मदरसा, आरक्षण और आधुनिक शिक्षा



मदरसा अरबी भाषा का शब्द है एवं इसका अर्थ है शिक्षा का स्थान। इस्लाम धर्म एवं दर्शन की उच्च शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्थाऐं भी मदरसा ही कहलाती है। वास्तव में मदरसों को तीन श्रेणियो  में बंटा जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा देने वाले मदरसों को मक़तब कहते हैं। यहां इस्लाम धर्म का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाता है। मध्यम श्रेणी के मदरसों में अरबी भाषा में कुरान एवं इसकी व्याख्या, हदीस इत्यादि पढ़ाई जाती है। इससे भी आगे उच्च श्रेणी के मदरसे होते हैं जिन्हें मदरसा आलिया कहते हैं। इनके अध्ययन का स्तर बी.ए. और एम.ए. का होता है। इनमें अरबी भाषा का साहित्य, इस्लामी दर्शन, यूनानी विज्ञान इत्यादि विषयों का अध्ययन होता है। इन उच्च शिक्षा संस्थानों का पाठयक्रम दार्से-निजामी कहलाता है। इसे मुल्ला निजामी नाम के विद्वान ने अठाहरवीं शताब्दी में बनाया था एवं ये आज भी वैसे ही चल रहे हैं। उदारवादी एवं कटटरपंथी मुसलमानों में इस मुददे पर बहस छिड़ी हुई है कि क्या इस पाठयक्रम को ज्यों का त्यों जारी रखा जाये या परिवर्तित कर दिया जाये?

मदरसे काफी पुराने पाठ्यक्रम और इस्लामी शिक्षा पद्धति पर ही चल रहे हैं। पिछले कुछ समय से मदरसों की भूमिका को लेकर लगातार बहस होती रही है, मदरसों पर चरमपंथ को बढ़ावा देने के आरोप भी लगते रहे हैं। पाकिस्तान की लाल मस्ज़िद के मदरसे के छात्रों और सैनिकों के बीच टकराव के बाद यह बहस एक बार फिर तेज़ हुई। मालूम हो कि राजेन्द्र सच्चर कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा के अवसरों से वंचित हैं। अब उत्तर प्रदेश सरकार ने जहां नया पाठयक्रम नए सत्र से लागू करने का फैसला लिया है वहीं पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने मदरसों की पढ़ाई को आज की जरूरतों के हिसाब से बदलना तय किया है और भी राज्यों के मदरसों में तकनीकी शिक्षा की पहल की जा रही है।

 भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए एक कानून बनाने का प्रस्ताव रखा है, जिसका उददेश्य पाठयक्रम और पढ़ाई की व्यवस्था को बेहतर बनाना बताया जा रहा है। सरकार मदरसों को सीबीएसई की तरह केन्द्रीय मदरसा बोर्ड के तहत लाने के लिए एक कानून पारित करना चाहती है। सरकार का कहना है कि इससे मदरसों की पढ़ाई को आधुनिक और उपयोगी बनाया जा सकेगा। प्रधानमंत्री सहित कई लोग इसका पुरजोर हिमायत कर रहे हैं, वहीं इसका विरोध करने वाले भी हैं। 

हाल ही में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने कहा कि मदरसों में सरकारी हस्तक्षेप कबूल नहीं किया जायेगा। उन्होनें कहा कि केन्द्रीय मदरसा बोर्ड के प्रस्ताव को हम दोनों शैक्षिक संस्थाओं के लिए हानिकारक मानते हैं क्योकिं मदरसों के जरिए इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। इस वजह से उसमें हम किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहते। 

इसी सिलसिले में हाल ही में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने केन्द्रीय मदरसा बोर्ड की स्थापना के संबंध में मुस्लिम सांसदों की एक बैठक बुलाई। जिसमें सरकार ने अपनी बात को स्पष्ट किया कि वो मदरसों के अंदरूनी मामलों में दखलअंदजी नहीं करना चाहती है, वह तो मदरसों को पारंपरिक मजहबी तालीम के साथ साथ आधुनिक शिक्षा से भी लैस करना चाहती है और इसके लिए आर्थिक मदद भी देना चाहती है। ऐसा तो नहीं है कि मुस्लिम तालीमी इदारे या दीगर मुस्लिम संस्थाऐं सरकार की आर्थिक मदद से फायदा न उठाती हों या सरकारी सब्सिडी को हराम समझती हो  

