डॉ. गीता गुप्त



मध्यप्रदेश भारत का 'हृदय प्रदेश' है। जब वर्ष 2000 में विकास के नाम पर वस्तुत: राजनीतिज्ञों की महत्वकांक्षा की पूर्ति हेतु इस प्रदेश को छत्तीसगढ़ से पृथक कर एक अलग राज्य घोषित कर दिया गया तो वह क्षण बहुत पीड़ादायक था। भले ही विभाजन के बाद इस प्रदेश ने 'बीमारू राज्य'  की संज्ञा से मुक्ति तो पा ली परंतु आज भी विकास की दृष्टि से यह अपार संभावनाओं वाला राज्य ही बना हुआ है। इसमें वांछनीय प्रगति नहीं हो पायी है। सरकारी आंकड़े तो विकास दर्शाते हैं पर ज़मीनी हक़ीकत कुछ और है। किसी प्रदेश की प्रगति वहां की शिक्षा-व्यवस्था, सामाजिक और आर्थिक स्थिति, औद्योगिक विकास, स्त्रियों की दशा, कानून-व्यवस्था और सांस्कृतिक चेतना जैसे पैमानों पर आंकी जाती है। राजनेताओं के व्याख्यान में या स्थापना दिवस के अवसर पर जारी होर्डिंग्स और विज्ञापनों में प्रदेश की जिस उन्नति का वर्णन होता है, उसकी बाट आम जनता अब भी जोह रही है। कोरे कागज़ पर आंकड़े दर्शाकर राजनेता प्रसन्न हो सकते हैं परंतु सत्य सबके सामने प्रकट होता है, उसे झुठलाया नहीं जा सकता।

सोचने की बात है, आज़ादी के बाद और फिर स्वतंत्र राज्य के रूप में इस प्रदेश ने उन्नति के कितने सोपान तय किये? यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य और इसकी सांस्कृतिक विरासत विश्वविख्यात है। यहां पवित्र नर्मदा है, क्षिप्रा की पावन धारा है। सतपुड़ा के घने वन हैं। हीरा पन्ना का बहुमूल्य खदान हैं। राजा भोज व कालिदास की नगरी है। स्थापत्य सम्पदा के परिचायक खजुराहो, भीमबैठका, मांडव, सांची जैसे कई स्थल हैं। संगीत के क्षेत्र में प्रसिध्द लता मंगेशकर, उस्ताद अलाउद्दीन खां, अमज़द अली खां, पंडित कुमार गंधार्व, और किशोर कुमार जैसी विभूतियों ने यहां जन्म लिया। यह कई विश्वविख्यात साहित्यकारों, चित्रकारों और कलाकारों की जन्म या कर्म भूमि रही है, जिससे प्रदेश गौरवान्वित हुआ है। ऐतिहासिक महत्व की अनेक घटनाएं एवं गाथाएं इस राज्य से जुड़ी हैं। मगर पूर्व में ख्यातिलब्धा इस अपार वैभवशाली प्रदेश का वर्तमान परिदृश्य आज गंभीर रूप से चिंताजनक है। आखिर क्यों?
