नमो के इतिहासबोध पर एक नज़र

सुभाष गाताड़े

'से पागलपन अवश्य कह सकते हैं, मगर उसके पीछे भी एक प्रणाली दिखती है।'

 - हैम्लेट, शेक्सपीयर

नए शब्दों को गढ़ने में माहिर विद्वतजनों के लिए एक बेहद जरूरी काम आ उपस्थित हुआ है। मसला है दक्षिण एशिया के इस हिस्से में राजनीतिक भाषणों के नाम पर जो बातें परोसी जाती है, उन्हें क्या नाम दिया जाए ? मुमकिन है कि कोई लफ्ज हो और इस कलमघिस्सु को पता नहीं हो।

दरअसल मामला इस वजह से भी अहम बना है क्योंकि 2014 के चुनावों की चर्चाएं चल पड़ी हैं और राष्ट्रीय परिदृश्य पर नमो अर्थात नरेन्द्र मोदी का आगमन हो चुका है और वक्तृत्वकला के नाम पर हमें अर्धसत्यों, गल्पों और पूरी तरह से निरर्थक बातें परोसी जा रही हैं।

पिछले दिनों गुजरात में एक अस्पताल के उदघाटन के अवसर पर अपनी तकरीर में उन्होंने कहा है की , भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी श्यामजी कृष्ण वर्मा - जो गुजरात में जन्मे थे, और जिन्होंने यूरोप में रह कर स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी भूमिका अदा की, लन्दन के 'इंडिया हाउस' बनाने में योगदान दिया, 'इण्डियन सोशलॉजिस्ट नाम से पत्रिका का संचालन किया और जिनकी मृत्यु 1930 में जिनेवा में हुई -! पूरी बात कहने के बाद 'भूलचूक' कह कर सारे मसले को हल्का बनाने की कोशिश की है, वह इसी की एक बानगी मात्रा है।

मीडिया में इस बात की चर्चा हुई है कि किस तरह वह श्यामजी कृष्ण वर्मा के बजाय हिन्दु महासभा के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी - जिन्होंने संघ के सुप्रीमो गोलवलकर की सहायता से भारतीय जनसंघ की नींव डाली थी और एक तरह से बहुसंख्यकवादी राजनीति को मजबूती प्रदान की थी - का उल्लेख करते रहे; मगर क्या एक महान स्वतंत्रता सेनानी को एक बहुसंख्यकवादी राजनीति के शिल्पकार से प्रतिस्थापित करने के लिए क्या उन्हें समूचे मुल्क की अवाम से माफी नहीं मांगनी चाहिए।

कोई भी ऐसा शख्स जिसने इतिहास की किताबें पलटी हों या जो कमसे कम संघ परिवार द्वारा संचालित स्कूलों में नहीं गया हो, बता सकता है कि मुखर्जी बंगाल में जनमे थे (1902), युवावस्था से ही हिन्दूवादी राजनीति से जुड़े, हिन्दू महासभा के नेता बने थे, 1942 में जब अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया गया था और पूरे देश में जनता सड़कों पर थी, तब सावरकर के आवाहन के मुताबिक मुस्लिम लीग के साथ बंगाल की सूबाई सरकार में शामिल थे, बाद में आज़ाद भारत में नेहरू के पहले मंत्रिामंडल के सदस्य बने और 50 के दशक की शुरूआत में गुजर गए।

मुमकिन है नमो के हिमायती यह कह दें कि श्यामजी कृष्ण वर्मा के बजाय श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नामोल्लेख करना दरअसल जुबान फिसलने का मामला है, अगर इस बात को मान लें तो आखिर जनाब मोदी ने अपने अन्य व्याख्यानों में जो सरासर झूठ परोस कर जनता को गुमराह किया है, उसे किस तरह समझा जाए। नेहरू को पटेल का विरोधी साबित करने के चक्कर में एक सभा में उन्होंने कहा कि नेहरू पटेल के अन्तिम संस्कार में शामिल नहीं हुए थे(जबकि हकीकत इसके उलट थी) - या पटना रैली में उन्होंने सिकन्दर के बिहार पहुंचने तथा उसे बिहारियों द्वारा शिकस्त देने (जबकि सिकन्दर ने कभी गंगा नहीं लांघी थी ) तक्षशिला को बिहार में बता कर (भले ही वह पाकिस्तान में हो )या चंद्रगुप्त मौर्य जैसे सम्राट के गुप्त वंश का होने की बात कही।