वैसे भी मदरसों के आधुनिकीकरण की सिफारिश तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी की गई है। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मदरसों में मुस्लिम छात्रों की सिर्फ 4 फीसदी तादाद है, बाकी 96 फीसदी मुस्लिम बच्चे सरकारी या गैरसरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। कमेटी की रिपोर्ट में यह सिफारिश भी की गई है कि तालीम के क्षेत्र में मुसलमानों को आबादी के दूसरे हिस्सों के बराबर खड़ा करने के लिए यह जरूरी है कि मुसलमानों की ज्यादा आबादी वाले इलाकों में केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय या कस्तूरबा गाँधी  विद्यालय खोले जाएं। असल में सरकार की नीयत पर कुछ मुसलान इसलिए शक कर रहे हैं कि ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में अभी तक ऐसा कोई विद्यालय नहीं खोला गया और न ही इस बारे में सरकार की तरफ से कोई बैठक बुलाई गई।  

इसके विपरीत केन्द्रीय मदरसा बोर्ड की स्थापना के बारे में सरकार जल्दबाजी में दिखलाई देती है। ऐसे में सिब्बल साहब को यही सुझाव दिया जा सकता है कि मुसलमानों को कौमी तालीमी धारा में लाने की शुरूआत वह मुस्लिम बहुल इलाकों में सच्चर केटी के सुझावों के अनुसार विद्यालय खोलें। इसके बाद मदरसों का आधुनिकीकरण हो। अगर ऐसा होता है तो वो लोग खुद ही हाशिये पर चले जायेंगे, जो मदरसों पर अपनी इजारेदारी कायम रखने के मकसद से मदरसा बोर्ड की स्थापना की मुखालफत कर रहे हैं। जहां तक मदरसों का ताल्लुक है, कुछ को छोड़ कर बाकी की हालत बहुत ही खराब है। उनमें बच्चे भेड़ बकरियों की तरह रहते हैं और खैरात, ज़कात, फितरे और सदके की रकम पर पल रहे हैं। जबकि इन मदरसों के मालिक और संचालक अच्छी जिंदगी जी रहे हैं। इन मदरसों में पढ़ने वाले ज़्यादातर बच्चो  का संबंध गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले परिवारों से होता है। कमजोर वर्ग के अनेक मुस्लिम परिवारों के लिए मदरसे ही अपने बच्चों को साक्षर बना पाने का एकमात्र स्त्रोत होते हैं और यह बात अचानक नहीं हो गई है कि मदरसों में सुधार या आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा देने की मुहिम आगे बढ़ाने की जगह सिर्फ उनकी संख्या बढ़ाने या उनमें पढ़ने वालों की संख्या बढ़ने का प्रमाण ही सामने आता है। चूंकि इस व्यवस्था में निचली जातियों और निचले वर्ग के बच्चे पढ़ने आते हैं, इसलिए वहां के पाठयक्रम और शिक्षण विधि में जानबूझकर संवाद, बहस, आलोचना और प्रश्नाकुलता जैसी चीजों को उभरने नहीं दिया जाता और उनसे शिक्षा पाकर निकलने वाले भी उसी दकियानूसी को जारी रखते हैं, जो नेतृत्व चाहता है। वहां से निकलने वाले बच्चे भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाते। समाज की सामाजिक, आर्थिक परेशानियो  की तो इस पढ़ाई में कोई चर्चा ही नहीं होती , धार्मिक सवालों पर भी तार्किक और खुले ढंग से चर्चा नहीं होती। मदरसों की तालीम पूरी करने के बाद ये बच्चे या तो मस्जिदों में इमाम और मुअज्जिन बनते हैं या फिर हज़ार-पांच सौ रूपये की टीचरी करते हैं। 

इस तरह देखा जाए तो ज्यादातर मदरसे अर्धशिक्षित, गरीब मुसलमानों की एक ऐसी फौज तैयार कर रहे हैं जो जमाने की दौड़ में सबसे पीछे ओर खस्ताहाल हैं। क्या यही हम चाहते है कि गरीबी की रेखा से नीचे वाले परिवारों के बच्चे मदरसे और म्यूनिसीपल स्कूलों में पढ़ें और खुशहाल परिवार अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाएं। अगर लोग ऐसा सोचते हैं तो इससे साफ होता है कि वे मॉडर्न तालीम पर अपनी पकड़ रखना चाहते हैं, जबकि गरीब मुसलमानों को मदरसा और म्युनिसिपल स्कूलों की तालीम पर छोड़े रखना चाहते हैं। इस तरह तो मदरसों को रवायती मजहबी तालीम के साथ आधुनिक तालीम से भी जोड़ने के लिए सरकार और सिब्बल साहब को एक लंबी जददोजहद करनी होगी। उन्हें मुस्लिम समाज को अपने विश्वास में लेकर उसके जेहन में यह बिठाना होगा कि अगर मदरसे से एक ऐसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति निकलता है जो एक दीनदार मुसलमान होने के साथ-साथ एक अच्छा डॉक्टर, इंजीनियर या फिर अच्छे पद पर पहुंचता है तो इसमें हर्ज ही क्या है ?

