-राम पुनियानी
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हिन्दू राष्ट्रवाद बनाम भारतीय राष्ट्रवाद के मुद्दे पर बहस नई नहीं है।
औपनिवेशिक दौर में, जब आजादी का आंदोलन, भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा और उसके मूल्यों को स्वर दे रहा था तब हिन्दुओं
के एक तबके ने स्वयं को स्वाधीनता संग्राम से अलग रखा और हिन्दू राष्ट्रवाद और
उससे जुड़े हुए मूल्यों पर जोर दिया।
यह बहस एक बार फिर उभरी है। इसका कारण है भाजपा-एनडीए के प्रधानमंत्री पद के
उम्मीदवार बतौर स्वयं को प्रस्तुत करने के लिए आतुर नरेन्द्र मोदी द्वारा दिया गया
एक साक्षात्कार (जुलाई, 2013), जिसमें उन्होंने कहा कि वे हिन्दू पैदा हुए थे और वे राष्ट्रवादी हैं, इसलिए वे हिन्दू राष्ट्रवादी
हैं! क्या इसी तर्क को थोड़ा सा आगे ले जाकर, मुसलमान नहीं कह सकते कि चूंकि वे मुसलमान के रूप
में जन्मे थे और राष्ट्रवादी हैं इसलिए वे मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं। यही बात ईसाई
और सिक्ख भी कह सकते हैं। बिना किसी संदेह के यह कहा जा सकता है कि अगर किसी
व्यक्ति ने स्वयं को मुस्लिम या ईसाई
राष्ट्रवादी बताया तो उसकी घोर विपरीत प्रतिक्रिया होगी।
मोदी का एक चीज को दूसरी चीज से जोड़कर यह कहना कि चूंकि वे राष्ट्रवादी हैं और
हिन्दू हैं, इसलिए वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं, दरअसल, देश की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास है। यह तर्क मोदी के पितृ संगठन आरएसएस
की विचारधारा और कार्यशैली का हिस्सा है। औपनिवेशिक काल में, उद्योगपतियों, व्यवसायियों औद्योगिक
श्रमिकों और शिक्षितों के नए उभरते वर्गों ने, एक मंच पर आकर कई संगठन बनाए। इनमें शामिल थे
मद्रास महाजन सभा, पुणे सार्वजनिक सभा, बाम्बे एसोसिएशन आदि। इन संगठनों को यह लगा कि उन्हें आपस में हाथ मिलाकर एक
मिलाजुला राजनैतिक संगठन बनाना चाहिए। इसी के चलते, सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अस्तित्व में आई। दूसरी ओर,
मुसलमान और हिन्दू जमींदारों
और राजाओं-नवाबों के अस्त होते वर्ग ने भी, कांग्रेस की समावेशी राजनीति का विरोध करने के लिए
एक मंच पर आने का निर्णय लिया। शनैः-शनैः कांग्रेस, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों की मुख्य वाहक
बन गई। अस्त होते वर्ग तेजी से हो रहे सामाजिक परिवर्तनों के कारण, अपने अस्तित्व को खतरे में
महसूस कर रहे थे। अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा में गिरावट को उन्होंने इस रूप में
प्रस्तुत किया कि उनका धर्म संकट में है। उन्हें कांग्रेस का साम्राज्यवादी शासकों
का विरोध भी पसंद नहीं आया। कांग्रेस ने उन सामाजिक समूहों की ओर से मांगें उठानी
शुरू कर दीं जिनका वह प्रतिनिधित्व करती थी और जो असली भारत थे।
राजाओं-नवाबों के अस्त होते वर्ग का कहना था कि शासकों का विरोध करना और उनकी
चरण वंदना न करना, ‘हमारे‘ धर्म के विरूद्ध है
और इसलिए अंग्रेजों के प्रति वफादारी को प्रोत्साहन देना आवश्यक है। अस्त होते
वर्गों ने ढाका के नवाब और काशी के राजा के नेतृत्व में, सन् 1888 में, ‘युनाईटेड इंडिया पेटियाट्रिक एसोसिएशन‘ का गठन किया। बाद में, अंग्रेजों की कुटिल चालों के चलते, इस एसोसिएशन में शामिल
मुस्लिम श्रेष्ठि वर्ग ने सन् 1906 में मुस्लिम लीग का गठन कर लिया व इसके समानांतर, हिन्दू श्रेष्ठि वर्ग ने सन् 1909 में पंजाब हिन्दू सभा बनाई
और 1915 में हिन्दू महासभा।
मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा क्रमशः मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद की
पैरोकार थीं। हिन्दू राष्ट्रवादियों की राजनैतिक विचारधारा बनी हिन्दुत्व, जिसे सावरकर ने सन् 1923 में अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व ऑर हू इज ए हिन्दू‘