कहने को तो विकास की अनगिनत योजनाएं हैं। आम जनता प्राय: सरकार से बिजली, पानी, सड़क और दैनन्दिन जीवन की सुविधाएं ही चाहती है। मध्यप्रदेश में तो प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के समान्तर मुख्यमंत्री सड़क योजना भी बना दी गई और पिछले वर्ष ढाई हजार सड़कों का निर्माण बतलाया गया। परन्तु मीडिया की रपटों और राजधानी की ही खस्ताहाल सड़कों से स्पष्ट हो गया कि सिर्फ राजनेताओं के गांव घर तक पहुंच वाली सड़कें दुरुस्त की गई, बाकी योजनाओं के हवाले हैं। आवागमन की सुविधा का ये हाल है कि मध्यप्रदेश में राज्य सड़क परिवहन निगम का अस्तित्व समाप्त कर दिया गया और जनता को निजी परिवहन संचालकों के भरोसे छोड़ दिया गया। अत: जनता निजी बस, ट्रक, ट्रेक्टर, टैम्पो और जीपों में ठुंसकर अपनी जान हथेली पर रखकर यात्राएं कर रही है और आए दिन दुर्घटनाएं हो रही हैं।
कृषि की बात करें तो किसान बदहाल हैं। वे आत्महत्या कर रहे हैं। खेती की जमीनें कांक्रीट के जंगलों में तब्दील की जा रही हैं। खेत हैं, तो खाद-बीज-दवा और सिंचाई के लिए पानी नहीं है, बिजली नहीं है। कई गांव आज भी बिजली, पानी और सड़क के मोहताज़ हैं। शिक्षा का ढांचा भी बुरी तरह चरमराया हुआ है। यहां शिक्षा सर्वाधिक उपेक्षित क्षेत्र है। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में इतने प्रयोग किये जा रहे हैं कि अधिकारियों को शायद अनुमान नहीं होगा कि बच्चे इसका कितना खामियाजा भुगत रहे हैं? स्कूल के विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए नयी नीतियों, नये कार्यक्रम, नित नये प्रयोग, नये प्रशिक्षण और नित नवाचार ने ऐसा वातावरण निर्मित कर दिया है जिसमें वे असहाय हैं। उनकी योग्यता, क्षमता, प्रतिभा, कार्य शैली आदि का कोई महत्व नहीं है। उन्हें तो सिर्फ अधिकारियों का हुकुम बजाना है, क्योंकि विद्यालय उन्हीं के निर्देश पर चलते हैं। शिक्षा प्रणाली के विश्लेषण पर किसी का ध्यान नहीं है। पर्याप्त संख्या में न विद्यालय है, न शिक्षक। विद्यालयों में शौचालय और पेयजल का अभाव तो आम बात है।
उच्च शिक्षा की दशा भी कम दयनीय नहीं। बियाबानों में महाविद्यालय खोल दिये गये पर भवनविहीन, प्राचार्य विहीन और शिक्षकविहीन संस्थानों में विद्यार्थी कैसे पढ़ेंगे? प्रदेश के कई तहसीलों व गांवों में ऐसे कॉलेज हैं जो दो कमरों में या घरों में संचालित हो रहे हैं। कहीं-कहीं इन सरकारी महाविद्यालयों में विज्ञान संकाय भी खोल दिये गए पर शिक्षक नियुक्त नहीं किए गए हैं। इस बदहाली के बावजूद उच्च शिक्षा में यह गुणवत्ता विस्तार का वर्ष घोषित किया गया है। तकनीकी शिक्षा की हालत भी कम चिंताजनक नहीं। झोलाछाप डॉक्टर और फर्जी इंजीनियर हर तकनीकी संस्थान में पैदा हो रहे हैं। सरकार इन पर रोक नहीं लगा पा रही हैं, क्योंकि गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा अब दूर की कौड़ी हो गई है।
अब जरा स्त्रियों और बच्चों की स्थिति पर गौर करें। स्त्रियों के साथ दुष्कर्म की घटनाओं में मध्यप्रदेश अव्वल है। खोजी मीडिया निरंतर ऐसी खबरें उजागर करता है कि दिल दहल जाए। पर सरकार सामूहिक कन्या भोज, कन्या पूजन और उनके पाद प्रक्षालन के पाखंड में मगन है। महिला हिंसा की बाढ़ आयी हुई है, पर थानों में रपट नहीं लिखी जाती, लिखी भी जाएं तो कार्रवाई नहीं की जाती। इसलिए समाज में अपराध बढ़ रहे हैं। रोज 'लाडलियां' गायब हो रही हैं। नाबालिग बच्चों की गुमशुदगी के आंकड़े भी चिंताजनक हैं। क़ानून-व्यवस्था कहीं दिखाई नहीं देती, वह साप्ताहिक अभियानों में सिमट गई है। सरकार स्त्री-हितैषी योजनाओं और कानूनों की लाख दुहाई दे परंतु स्त्रियां इस प्रदेश में सुरक्षित नहीं हैं।
