व्यंग्य
हमारे देष में समाजवादी माने जानी वाली पार्टियां आपस में लडने के लिये सिद्धहस्त मानी जातीं है। एक जमानें में एक पार्टी थी। आज सैकडों हैं। सब जेपीवादी। लोहियावादी। समाजवादी। यही लालूजी एक जमानें में जनता दल नामक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे। आपस में नहीं बनी। पार्टी टूट गई। लालूजी ने नई पार्टी बना डाली- राष्ट्रीय जनता दल। यह पार्टी देश के सिर्फ एक राज्य में जीवित है और नाम राष्ट्रीय है। संभव है कल यह पार्टी एक जिले तक सीमित हो जाये तो नाम अंतर्राष्ट्रीय हो जाये। इसी तरह शरद यादव भी जनता दल के अध्यक्ष थे एक जमाने में। जब उन्हें पार्टी तोडकर नई पार्टी बनानें का अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होने नाम रखा- जनता दल यूनाईटेड! पार्टी को डिवाइड कर यूनाईटेड नाम हमारे ऐसे ही जननेता रख सकते हैं। बिहार की विभिन्न पार्टियों के नेताओं के तमाम पार्टियों में आवागमन के चित्र बनाये जाये ंतो बच्चों के लिये मजेदार एनीमेशन गेम तैयार किये जा सकते हैं। अगर पर्याप्त मुआवजा मिले तो यह आइडिया मैं चायनीज मोबाइल कंपनियों को बेचने के लिये तैयार हूं।
चुनाव की बिसात बिछ चुकी है और अब हर दिन मौसम रंगीन होता जायेगा। इतना रंगीन कि सब घोटाले दब जायेंगे और जाति याद रह जायेगी। हमारे देश में जाति और धर्म राजनीति के सतत और आजमाये हुये औजार हैं। चुनाव छोटा हो या बडा ये काम अवष्य आते हैं। बिहार में जनता परिवार के पास जाति की पूंजी है और भाजपा के पास धर्म की राजनीति का इतिहास। ये मुकाबला मजेदार रहने वाला है। लेकिन दोनो किस्म की राजनीति में एक बुनियादी फर्क है। जाति की राजनीति करने से आप सत्ता हासिल कर सकते हैं और बदले में जाति को भी लाभ होता है। यहां राजनीति मजबूत होती है और जाति भी। पर धर्म की राजनति से राजनीति को तो लाभ होता है और इसके सर पर सवार होकर भी सत्ता में पहुंचा जा सकता है पर यहां धर्म हार जाता है। अर्थात वे सारे नैतिक मूल्य पराजित होते हैं जिनकी स्थापना धर्म करता है। आप कहना चाहें तो कहते रहें कि जाति का मजबूत होना और धर्म के नैतिक मूल्यों का खत्म होना, दोनो ही गलत हैं और लोकतंत्र के लिये ठीक नहीं। आपकी मर्जी- पर फिर आप बिहार चुनाव के लिये योग्य उम्मीदवार नहीं हैं।
योग्य तो मुलायम सिंह थे। इसीलिये भाई लोगों ने उनको जनता परिवार का अध्यक्ष चुन लिया। पर बिहार में पार्टी की हैसियत नहीं थी तो मनमाफिक सीट देने से मना कर दिया। अध्यक्ष महोदय नाम के ही मुलायम निकले और समधी जी के प्रति पूरी कठोरता दिखाते हुये परिवार छोड कर चलते बने। अरे भाई राजनैतिक हैसियत का विस्तार सीटों से होता है अध्यक्षी से नहीं। और इस अध्यक्षी के चक्कर में केंद्र सरकार की नजरों में खटक जाओ सो अलग। नेताजी ने ऐसी पटखनी मारी कि समधी जी भी चित्त हो गये। उधर भाजपा भी मांझी के सहारे नैया पार लग जाने की उम्मीद में लगी हुई है। पर वे भूल गये हैं कि ये कोई दषरथ मांझी नहीं है जो पहाड खेद कर रास्ता बना दें बल्कि वे हैं जिन्होने अपने सुशासन बाबू की नैया बीच में ही डुबा दी थी। अपने बिहारी बाबू यानि शत्रुध्न सिन्हा उर्फ शाॅटगन भी फायर करने में लगे हुये हैं। यह और बात है कि वे उनके लिये मिस फायर हो रहे हैं और उनकी पार्टी के लिये उनकी हैसियत बैक फायर से अधिक नहीं नजर आती। हां इतना अवश्य है कि उनका नाम वाकई शत्रुओं की लिस्ट में लिखा जाना तय हो गया है।
अभी तो यह आगाज है। बिहार चुनाव दीवाली तक का मेला है जो खत्म होते ही कई का दिवाला निकाल देगा। पता नहीं कौन गठबंधन चुनाव जीतेगा पर लोकतंत्र के लिये किसी बठी जीत की कोई आशा नही।
- सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय
बिहार के चुनाव में शत्रु बने शत्रु और मुलायम हुये कठोर