में प्रतिपादित किया। अंग्रेजों
के लिए इससे बेहतर क्या हो सकता था? वे जानते थे कि ये संगठन राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करेंगे।
अतः उन्होंने पर्दे के पीछे से हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग, दोनों को समर्थन देना जारी
रखा।
हिन्दुत्व की विचारधारा से प्रेरित हो, सन् 1925 में आरएसएस का गठन किया गया, जिसका लक्ष्य था हिन्दू राष्ट्रवाद के रास्ते पर
चलकर, हिन्दू राष्ट्र का
निर्माण करना। उभरते हुए नए भारत के प्रतिनिधि थे भगतसिंह, अम्बेडकर, गांधी, मौलाना अबुल कलाम आजाद व अन्य, जिनका राष्ट्रवाद शुद्ध भारतीय था और स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों पर आधारित था। मुस्लिम
लीग ने चुनिंदा मुस्लिम परंपराओं के आधार पर सामंती समाज के जातिगत और लैंगिक
पदानुक्रम को मुसलमानों पर लादना चाहा। हिन्दू महासभा और आरएसएस ने मनुस्मृति जैसी
प्रतिगामी पुस्तकों को अपना आदर्श बनाकर, इसी तरह की जाति व लिंग आधारित ऊँचनीच को प्रोत्साहित किया।
मुस्लिम और हिन्दू साम्प्रदायिक तबकों ने कभी आंजादी के आंदोलन में भाग नहीं लिया
क्योंकि यह आंदोलन समावेशी था और धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक मूल्यों का हामी।
मुस्लिम और हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों ने इतिहास में अपने-अपने धर्मों के
राजाओं-बादशाहों का महिमामंडन किया और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष से सुरक्षित दूरी
बनाए रखी। इसके चंद अपवाद भी थे, जिनपर राष्ट्रवाद का लेबिल चिपकाकर ये संगठन स्वाधीनता संग्राम में अपनी
भागीदारी का दावा करते हैं।
गांधी द्वारा ब्रिटिश-विरोधी संघर्ष में आम लोगों को शामिल करने के प्रयास ने
जिन्ना जैसे संविधानवादियों और हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे परंपरावादियों
को मुख्य राष्ट्रीय धारा से और दूर कर दिया और सन् 1920 के बाद से वे स्वयं की ताकत बढ़ाने में जुट गए।
हिन्दू राष्ट्रवादियों की 1920 के बाद से नीति एकदम साफ थी-अंग्रेजों का साथ दो और मुस्लिम राष्ट्रवादियों
का विरोध करो। ठीक यही नीति मुस्लिम लीग की भी थी। वह कांग्रेस को हिन्दू पार्टी
बताती थी। स्वाधीनता और उसके साथ हुए त्रासद बंटवारे के बाद, मुस्लिम लीगी तो पाकिस्तान
चले गए परंतु वे भारत में अपने साथी इतनी संख्या में छोड़ गए कि मुस्लिम
साम्प्रदायिकता जीवित बनी रही। शनैः-शनैः हिन्दू महासभा और आरएसएस ने अपने पंख
फैलाने शुरू कर दिए। उन्होंने शुरूआत की महात्मा गांधी की हत्या से - उन महात्मा
गांधी की, जो निःसंदेह,
पिछली कई सदियों के
सर्वश्रेष्ठ हिन्दू थे। हिन्दू राष्ट्रवादियों ने पहले जनसंघ और बाद में भाजपा की
स्थापना की। ये राष्ट्रवादी सार्वजनिक क्षेत्र और सहकारी कृषि के विरोधी थे और
उन्होंने ‘मुसलमानों का
भारतीयकरण‘ नाम से एक अभियान
शुरू किया।
धार्मिक राष्ट्रवादियों के लिए पहचान से जुड़े मुद्दे हमेशा महत्ववपूर्ण रहे
हैं। ‘गाय हमारी माता है‘,
राममंदिर, रामसेतु, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, समान नागरिक संहिता आदि कुछ
ऐसे मुद्दे हैं, जिनके आधार पर आम जनता की भावनाएं भड़काई गईं और उनमें जुनून पैदा किया गया। ये
ताकतें बार-बार इस पर जोर दे रही हैं कि कांग्रेस के राज में तुलनात्मक रूप से
अधिक संख्या में दंगे हुए हैं परंतु वे यह भुला देती हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा की
जड़ें ‘दूसरे से घृणा करो‘
की विचारधारा में हैं,
जिन्हें साम्प्रदायिक धाराओं
ने समाज में फैलाया है। साम्प्रदायिक हिंसा के कारण ही एक साम्प्रदायिक पार्टी
सत्ता में आ सकी। साम्प्रदायिक दंगों के कारण ही धार्मिक आधार पर समाज का ध्रुवीकरण
हुआ। मोदी का दावा है कि प्रजातंत्र में ध्रुवीकरण होता ही है। परंतु वे इस तथ्य