यहां हमारा सरोकार जुबान फिसलने की परिघटना से नहीं है, वह किसी के साथ भी घटित हो सकता है, दरअसल यह भाषण की अलग शैली है जिसमें गल्प एवं तथ्य का घोल बना कर सुननेवाले को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है। और यह सब सचेत ढंग से किया जाता है ताकि नफरत एवं अलगाव पर टिके अपने व्यापक एजेण्डा के साथ लोगों को जोड़ा जाए। यह कहना गलत नहीं होगा कि अपनी इन तकरीरों/भाषणों के जरिए मोदी भारतीय राजनीति के 'पी एन ओक' में रूपान्तरित होते दिख रहे हैं। मालूम हो कि हिन्दुत्व के दायरों में बेहद 'इतिहासकार' के नाम से मशहूर पी एन ओक अपनी तमाम विचित्रा प्रस्तुतियों के लिए चर्चित रहे थे, ताजमहल को 'तेजोमहाआलय' अर्थात शिव का मन्दिर घोषित करने की याचिका के चलते सुप्रीम कोर्ट से भी डांट सुन चुके थे, जिनका यह मानना था कि 'इस्लाम एवं ईसाई धार्म दोनों हिन्दु धार्म से निकले हैं और कैथोलिक वैटिकन, काबा एवं ताज महल सभी एक वक्त में शिव के मन्दिर थे'

वैसे आज़ादी के आन्दोलन के अग्रणी नेता और भारत के प्रथम गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल को जिस तरह हिन्दुत्व आयकन में तब्दील करने की कोशिश में जनाब मोदी मुब्तिला हैं, उसमें उनकी यह कला उभर कर सामने आ रही है।

2 अक्टूबर ,1950 इंदौर,अपनी मृत्यु से तीन माह पूर्व सरदार पटेल ने कहा
'हमारे नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू हैं। बापू ने अपने जीवन-काल में उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और उसकी घोषणा कर दी। बापूके तमाम सिपाहियों का धर्म है कि वे बापू के आदेश का पालन करें। जो उस आदेश को हृदयपूर्वक उसी भावना से स्वीकार नहीं करता , वह ईश्वर के सामने पापी सिध्द होगा। मैं बेवफा सिपाही नहीं हूं। मैं जिस स्थान पर हूं उसका मुझे कोई ख्याल नहीं है। मैं इतना ही जानता हूं कि जहां बापूने मुझे रखा था वहीं अब भी मैं हूं ।''

(पूर्णाहुति,चतुर्थ खण्ड,पृष्ट446565,ले. प्यारेलाल,नवजीवन प्रकाशन,अहमदाबाद)

मोदी के वक्तव्यों की यह खासियत दिखती है कि कांग्रेस को विवादों के घेरे में डालने की कोशिश में या अपने राजनीतिक विरोधियों को शिकश्त देने की कोशिश में उन्होंने पटेल की अपनी शख्सियत के साथ बड़ा अन्याय किया है और इतिहास के साथ खिलवाड़ किया है। दरअसल यह कहना मुनासिब होगा कि मोदी ने अपने एजेण्डा के अनुकूल एक नए पटेल का गढ़ा है, जो उनकी निगाह में नेहरू खानदान की साजिशों का शिकार थे।

एक तरफ वह पटेल का गुणगान करते हैं, यह दावा करते हैं कि भारत का भविष्य अलग होता अगर पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री बनते, नेहरू एवं पटेल के बीच एक छदम् विरोधी रिश्ते साबित करने का वह प्रयास करते हैं और उसी सुर में वह उन्हें 'अपमानित' करने में भी संकोच नहीं करते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि भारत का आसन्न बंटवारा और आजाद भारत के शुरूआती कालखण्ड में कांग्रेस के अन्दर गांधी, पटेल और नेहरू की त्रायी काफी निर्णायक भूमिका में थी। अगर मोदी अधिक विवेकपूर्ण ढंग से सोचते तो भारत के बंटवारे के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने से पहले यह अवश्य सोचते कि उनका यह लांछन पटेल पर भी लग रहा है। फिलवक्त हम इस बहस में नहीं जाएंगे कि किस तरह सावरकर-हेडगेवार जैसे हिन्दुत्व के विचारकों ने औपनिवेशिक भारत में हिन्दु अलग राष्ट्र है, यह बात पहले प्रस्तुत की थी और मुल्क के बंटवारे का बीज डाल दिया था।

