राम पुनियानी

हाल में (अक्टूबर 2011), दिल्ली विश्विद्यालय की अकादमिक समिति ने बी.ए. आनर्स के भारत की संस्कृतिविषय के पाठ्यक्रम से ए.के. रामानुजन का निबंध तीन सौ रामायणेंहटाने का निर्णय लिया। यह विद्वतापूर्ण निबंध राम की विभिन्न कथाओं पर आधारित है। समिति के चार विशेषज्ञ सदस्यों में से एक- जिनके मत को स्वीकार किया गया-का कहना था कि स्नातक कक्षाओं के विद्यार्थी अपरिपक्व होते हैं और वे  दैवीय पात्रों के अपरंपरागत चरित्र चित्रण को स्वीकार नहीं कर सकेंगे। इस निर्णय का अभाविप व उसके जैसे अन्य संगठनों ने स्वागत किया तो विश्विद्यालय के शिक्षकों व विद्यार्थियों ने विरोध। ज्ञातव्य है कि सन् 2008 में जब इस निबंध को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था तब अभाविप ने भारी उत्पात मचाया था। जाने माने विद्वान ए.के.रामानुजन का यह निबंध उनकी पुस्तक कलेक्टिड ऐसेज ऑफ ए.के. रामानुजन“ (आक्सफोर्ड, 1999) में शामिल है।

इसके पूर्व, पुणे में, सन् 1993 में रामायण के विभिन्न संस्करणों पर केन्द्रित सहमतकी प्रदर्शनी पर संघ परिवार की गुंडा ब्रिगेड ने हिंसक हमला किया था। यह प्रदर्शनी, बाबरी कांड के तुरंत बाद आयोजित की गई थी। बहाना यह था कि प्रदर्शनी के एक प्रदर्श में, जो जातक (बौद्ध) कथाओं पर आधारित था, राम और सीता को भाई-बहन बताया गया है और यह हिन्दू धर्म का अपमान है। रामानुजन के निबंध में रामायण के विभिन्न संस्करणों का उल्लेख है और उदाहरणस्वरूप पाँच संस्करणों का विवरण भी।
 
यह सर्वज्ञात है कि रामायण के सैकड़ों संस्करण हैं, जिनमें से कुछ हैं बौद्ध, जैन, वाल्मीकि, तुलसी इत्यादि । पाँला रिचमेन ने अपनी पुस्तक मैनी रामायणास“ (आक्सफोर्ड) में इनमें से कुछ का विवरण दिया है। यहाँ तक कि वाल्मीकि रामायण की भी कई टीकाएं उपलब्ध हैं जिनमें से कुछ को धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले सख्त नापसंद करते हैं। मजे की बात यह है कि इस घोर असहिष्णुता का प्रदर्शन वे कर रहे हैं जो यह कहते नहीं थकते कि हिन्दू धर्म सहिष्णु है व अन्य सभी धर्म असहिष्णु।

रामायण के विभिन्न संस्करणों व टीकाओं का अध्ययन अत्यंत दिलचस्प बन पड़ता है। सच तो यह है कि प्रतिगामी ताकतों को स्वीकार्य संस्करण भी एक से नहीं हैं। वाल्मीकि, तुलसीदास और रामानंद सागर के टेलीविजन सीरियल रामायणकी रामकथाओं में महत्वपूर्ण अंतर हैं।
रामायण कई भाषाओं में लिखी गई है- विशेष रूप से एशिया की भाषाओं में। रामानुजन लिखते हैं कि रामकथा बाली, बंगाली, कश्मीरी, थाई, सिंहली, संथाली आदि कई भाषाओं में उपलब्ध है। पश्चिमी भाषाओं में भी रामकथा के विभिन्न स्वरूप उपलब्ध हैं। ये रामकथाएं एक सी नहीं हैं। रामानुजन के निबंध के विरोधी, वाल्मीकि रामायण को मानक मानते हैं और अन्य सभी संस्करणों को इसका अपभ्रंश। उन्हें अन्य रामायणें स्वीकार्य नहीं हैं।