को अपेक्षित महत्व नहीं देते कि प्रजातंत्र में ध्रुवीकरण, सामाजिक मुद्दों पर होता है जैसे अमेरिका का
समाज रिपब्लिकनों और डेमोक्रेटों के बीच ध्रुवीकृत
है। सामाजिक नीतियों और राजनैतिक मुद्दों के आधार पर ध्रुवीकरण, प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का
हिस्सा है। दूसरी ओर, हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रवादी, धार्मिक पहचान के आधार पर समाज का ध्रुवीकरण कर रहे हैं।
इसकी तुलना अमेरिका या इंग्लैड में राजनैतिक ध्रुवीकरण से नहीं की जा सकती।
धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण, भारतीय संविधान की आत्मा के खिलाफ है।
मोदी एक समर्पित स्वयंसेवक हैं और हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा के पक्षधर
हैं। वे इस तथ्य को जानबूझ कर तरजीह नहीं देना चाहते कि भारत के हिन्दू स्वयं को
हिन्दू राष्ट्रवादी न कहते थे और ना कहते हैं। गांधी, नैतिक और सामाजिक दृष्टि से हिन्दू थे परंतु वे
हिन्दू राष्ट्रवादी नहीं थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद मुस्लिम थे परंतु वे मुस्लिम
राष्ट्रवादी नहीं थे। वे इस्लाम के महान अध्येता थे परंतु मुस्लिम राष्ट्रवादी
शब्द उनके साथ कभी नहीं जुड़ा। स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारत के सभी धर्मों के
निवासियों ने भारतीय राष्ट्रवाद से नाता जोड़ा न कि धार्मिक राष्ट्रवाद से। आज भी
सभी धर्मों के अधिकांश भारतीय, मोदी और उनके साथियों के विपरीत, धार्मिक राष्ट्रवादी नहीं हैं। वे भारतीय राष्ट्रवादी हैं।
हिन्दू राष्ट्रवादियों को जरूरत है राममंदिर की, भारतीय राष्ट्रवादियों को चाहिए स्कूल, विश्वविद्यालय और
फैक्ट्रियां ताकि युवाओं को काम मिल सके। हिन्दू राष्ट्रवाद बांटने वाला और एक
व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के बीच दीवारें खड़ी करने वाला है। भारतीय राष्ट्रवाद
समावेशी है और उसकी जड़ें इस दुनिया में हैं, दूसरी दुनिया में नहीं। दुर्भाग्यवश हिन्दू
राष्ट्रवादी, पहचान से जुड़े मुद्दों को लेकर इतना शोर-शराबा कर रहे हैं कि गरीबों और समाज
के हाशिए पर पटक दिए गए लोगों से जुड़े मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गए हैं। भारतीय
राष्ट्रवाद, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम से उपजा है, के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद एक चुनौती बन गया है।
म्यंनमार और श्रीलंका में बौद्ध राष्ट्रवाद प्रजातांत्रिकरण की प्रक्रिया में रोड़ा
बन गया है। मुस्लिम राष्ट्रवाद ने पाकिस्तान और कई अन्य देशों को बर्बाद कर दिया
है।
ऐसा लग रहा है कि हम इतिहास की एक काली, अंधेरी सुरंग से गुजर रहे हैं, जब राजनीति में धर्म के
घालमेल को न केवल स्वीकार्यता बल्कि कुछ हद तक सम्मान भी मिल गया है। यह भारत में
तो ही रहा है दुनिया के कई अन्य हिस्सों में भी हो रहा है। हम केवल उम्मीद कर सकते
हैं कि हमारे देशवासी, धार्मिक राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद के बीच के फर्क को नहीं भूलेंगे।
हिन्दू राष्ट्रवाद समाज के कमजोर वर्गो की बेहतरी के लिए सकारात्मक कार्यवाही
का विरोधी है और इसलिए ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण‘ शब्द गढ़ा गया है। हिन्दू राष्ट्रवादी कतई नहीं चाहते कि धार्मिक अल्पसंख्यकों
की भलाई के लिए कुछ भी किया जाए। प्रधानमंत्री पद के इच्छुक सज्जन बहुत चतुर हैं।
उनका यह कहना कि चूंकि वे हिन्दू परिवार में पैदा हुए थे और राष्ट्रवादी हैं,
इसलिए वे हिन्दू राष्ट्रवादी
हैं, उनकी कुटिलता का एक
और प्रमाण है। यह समाज को बांटने का उनका एक और भौंडा प्रयास है।
(हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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