अलका आर्य
वास्तव में अगर घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को इंसाफ दिलाने वाले मकसद को पूरा करना है तो केंद्र व राज्य सरकारों को ‘घरेलू हिंसा महिला संरक्षण कानून-2005’ को गंभीरता से लेना होगा। यह भी बेहद जरूरी है कि इसे लागू कराने में सहयोग देने वाली संस्थाएं अपनी भूमिका के महत्व को समझें। किसी भी कानून के अमल में उस दिशा में सहयोग देने वाली संस्थाओं की भूमिका और महत्व को यूं भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन जब कानून में लैंगिक संवेदनशीलता और महिला अधिकारों से संबंधित नई अवधारणा वाला पहलू जुड़ा हो तो सहयोग देने वाली संस्थाओं के कंधों पर उस कानून को सफल बनाने की खास जिम्मेदारी आ जाती है। इस आशय का जिक्र ‘लायर्स कलेक्टिव वीमेंस राइट्स इनिशिएटिव’ नामक संस्था ने अपनी ‘स्टेइंग एलाइव’ नामक रिपोर्ट में किया है। घरेलू हिंसा महिला संरक्षण कानून-2005 लागू हुए पांच साल हो गये हैं।
गौरतलब है कि इस कानून का मसौदा बनाने में दिल्ली की लायर्स कलेक्टिव वीमेंस राइट्स संस्था ने बहुत उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी और यह संस्था हर साल इस कानून पर एक रपट भी जारी करती है। कानून के पांच साल पूरे होने पर जारी अपनी पांचवी रपट में उक्त संस्था ने साफ कहा है कि पांच साल बीतने के बाद भी इसे लागू करने वाली संस्थाओं में कानून को लेकर जो ज्ञान व स्पष्टता दिखनी चाहिए, वह नहीं है।
यह महज निराशा का विषय ही नहीं है बल्कि पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था का सरकारी व्यवस्था पर जो असर देखने को मिलता है, उसे व्यवस्था से बाहर करने के बावत सोचने का वक्त भी है। यूं तो सरकार ने पुलिस के लैंगिक संवदेनशीलता प्रशिक्षण पर करोड़ों रुपए खर्च किए है, मगर नतीजे अपेक्षा के अनुरूप नहीं आए। दरअसल, घरेलू हिंसा महिला संरक्षण कानून- 2005 में महिलाओं के खिलाफ होने वाली शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, आर्थिक व यौनिक हिंसा को शामिल किया गया है।
यह कानून महज पत्नियों पर ही लागू नहीं होता बल्कि इसके दायरे में उन संबंधों को भी मान्यता दी गई है जिसमें स्त्री-पुरूष बिना शादी के पति-पत्नी की तरह लंबे समय से साथ रह रहे हों। यही नहीं, इसमें मां, बहन व बेटी भी शामिल हैं। इस कानून में स्पष्ट कहा गया है कि घर चाहे पति का हो या न हो; पत्नी, या बगैर शादी किए साथ रहने वाली स्त्री को घर से नहीं निकाला जा सकता। ‘निवास का अधिकार’ इस बिल का महत्वपूर्ण पहलू था। राज्य सरकारों को इसे प्रभावकारी तरीके से अमल कराने के लिए अपने यहां पूर्णकालिक संरक्षण अधिकारी, सेवा प्रदाता, शेल्टर होम व चिकित्सीय सुविधाएं प्रदान करनी थीं और पुलिस को लैंगिकता के प्रति संवेदनशील बनाना था। मगर राज्य सरकारें अपनी जिम्मेवारी किस तरह निभा रही हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस कानून के बावत जानकारी भेजने वाले राज्यों की संख्या में कमी आई है। स्टेइिंग एलाइव की वर्ष 2011 की रिपोर्ट के लिए सिर्फ 15 राज्यों ने सूचनाएं भेजीं जबकि पहली व दूसरी रिपोर्ट 2008 व 2009 के लिए सभी राज्यों ने सूचनाएं भेजी थीं।