रामायण के जिस संस्करण को सांप्रदायिक ताकतें देश पर थोपना चाहती हैं, उसमें पुरातन, दकियानूसी लैंगिक व जातिगत मूल्यों का समावेश है।

यह दिलचस्प है कि विभिन्न रामकथाएं व उनकी टीकाएं सीधे-सीधे संबंधित व्यक्ति या समूह की जातिगत या वर्गीय महत्वाकांक्षाओं से जुड़ी हुई हैं। बौद्ध दशरथ जातक में, सीता को श्रीराम की पत्नी व बहन दोनों बताया गया है। इस जातक कथा में दशरथ, अयोध्या नहीं वरन् वाराणसी के राजा हैं। भाई-बहनों का आपस में विवाह, उच्च क्षत्रिय कुलों की परंपरा का भाग था। इसका लक्ष्य था कुल की श्रेष्ठता व शुद्धता बनाए रखना। इस कथा में राम को भगवान बुद्ध का अनुयायी बताया गया है। रामकथा के जैन संस्करणों में राम को जैन मूल्यों, विशेषकर अहिंसा, का प्रचारक दिखाया गया है। बौद्ध व जैन-दोनों संस्करणों में रावण को खलनायक नहीं वरन् साधु स्वभाव का ऐसा जिम्मेदार शासक निरूपित किया गया है जो ज्ञान पिपासु व आध्यात्मिक है व जिसे अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण हासिल है। तेलुगू ब्राहम्ण युवतियों द्वारा आज भी गाए जाने वाले रामायण गीत-जिनका संकलन रंगनायकम्मा ने किया था-के केन्द्र में महिलाओं की चिंताएं और इच्छाएं हैं। इन गीतों में सीता, राम पर विजय प्राप्त करती हैं और शूर्पनखा, राम से बदला लेने में सफल रहती है। 

थाई रामकीर्तिमें रामकथा में एक नया पेंच है। इसके अनुसार शूर्पनखा की पुत्री अपनी मां के अंग-भंग के लिए सीता को दोषी मानती है और उनसे बदला लेती है। इस रामायण में हनुमान की केन्द्रीय भूमिका है। रामकीर्तिके हनुमान न तो भक्त हैं और न ही ब्रम्हचारी बल्कि वे एक महिला-प्रेमी हैं जो अपनी लंका यात्रा के दौरान शयनकक्षों में तांक-झांक करते हैं। वाल्मिकी, कंबन और तमिल रामायणों में हनुमान दूसरे की पत्नि के साथ सोने को अपराध मानते हैं परंतु थाई संस्करण में वे इसमें कुछ भी गलत नहीं देखते। ज्ञातव्य है कि हनुमान आज भी थाईलैंड के अत्यंत लोकप्रिय नायकों में से एक हैं। जैन रामायण की तरह, थाई रामायण भी रावण के कुलवंश और उनके कार्यकलापों को राम की तुलना में कहीं अधिक महत्व देती है। 

आधुनिक काल में दलितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए लंबा व कठिन संघर्ष करने वाले जोतिबा फुले ने रामायण की उन वर्गों के दृष्टिकोण से विवेचना की जो जाति-वर्ण-लिंग आधारित ऊँच-नीच के शिकार हैं। फुले कहते हैं कि ऊँची जातियों के सदस्य, दरअसल, उन भारतीय-यूरोपीय आक्रांताओं के उत्तराधिकारी हैं जिन्होंने भारत की मूल संस्कृति-जो सामाजिक समता पर आधारित थी- को नष्ट कर दिया और विजितों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लाद दिए। रामायण पर फुले की टीका, राजा बाली के आसपास बुनी गई है जिन्हें किसान समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। राम द्वारा बाली की छलपूर्वक हत्या की फुले कड़ी निंदा करते हैं और इसे ऊँची जातियों द्वारा नीची जातियों पर प्रभुत्व कायम करने का प्रतीक बताते हैं। राम को विष्णु का ऐसा अवतार बताया गया है जिसका लक्ष्य भारत को राक्षसों (अर्थात अपनी फसल की रक्षा करने वाले किसानों) से जीत कर यहां जातिगत व लैंगिक ऊँच-नीच सहित अन्य प्रतिगामी मूल्य स्थापित करना था।  