यदि प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर बात करें तो यहां के नौकरशाह और राजनेता मालामाल हो रहे हैं और सरकार कर्ज में डूबी हुई है। मीडिया की बदौलत भ्रष्टाचार के प्रकरण लगातार सामने आने के बावजूद दोषियों पर कार्रवाई नहीं हो रही। मुख्यमंत्री निवास पर गाहे-ब-गाहे आयोजित विभिन्न वर्गों (ग़रीबों, ठेले वालों, विद्यार्थियों, काम वाली बाइयों, वृध्दों आदि) की पंचायतें आगामी चुनाव हेतु सरकार द्वारा वोट बैंक जुटाने की कवायद से अधिक कुछ नहीं है। आर्थिक प्रगति के लिए विदेशी पूंजी निवेश को लुभाने के इरादे से मई 2005 से जून 2010 के बीच दो मुख्यमंत्रियों ने विदेश यात्रायों पर लगभग पांच करोड़ खर्च कर डाले। परंतु परिणाम आशातीत नहीं रहा। तथापि पिछले वर्ष इन्वेस्टर्स मीट के सिलसिले में आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, जर्मनी, नीदरलैण्ड और इटली की यात्रा में प्रदेश सरकार ने एक करोड़ साठ लाख खर्च किए। इस वर्ष चीन यात्रा में भी पौने दो करोड़ खर्च का अनुमान है। हाल की जापान, सिंगापुर, कोरिया, चीन और अमेरिका यात्रा पर भी भारी भरकम राशि फूंक दी गई और अब इसी माह इन्दौर में इन्वेस्टर्स मीट पर करोड़ों का अपव्यय सुनिश्चित है क्योंकि इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में विदेशी निवेशक यहां समझौता भले कर लें पर निवेश के लिए क़दम नहीं उठाते और प्रस्ताव अपने आप बेमानी हो जाता है। सरकार भी निवेश की बाधाओं को दूर करने में रूचि नहीं लेती अतएव अधिकतर विदेशी निवेशक करारों पर अमल नहीं करते। मगर इसमें हानि जनता के धन की होती है।
प्रश्न यह है कि आखिर प्रदेश किस क्षेत्र में तरक्की कर रहा है? यहां शिक्षा व्यवस्था चरमरायी हुई है, शिशु लिंगानुपात गड़बड़ है, भ्रष्टाचार और स्त्रियों के प्रति हिंसा चरम पर है, स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं, समाज में अपराधा निरंतर बढ़ रहे हैं, पुलिस व्यवस्था का ये आलम है कि अपराधियों को पकड़वाने के लिए इनाम घोषित करने पड़ रहे हैं, खनन माफिया बेखौफ होकर चांदी कूट रहे हैं, मनरेगा और सस्ती अनाज योजना में निर्धन ग्रामीणों को आरामतलब बना दिया है, कृषि योग्य भूमि पर शहरी जंगल बसाये जा रहे हैं, नौकरीपेशा लोगों का जीवन दूभर होता जा रहा है। भूमंडलीकरण के प्रभाववश समाज में तेज़ी से बदलाव आ रहे हैं और व्यक्ति आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है। ऐसे में प्रदेश कैसे खुशहाल होगा? राजनेताओं का आचरण आदर्श नहीं रहा। राज्य की उन्नति उनका लक्ष्य नहीं है। वे सिर्फ वोटों और कुर्सी की राजनीति कर रहे हैं। विपक्षी नेताओं में भी चरित्र एवं ईमान की ताकत नहीं रही इसीलिए वे जनहित में आक्रामक नहीं है। युवा पीढ़ी कमर मटकाकर ठुमके लगाने में व्यस्त है अथवा राजनेताओं के इशारे पर आंख मूंदकर उस राह पर चल रही है जो उन्नति के शिखर पर कदापि नहीं ले जा सकती। सचमुच, इस प्रदेश को उस मसीहा की ज़रूरत है जो अंधोरगर्दी खत्म करके विकास की भागीरथी यहां ले आये और जनता को खुशहाल कर दे।
निश्चय ही, यह समय स्थापना दिवस की सरकारी चकाचौंध में खोने का नहीं वरन् आत्मचिंतन और पहलकदमी का है क्योंकि राजनेताओं से उम्मीद बेमानी है। अब हर नागरिक को अपना मसीहा आप बनना होगा। तभी समस्त विडंबनाओं से मुक्त एक ऐसा प्रदेश अस्तित्व में आएगा जो हमारे सपनों का मध्यप्रदेश होगा। अभी तो उस स्वर्णिम दिवस की प्रतीक्षा ही है।(हमसमवेत)