगण्य है। जब भी कमसिन लड़कियों से बात करती हूं, वे प्राय: मुझसे यही पूछती हैं कि ‘काली होने के बावजूद आपमें इतना आत्मविश्वास कैसे है?’ उनके इस तरह के सवाल पर मैंने जब गंभीरता से विचार किया किया तो मुझे अहसास हुआ कि ये लड़कियां खुद को इसलिए कमजोर पाती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि सुंदरता का जो पैमाना समाज में स्थापित हो गया है उससे वे कितनी पीछे हैं! मैं सोचने लगी कि उन्हें इस पैमाने की निरर्थकता का अहसास कैसे कराऊं। सो, धीरे-धीरे मैंने पाया कि मैं इस रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने लगी हूं। जब भी कोई सेल्सगर्ल मुझे गोरेपन की क्रीम बेचने की कोशिश करती है, या ब्युटी पार्लर में मुझे अपनी चमड़ी को ब्लीच करा लेने की सलाह दी जाती है तो मैं फौरन इसके खिलाफ भाषण पिला देती हूं। शायद मुझे ऐसा नहीं भी करना चाहिए क्योंकि आखिर वे भी इसी व्यवस्था की शिकार हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि इस पूर्वग्रह का इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि संबंधित शख्स पढ़ा-लिखा है या समृद्ध तबके का है!
(‘नंदितादास डॉटकॉम’ से साभार)
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