डाक्टर अंबेडकर व पेरियार की टीकाएं, वाल्मिकी रामायण को अलग दृष्टिकोण से देखने का प्रयास ज्यादा हैं और रामायण का अलग संस्करण कम। दोनों की विवेचना में कई समानताएं हैं। डाक्टर अंबेडकर शंबूक वध के प्रसंग पर विशेष जोर देते हैं। शंबूक को राम ने इसलिए मारा था क्योंकि नीची जाति का होते हुए भी वह तपस्या कर रहा था। फुले की तरह अंबेडकर भी राम द्वारा राजा बाली की हत्या की कड़ी निंदा करते हैं। वे सीता की अग्निपरीक्षा लेने के राम के निर्णय पर भी प्रश्चिन्ह लगाते हैं और राम के सीता के प्रति व्यवहार को पितृसत्तात्मक मूल्यों से प्रेरित कहते हैं। रावण को हराने के बाद राम, सीता से कहते हैं कि उन्होंने यह युद्ध उन्हें मुक्त कराने के लिए नहीं बल्कि अपने सम्मान की रक्षा करने के लिए लड़ा था। अंबेडकर, राम द्वारा सीता के चरित्र पर संदेह करने और गर्भवती होते हुए उन्हें देश निकाला देने की कटु आलोचना करते हैं।

पेरियार के विचार भी लगभग यही हैं परंतु वे रामायण को उत्तर भारत की उच्च जातियों द्वारा दक्षिण भारत पर कब्जा करने के अभियान का विवरण कहते हैं। पेरियार ने तमिलनाडू में आत्माभिमान आंदोलनचलाया था जिसका लक्ष्य लैंगिक व जातिगत समानता स्थापित करना था। जिस तरह डाक्टर अंबेडकर मनुस्मृति को जलाया करते थे उसी तरह पेरियार ने राम के चित्र सार्वजनिक रूप से जलाने का निर्णय लिया था क्योंकि उनके लिए राम, दक्षिण भारत में उच्च जातियों के मूल्यों के प्रणेता थे। पेरियार तमिल पहचान पर भी बहुत जोर देते थे। उनके अनुसार रामायण दरअसल जातियों में बंटे, संस्कृतनिष्ठ ऊँची जातियों के उत्तर भारतीयों द्वारा राम के नेतृत्व में दक्षिण भारतीयों को गुलाम बनाने की कथा है। पेरियार के अनुसार, रावण प्राचीन द्रविड राजा था जिसने अपनी बहन के अंग-भंग और अपमान का बदला लेने के लिए सीता का अपहरण किया था। पेरियार की विवेचना में रावण महान भक्त और अत्यंत गुणी सम्राट था।

ऐसा प्रतीत होता है कि रामानुजन के लेख को साम्प्रदायिक ताकतों, संघ परिवार आदि के दबाव में पाठ्यक्रम से हटाया गया है। इन ताकतों ने राम पर केन्द्रित साम्प्रदायिक अभियान चलाकर भरपूर राजनैतिक लाभ अर्जित किया है। ये ताकतें जातिगत और लैंगिक ऊँच-नीच की पैरोकार हैं और इसलिए वे वाल्मिकी और रामानंद सागर की रामायणों को ही सही ठहराने पर तुली हुई हैं। यह सचमुच विस्मयकारी है कि दुनिया के सबसे सहिष्णु धर्मके स्वयंभू रक्षक मेनी राम्स मेनी रामायणासजैसे अकादमिक व तथ्यात्मक निबंध को भी सहन नहीं कर पा रहे हैं। 

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)