आज के समय में जिस तरह से मदरसों की हालत खराब होती चली जा रही है और वहां पढ़ाने वाले शिक्षकों को जिस तरह कम पैसों में अपना खर्च चलाना पड़ता है, उस स्थिति को बदलने में इस तरह का कोई बोर्ड काफी मदद कर सकता है। आखिर सरकारी स्तर पर संचालित किये जाने वाले वक्फ़ बोर्ड भी तो अपना काम कर ही रहे हैं। हां इतना जरूर है कि कुछ लोग इसके माध्यम से अपने फायदे की बात कर रहे हैं। अगर सरकारी मदद मिलने से मदरसों में  शैक्षणिक माहौल में सुधार होता है तो उससे किसका भला होगा ? आखि़र सरकार की इस मंशा पर क्यों पानी फेरने का काम किया जा रहा है ? आज की तारीख में मदरसों के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे स्वयं अपना खर्च चलाने के लिए अच्छी व्यवस्था कर पाएं ! इस स्थिति में अगर सरकार से कुछ पैसा इन मदरसों को मिल जाता है जिससे यहां पर भवन और अन्य बुनियादी सुविधाओं को बेहतर किया जा सके तो यह किस तरह से समाज के लिए हितकर नहीं होगा ? हां एक बात में सरकार का हस्तक्षेप नहीं बर्दाश्त किया जा सकता कि ये मदरसे वहां पर दीनी तालीम के अलावा कुछ और नहीं पढ़ाना चाहें तो कोई जबरदस्ती न की जाए। इतना तो किया ही जा सकता है कि विकास कर रहे मुस्लिम देशों में मदरसों कि व्यवस्था को देख समझकर भारत में भी उनका उदाहरण देकर अच्छी शिक्षा देने का प्रबंध किया जा सकता है। 

इस तरह के काम केवल मिलकर ही किये जा सकते हैं। भारत में हिंदूओ की बहुतायत होने के कारण सरकार में भी यही अधिक हैं, बस यही बात मुस्लिम समाज को कहीं से शंकालु बना देती है कि कहीं किसी दिन इन मदरसों पर अन्य कोई बंधन न लगा दिया जाये ? अगर सरकार पूरे मुस्लिम समाज के भले की बात कर रही है तो इसके पक्ष में मुस्लिम समाज को ही मंथन करने की आवश्यकता अधिक है। मुस्लिम संदर्भ में करीब दसेक साल से मदरसा और आरक्षण अक्सर संवाद के केन्द्र में हैं। कुछ लोग इन दोनों यानी मदरसा और मुसलमानों के आरक्षण को राष्ट्रद्रोहिता की श्रेणी में रखने के एक ज़िद तक हिमायती हैं। उधर मुस्लिम मौलानाओं ने मदरसे की खिड़कियां और दरवाज़े बंद कर दिए हैं कि कहीं हल्की सी भी बयार आधुनिक शिक्षा की न पहुंच जाय और इस्लाम खतरे में न पड़ जाय ! अब ज्यादातर अनपढ़ मुसलमान क्या करें ? मुसलमानों की सियासत करने वालों ने भी कभी इन्हें अंधकूप से बाहर निकालने की कोशिश नही की। समाज की निरक्षरता का फायदा उन्हें यह मिलता रहा कि उन्हें बरगलाना सुविधाजनक हुआ। जबकि यह तो सब जानते हैं कि बिना आधुनिक शिक्षा के विकास की बात बेमानी है। आरक्षण जैसी वैसाखी से हम कितनी दूर तक चल पायेंगे ?

वैसे भी मुस्लिम भाईयों को याद रखना होगा कि अल्लाह और रब के बाद कुरान में सबसे ज्यादा आने वाला शब्द है ज्ञान, शिक्षा ! अगर हम इतिहास की तरफ देखें तो इसके लिए masjid  को ऐसे केन्द्र की शक्ल में विकसित किया गया, जहां पर धार्मिक शिक्षा के साथ राजनीति और सामाजिक शिक्षा भी दी जाती थी। मस्ज़िद के साथ पुस्तकालय की भी व्यवस्था होती थी। मदीना और दमिश्क में बनी मस्ज़िद में प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी और यहां पर लड़के और लड़कियों दोनों के पढ़ने की व्यवस्था थी। लेकिन मुगल शासन के पतन और ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना के सााथ ऐसे केन्द्र तेज़ी से कम होते गए और संसाधनों के अभाव में दम तोड़ते गए।  