इस संबंध में पुलिस की भूमिका हमेशा की तरह संदेहास्पद नजर आ रही है। लैगिक संवेदनशीलता का प्रशिक्षण मिलने के बावजूद पुलिस का रवैया हिंसा की शिकार महिला को समझा-बुझा कर घर वापस भेजने वाला ही है। पुलिस पीड़ित औरत को ऐसी हालत में उसके अधिकारों व कानूनी विकल्पों के बारे में जानकारी तक मुहैया नहीं कराती। ध्यान देने वाली बात यह है कि 13 नवम्बर, 2009 को जारी इसी संस्था की एक रिपोर्ट में पुलिस की प्रतिगामी भावभंगिमा का उल्लेख है। दिल्ली के 50 प्रतिशत पुलिस कर्मचारियों की नजर में परिवार को चलाने के लिए घरेलू हिंसा जरूरी है तो तैंतीस प्रतिशत के अनुसार यह कानून पुरुषों व उनके रिश्तेदारों के उत्पीड़न की योजना को अंजाम देने के लिए बनाया गया एक औजार है। राजस्थान में 40 प्रतिशत सिपाहियों का मानना था कि कभी- कभार औरत को थप्पड़ मारना जायज है। इसी राज्य के 30 फीसद पुलिस कर्मचारियों की राय में कुछेक परिस्थितियों में महिलाएं पिटाई के लायक हैं। दिल्ली व राजस्थान के क्रमश: 15 व 40 प्रतिशत पुलिस अधिकारियों का मानना है कि घरेलू हिंसा महिला संरक्षण कानून-2005 के क्रियान्वयन में उनकी भूमिका बहुत छोटी है।
जाहिर है कि पुलिस की लैंगिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त मानसिकता व कानून के बावत स्पष्ट जानकारी के अभाव का खामियाजा महिलाओं को ही चुकाना पड़ता है। न्यायपालिका इस कानून का मकसद पूरा करने में अपनी जिम्मेवारी का निर्वाह करने लगी है। बेशक, ऐसे लक्षण देश भर में नजर न आ रहे हों, फिर भी महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह बहुत बड़ा कदम है। इस बारे में कुछ रुझान व बदलाव सकारात्मक हैं लेकिन पर्याप्त बजट की कमी इस कानून को प्रभावशाली तरीके से अमल कराने में बहुत बड़ी अड़चन है। बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, व राजस्थान ने इसके लिए संसाधनों का आवंटन तक नहीं किया है। जबकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सव्रेक्षण 2005-06 के अनुसार महिलाओं के खिलाफ हिंसा के अधिक मामले इन्हीं राज्यों में दर्ज किए गए थे। राज्यों में बजट आवंटन में बीते तीन-चार सालों में किसी बड़े बदलाव का न होना राज्य सरकारों की नीयत पर सवालिया निशान है। जबकि लायर्स कलेक्टिव संस्था के अनुसार इसके लिए करीब 1,522 करोड़ रुपये की जरूरत होगी। देश की आधी आबादी को घरेलू हिंसा से कुछ हद तक राहत दिलाने के लिए सरकार को गंभीरता से सोचने होगा।
हम उस देश में रह रहे हैं, जहां पति भोजन में नमक कम होने पर अपनी पत्नी की हत्या कर देता है या बिना इजाजत के घर से बाहर निकलने पर उसकी पिटाई कर देता है। महिला साक्षरता दर में वृद्धि हुई है, कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की रोकथाम का मुददा अपनी जगह बरकरार है। इसकी जड़ें समाज में बहुत गहरी हैं, अब कानूनों के जरिए इस पर प्रहार किया जा रहा है। समाज में स्त्री विरोधी सोच बदलने के लिए जागरूकता अभियान को और तेज करना होगा। एक तरफ, समाज से अपेक्षा है तो दूसरी तरफ केंद्र व राज्य सरकारों को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए कि घरेलू हिंसा उन्मूलन कानून बनने के बाद भी उसे कारगर तरीके से अमल में क्यों नहीं लाया जा रहा है।
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