एक बार मैं मित्रों के साथ लखनउ से इलाहबाद जा रहा था सडक मार्ग से। रास्ते में जगह जगह शराब की दुकानों पर लगे बोर्ड देखकर मैं दंग रह गया। एैसे बोर्ड अपने प्रदेश में मैने कभी नहीं देखे थे। हर दुकान पर बोर्ड लगे थे- महा ठंडी बियर उपलब्ध है। भयंकर ठंडी बियर। भयानक ठंडी बियर यहां मिलती है। ऐसे ही बिहार चुनाव के समय वहां के सामाजिक समीकरण दिखाई पडते हैं- अतिपिछडे, महादलित इत्यादि। हर नेता के पास एक विशिष्ट जाति और एक सामाजिक वर्ग अलग से होता है। अगर यह धरोहर आपके पास नहीं है तो बिहार चुनाव में आपके लिये कोई जगह नहीं। परसाई जी ने जो व्यंग्य बिहार चुनाव और जातीय समीकरणों को लेकर लिखा था वह आज इक्कीसवीं सदी में छाती ठोककर सच साबित हो रहा है। हर गठबंधन विकास की बात करता हुआ अपने पाॅकेट में मौजूद जातियों की गिनती करा कर बोल रहा है कि अब हमें हरा कर बताओ।हमारे देष में समाजवादी माने जानी वाली पार्टियां आपस में लडने के लिये सिद्धहस्त मानी जातीं है। एक जमानें में एक पार्टी थी। आज सैकडों हैं। सब जेपीवादी। लोहियावादी। समाजवादी। यही लालूजी एक जमानें में जनता दल नामक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे। आपस में नहीं बनी। पार्टी टूट गई। लालूजी ने नई पार्टी बना डाली- राष्ट्रीय जनता दल। यह पार्टी देश के सिर्फ एक राज्य में जीवित है और नाम राष्ट्रीय है। संभव है कल यह पार्टी एक जिले तक सीमित हो जाये तो नाम अंतर्राष्ट्रीय हो जाये। इसी तरह शरद यादव भी जनता दल के अध्यक्ष थे एक जमाने में। जब उन्हें पार्टी तोडकर नई पार्टी बनानें का अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होने नाम रखा- जनता दल यूनाईटेड! पार्टी को डिवाइड कर यूनाईटेड नाम हमारे ऐसे ही जननेता रख सकते हैं। बिहार की विभिन्न पार्टियों के नेताओं के तमाम पार्टियों में आवागमन के चित्र बनाये जाये ंतो बच्चों के लिये मजेदार एनीमेशन गेम तैयार किये जा सकते हैं। अगर पर्याप्त मुआवजा मिले तो यह आइडिया मैं चायनीज मोबाइल कंपनियों को बेचने के लिये तैयार हूं।
चुनाव की बिसात बिछ चुकी है और अब हर दिन मौसम रंगीन होता जायेगा। इतना रंगीन कि सब घोटाले दब जायेंगे और जाति याद रह जायेगी। हमारे देश में जाति और धर्म राजनीति के सतत और आजमाये हुये औजार हैं। चुनाव छोटा हो या बडा ये काम अवष्य आते हैं। बिहार में जनता परिवार के पास जाति की पूंजी है और भाजपा के पास धर्म की राजनीति का इतिहास। ये मुकाबला मजेदार रहने वाला है। लेकिन दोनो किस्म की राजनीति में एक बुनियादी फर्क है। जाति की राजनीति करने से आप सत्ता हासिल कर सकते हैं और बदले में जाति को भी लाभ होता है। यहां राजनीति मजबूत होती है और जाति भी। पर धर्म की राजनति से राजनीति को तो लाभ होता है और इसके सर पर सवार होकर भी सत्ता में पहुंचा जा सकता है पर यहां धर्म हार जाता है। अर्थात वे सारे नैतिक मूल्य पराजित होते हैं जिनकी स्थापना धर्म करता है। आप कहना चाहें तो कहते रहें कि जाति का मजबूत होना और धर्म के नैतिक मूल्यों का खत्म होना, दोनो ही गलत हैं और लोकतंत्र के लिये ठीक नहीं। आपकी मर्जी- पर फिर आप बिहार चुनाव के लिये योग्य उम्मीदवार नहीं हैं।
योग्य तो मुलायम सिंह थे। इसीलिये भाई लोगों ने उनको जनता परिवार का अध्यक्ष चुन लिया। पर बिहार में पार्टी की हैसियत नहीं थी तो मनमाफिक सीट देने से मना कर दिया। अध्यक्ष महोदय नाम के ही मुलायम निकले और समधी जी के प्रति पूरी कठोरता दिखाते हुये परिवार छोड कर चलते बने। अरे भाई राजनैतिक हैसियत का विस्तार सीटों से होता है अध्यक्षी से नहीं। और इस अध्यक्षी के चक्कर में केंद्र सरकार की नजरों में खटक जाओ सो अलग। नेताजी ने ऐसी पटखनी मारी कि समधी जी भी चित्त हो गये। उधर भाजपा भी मांझी के सहारे नैया पार लग जाने की उम्मीद में लगी हुई है। पर वे भूल गये हैं कि ये कोई दषरथ मांझी नहीं है जो पहाड खेद कर रास्ता बना दें बल्कि वे हैं जिन्होने अपने सुशासन बाबू की नैया बीच में ही डुबा दी थी। अपने बिहारी बाबू यानि शत्रुध्न सिन्हा उर्फ शाॅटगन भी फायर करने में लगे हुये हैं। यह और बात है कि वे उनके लिये मिस फायर हो रहे हैं और उनकी पार्टी के लिये उनकी हैसियत बैक फायर से अधिक नहीं नजर आती। हां इतना अवश्य है कि उनका नाम वाकई शत्रुओं की लिस्ट में लिखा जाना तय हो गया है।
अभी तो यह आगाज है। बिहार चुनाव दीवाली तक का मेला है जो खत्म होते ही कई का दिवाला निकाल देगा। पता नहीं कौन गठबंधन चुनाव जीतेगा पर लोकतंत्र के लिये किसी बठी जीत की कोई आशा नही।
- सत्यम सत्येन्द्र पाण्डेय
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