राजा भोज के सहारे वोट बैंक बढ़ाने की जुगत में भाजपा
एल. एस. हरदेनिया

इस समय भाजपा की राजा भोज के प्रति अपार “श्रद्धा“ उमड़ आई है। इस श्रद्धा के चलते भोपाल में “भोज महोत्सव“ आयोजित किया गया। भाजपा का दावा है कि आज से 1000 वर्ष पूर्व राजा भोज का राजतिलक हुआ था। उनके राजतिलक के एक हजार वर्ष पूरे होने पर भोपाल के प्रसिद्ध बड़े तालाब में राजा भोज की एक विशाल मूर्ति की स्थापना की गई है। भोज उत्सव में ऐसे समय करोड़ों रूपये खर्च किये गए जब आर्थिक तंगी के कारण सैकड़ों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। लगभग प्रतिदिन प्रदेश के किसी न किसी गांव से किसानों की आत्महत्या की खबरें आती है।
जहां तक भोज उत्सव और उनकी विशाल मूर्ति की स्थापना का सवाल है, किसी को इसमें विशेस आपत्ति नहीं हो सकती। हाँ आपत्ति का एक मुद्दा अवश्य हो सकता है और वह यह कि एक प्रजातात्रिक सरकार द्वारा सामंती व्यवस्था के प्रतीक किसी आयोजन को धूमधाम से याद करने की क्या आवश्यकता है। आखिर प्रजातंत्र, सामंती व्यवस्था का तख्ता पलटकर अस्तित्व में आया है। क्या कोई प्रजातंत्रात्मक व्यवस्था इस बुनियादी सिद्धांत की उपेक्षा कर सकती है?
राजा भोज के मुद्दे को ही आगे बढ़ाते हुए भाजपा सरकार ने भोपाल शहर का नाम बदलकर भोजपाल रखने का इरादा प्रकट किया है। कुछ भाजपा विधायकों द्वारा इसके समर्थन में हस्ताक्षर अभियान भी चलाया जा रहा है। भोपाल का नाम बदलकर भोजपाल करने के पीछे राजा भोज के प्रति संघ परिवार का स्नेह नहीं है। वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि भोपाल के नागरिकों का एक वर्ग इस निर्णय का विरोध करेगा। इस वर्ग में मुसलमान भी शमिल होंगे। चुकी मुसलमान इस परिवर्तन का विरोध करेगे और संघ समर्थक हिन्दू, इसका समर्थन करेंगे। इस तरह यह विवाद हिन्दू-मुस्लिम विवाद का रूप ले लेगा। इससे भोपाल में सांप्रदायिक धु्रवीकरण हो जाएगा। यह सांप्रदायिक धु्रवीकरण, भाजपा के वोट बैंक में इजाफा करेगा। नाम परिवर्तन की इस मुहिम का एकमात्र उद्धेष्य भाजपा के वोट बैंक में बढौत्री करना है।
संघ परिवार सहित भारतीय जनता पार्टी को ऐसे कार्यक्रम हाथ में लेने में महारत हासिल है, जिनसे समाज बंटे और विभिन्न वर्गों में वैमनस्यता उत्पन्न हो।
पिछले माह (फरवरी 2011) की 10 से 12 तारीख के बीच मध्यप्रदेष के मंडला जिले में “नर्मदा सामाजिक कुंभ“ का आयोजन किया गया था। आयोजन का घोषित उद्देष्य कुछ भी रहा हो, उसका वास्तविक उद्देष्य ईसाईयों के विरूद्ध विषवमन करना और आदिवासियों में फूट डालना था। नर्मदा कुंभ की तैयारी के दौरान, ईसाईयों के विरूद्ध जमकर दुष्प्रचार किया गया। हजारों की तादाद में जहरीले पर्चें बांटे गए। बडे़-बड़े होर्डिंग लगाए गए और पोस्टर चिपकाये गए।
इन सबमें ईसाईयों को देश का दुश्मन निरूपित किया गया। उन पर लालच, धोखाधड़ी व डरा-धमकाकर धर्मपरिवर्तन करवाने का गंभीर आरोप लगाया गया। धर्मपरिवर्तन को गलत ठहराने के लिए महात्मा गांधी और स्वामी विवेकानंद के कथनों को संदर्भ से हटकर और तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। जैसे गांधीजी का एक ऐसा उद्धरण पोस्टरों में छापा गया, जिसमें कहा गया था कि “मैं आजाद भारत में सबसे पहले धर्म परिवर्तन को प्रतिबंधित करने वाला कानून बनाउंगा।“
ईसाईयों के अलावा आदिवासियों की आस्था पर भी हमला किया गया । भारतीय जनता पार्टी समेत पूरा संघ परिवार यह सिद्ध करने पर आमादा है कि आदिवासी, हिन्दू हैं। अधिकांश आदिवासियों को इस मान्यता पर सख्त आपत्ति है। आदिवासियों का यह दावा है कि उनका अपना धर्म एवं अपनी आस्थाएं हैं। हिन्दुओं के देवी-देवता उनके आराध्य नहीं है। वे मुख्यतः प्रकृतिपूजक हैं।
आदिवासियों के प्रवक्ताओं ने यह भी कहा कि जो चार प्राचीन कंभ आयोजित होते हैं, वे उनमें तक शामिल नहीं होते इसलिए मंडला में आयोजित कंभ में उनके शामिल होने का प्रश्न ही नहीं उठता। आदिवासियों की मान्यता है कि नर्मदा एक क्वांरी कन्या के समान है इसलिए नर्मदा में स्नान करना तो दूर की बात, वे नर्मदा के पानी में पैर तक नहीं रखते। उन्होंने अपने रवैये को स्पष्ट करते हुए मंडला के आसपास सभायें भी कीं। कुल मिलाकर, संघ परिवार मंडला जिले और आसपास के क्षेत्रों में तनाव पैदा करने में सफल रहा।
भोपाल के नाम परिवर्तन के साथ-साथ शहर पर एक ऐसा फैसला लाद दिया गया है जिससे भाजपा की विरोधी पार्टियों, ट्रेड यूनियनों और यहां तक कि बुद्धिजीवियों में आक्रोष व्याप्त है। भोपाल जिला कलेक्टर ने एक आदेश जारी कर वे स्थान निर्धारित कर दियो है जहां सभायें, रैलियां या अन्य आंदोलन किये जा सकेंगे हैं। आदेश में यह भी कहा गया है कि इन स्थानों पर प्रदर्शन , सभाएं आदि आयोजित करने के लिए जिला प्रशासन की सहमति प्राप्त करनी होगी। इससे भी ज्यादा आपत्तिजनक आदेश का वह हिस्सा है जिसमें सूचीबद्ध स्थानों का आंदोलन के लिए उपयोग करने के लिए एक मोटी रकम किराये के रूप में दिया जाना निर्धारित किया गया है। कुछ स्थानों का दैनिक किराया तो तीस हजार रूपये तक निर्धारित किया गया है। इस आदेश का जमकर विरोध हो रहा है। इसे नागरिकों की आजादी पर कुठाराघात माना जा रहा है। इस आदेश के आलोचक कह रहे हैं कि जिस पार्टी ने आपातकाल का विरोध किया था, जिस पार्टी ने सेन्सरशिप का विरोध किया था, वही पार्टी जनता के बोलने और असहमति व्यक्त करने के अधिकार को छीन रही है।
0 Comments
Post a Comment