सवाल जरूरी है कि आखिर बिना सरकार की आर्थिक सहायता के मदरसों में आधुनिक शिक्षण की व्यवस्था कैसे की जाए ? मुसलमान देश के दलितों से इस अर्थ में खुश किस्मत हैं कि उनके पास मुस्लिम राजाओं, नबावों और सामंतों की समाज हितार्थ दान की गई ढेरों संपत्तियां हैं। जिन्हें वक्फ जायदाद कहते हैं। लगभग चार लाख एकड़ भूमि पर अवस्थित तीन लाख रजिस्टर्ड संपत्तियां वक्फ की हैं। जिनकी आय हजार करोड़ है। अगर वक्फ जायदाद का अच्छी तरह प्रबंध किया जाये तो इसकी आय से मुसलानों की ढेरों समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। लेकिन आज इतना भी वक्फ बोर्ड को हासिल नहीं होता और जो होता है उसका भी सही इस्तेमाल नहीं होता। दरअसल कुल वक्फ संपत्तियों में से सत्तर फीसदी पर अवैध कब्ज़ा है या उसे किसी तरह बेच दिया गया है। शेष तीस फीसदी जो है उसका दुरूपयोग ही हो रहा है। जबकि 1954-55 एक्ट स्पष्ट लिखता है कि केन्द्रीय सरकार राज्य सरकार को पूर्ण अधिकार देती है कि वह वक्फ बोर्ड कायम करे। उसे सही ढंग से चलाये और उसकी आय को मुसलमानों की प्रगति व उन्नति में खर्च किया जाय। लेकिन वक्फ बोर्ड पर काबिज लोग ऐसा होने नहीं देना चाहते । अगर इन संपत्तियों पर शिक्षण संस्थाऐं, अस्पताल आदि खोले जाएं और उसकी आय को मदरसों पर खर्च किया जाएं तो आधुनिक शिक्षा का यथोचित प्रबंध हो सकता है। 

उ.प्र. सरकार बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ने मदरसे में पढ़ने वाले छात्रों के लिए नौकरियों का बाज़ार बढ़ाने के उददेश्य से पाठयक्रम में बदलाव करके अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और कम्प्यूटर को अनिवार्य विषय बना दिया है। जब केन्द्र सरकार की ओर से केन्द्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की बात आई तो जमीयत की ओर से इसका विरोध किया गया। देवबंद सहित मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले कुछ प्रमुख और प्रभावशाली माने जाने वाले संस्थानों ने इस पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई। अब सरकार असमंजस की स्थिति में है कि बोर्ड बनाने की प्रक्रिया को आगे ले जाए या नहीं। सरकार के मसौदे पर बैठकर कई उलेमा विचार विमर्श कर चुके हैं और इस पर सहमति भी बनी कि कुछ सुधारों के बाद इसे लागू किया जा सकता है। मसलन, देवबंद और कई अन्य गुटों को तो इसी प्रक्रिया में सरकार ने शामिल किया है पर सूफी रवायत को मानने वालों का प्रतिनिधित्व नहीं है। जानकार बताते हैं कि नौ राज्यों में राज्यस्तर पर मदरसा बोर्ड बना हुआ है लेकिन कई मुस्लिम संगठनों को लगता है कि इन बोर्डों से उन्हें मदद कम मिली है, सरकारी तानाशाही ज़्यादा। केन्द्रीय बोर्ड पर विरोध की एक वजह यह भी हो सकती है। फिर मौलानाओं का कहना है कि सरकार को केवल मदरसों में पढ़ रहे बच्चों की ही परवाह क्यों है ? नए विश्वविद्यालयों का अल्पसंख्याकों के लिए निर्माण, पहले से मौजूद विश्वद्यिालयों को मुस्लिम युनिवर्सिटी का दर्जा और उन्हें मजबूत करने के सवाल पर सरकार गंभीर क्यों नहीं है ? मुस्लिम समाज अब बदल रहा है, उसे भावनात्मक मुददों से ज़्यादा शिक्षा, रोजगार, अधिकार और विकास की चिंता सता रही है। वैसे भी आज का दौर प्रतियोगिता का है जिसमें शिक्षा के जरिए ही मुसलमान दूसरे से मुकाबला कर सकते हैं। 

राखी रघुवंशी
ए/40, आकृति गार्डन्स,
नेहरू नगर, भोपाल
मो.- 08120288460