पत्रकार

चुहरुक- चुहरुक चल, पड़ी पत्रकार की रेल।
झोले भीतर सब रखा, चन्दन चूना तेल॥
ऊपर से सब रंग नवा, अहंकार के में चूर।
भीतर से कोई कह रहा, भक ससुरे मजदूर॥
चाहे कुछ भी बांच, लो नहीं पड़ेगा फर्क।
गुरवर कुंजी दे गए, सब कुछ है संपर्क॥
भूखा नंगा मर गया , उस टाकीज के पास।
एक कलम की हेडिंग है, अज्ञात पड़ी है लास॥
छुटभैया अब  सारे हैं , पत्रकार की नोक।
बड़भैया की नज़र में , रक्तपिपासु जोंक ॥



एक बहुत छोटी सी चिड़िया, भ्रम और भ्रम

चतुर कोई नहीं था
न पेड़
न चिड़िया
बस दोनों को भ्रम था
की किसी दिन
उनमे से कोई एक
चतुर न हो जाये

फिर किसी एक दिन
जब उनमे से कोई चतुर हो गया
तब दूसरे  का कुछ और टूटा
जो कभी जोड़ा नहीं जा सकेगा
भ्रम बना रहेगा  वैसे ही

अब  चिड़िया और पेड़ की कहानी
कुछ  दूसरी  तरह से कही जाने लगी

चिड़ियाँ अब शाम को घर नहीं  आयेंगी
और दिन में जमीन पे लोटती मिलेंगी





अपनी  इसी कुर्सी पे बैठे हुए

अपनी इसी कुर्सी पे बैठे हुए मैंने लिखे थे
कुछ जनगीत
राज़ तो  रहेगा ही ये सत्य
की कितना छली था मैं
रोग के तरह लग  जाता  है कभी-कभी
क्रांति का वो एक  वाक्य

..अरे मार्क्स तुम्हे ज़बरदस्ती पढ़ा गया !!

हटाओ यार !!
मैं दाढ़ी और सिगरेट वाला जीव
आम कहाँ रहा ?
यहाँ-वहां अपने नाम को इत्र की तरह  छिड़कने वाला
मैं
कुछ शातिर जुमले लेके घूमता हूँ
सावधान ..!!

शुद्ध दोभाषिया
'लोक' लेता हूँ पीड़ा
'झोंक' देता हूँ तुम्हे मार्क्स
वहां
जहाँ मुझे मालूम है की वजीर कभी नहीं मरेगा !!

अपनी इसी कुर्सी पे बैठे हुए
मैंने अपने जूते अपने सर पे रख लिए..!!

 उधर एक मंज़र है..

उधर एक मंज़र है जंगल के पीछे 
वहां लोग नंघे है भूखे हैं खीझे 
यहाँ हम !
हम बहुत चलाक लोग हैं भाई 
पूरी दुनिया पे कविता 
यहीं से लिख डालेंगे 
और वहां कई-कई पीढियां मरती रहेंगी

रितेश मिश्रा