निदा फ़ाज़ली
सारी लाशें एक सी थीं
वो ही आखें
मेरे जैसी
वो ही टांगें
तेरे जैसी
सारे बच्चे बच्चों जैसे
सारे बूढ़े बूढ़ों जैसे
सारी लाशें चुप थीं
लेकिन
मुर्दाघर के चारों जानिब
शोरगुल था
मौत के सौदागरों का
जि़न्दगी के दुष्मनों का
मज़हबों का, सरहदों का
चोटियों में
दाढि़यों में
बिन्दियों में
नाक से नीचे की नंगी
झाडि़यों में
जिन्दगी को जिस तरह
टुकड़ों में बांटा जा रहा था
मौत को भी
जात और धर्मों से छांटा
जा रहा था
कौन किसका
किसके कितने
ग़म तो ग़म है
केसरी क्या और हरा क्या
मेरे मातम में, वहां जितने भी थे
इन्सान थे वो
टूटा-फूटा हिन्दूस्तान
थे वो
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