पटेल को नेहरू के बरअक्स खड़ा करने की हास्यास्पद हो चली कोशिशों के सन्दर्भ में यह देखना दिलचस्प होगा कि खुद पटेल ने नेहरू के बारे में क्या लिखा है और किस तरह उनके योगदान को देखा है। नेहरू के साठ साल पूरे होने के अवसर पर वर्ष 1949 में प्रकाशित एक किताब 'नेहरू अभिनन्दन ग्रंथ - ए बर्थडे बुक' को देखा जा सकता है, जिसमें उस वक्त कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेताओं ने अपने आलेख लिखे हैं। नेहरू की मुक्तकंठ से तारीफ करते हुए न केवल पटेल उन्हें राष्ट्र की प्रतीक /आयडल, जनता के नायक और नेता घोषित करते हैं और साथ साथ यह भी रेखांकित करते हैं कि कैसे वह हमेशा सलाह लेने के लिए तैयार रहते हैं। पटेल लिखते हैं : जवाहरलाल और मैं, दोनों कांग्रेस के सदस्य रहे हैं, आजादी के संघर्ष के सिपाही रहे हैं ... इस परिचय, नजदीकी, आत्मीयता और भाई जैसे स्नेह के चलते मेरे लिए यह थोड़ा मुश्किल है कि मैं सार्वजनिक तौर पर कुछ कहूं, मगर अवाम का यह प्रतीक, जनता का नेता, इस मुल्क का प्रधानमंत्री और अवाम का यह नायक जिसका अपना उदात्त रेकार्ड और महान उपलब्धियां एक खुली किताब की तरह हैं, उसके बारे में मुझ जैसे व्यक्ति से किसी सिफारिश की आवश्यकता नहीं है।

..''उनसे उम्र में बड़ा होने के चलते मुझे यह विशेषाधिकार मिला है कि प्रशासकीय और सांगठनिक मामलों में जिन तमाम समस्याओं का हमें सामना करना पड़ रहा है उसे लेकर मैं उन्हें सलाह दूं। मैंने हमेशा यह पाया है कि वह सलाह लेने और ग्रहण करने को तैयार रहते हैं। कुछ निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा फैलायी जा रही बातों के बरअक्स, जिसको सुननेवाले भी कुछ कान भी मिल जाते हैं, मैं बताना चाहता हूं कि हम लोगों ने ताउम्र मित्रा एवं सहयोगी की तरह काम किया है, एक दूसरे के दृष्टिकोणों को समाहित करने की और एक दूसरे की सलाह को अहमियत देने की कोशिश की है। यह काम वही कर सकते हैं, जिन्हें एक दूसरे पर पूरा भरोसा है ''
वह आगे लिखते हैं ''यह बिल्कुल सही था कि आजादी के हमारे इस उष:काल में वह हमारे अग्रणी पथप्रदर्शक होते और जब आजादी की हमारी उपलब्धियों के बाद हमें संकटों का सामना करना पड़ा तब वह हमारे यकीन की रक्षा करते और हमारी सेनाओं की अगुआई करते। मेरे अलावा और कोई बेहतर नहीं बता सकता कि विगत दो वर्षों के हमारे वजूद के कठिन दौर में उन्होंने अपने मुल्क के लिए कितनी मेहनत की है। जिस उच्च पद पर वह विराजमान हैं उसकी चिन्ताओं और जिम्मेदारियों के चलते इस दौरान मैंने उन्हें वृध्द होते देखा है।''

स्पष्ट है कि 'अपने' नायकों को अपमानित करने के लिए महज मोदी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा कोई भी व्यक्ति, जो अपनी किशोरावस्था से स्वयंसेवक रहा है, जहां शाखाओं में उसे पी एन ओक जैसे 'विचारकों' के तमाम अनैतिहासिक और समुदायविशेष के प्रति घृणा से भरे विचार बौध्दिकों के रूप में घुट्टी की तरह पिलाये जाते रहे हैं, उस व्यक्ति से और बेहतर व्यवहार की उम्मीद कैसे की जा सकती है। दरअसल ऐसा कोई भी शख्स जो संघ के अपने इतिहास से परिचित है बता सकता है कि अपनी साफ-सुथरी छवि प्रस्तुत करने के लिए अपने नायकों को 'अपमानित' करने में संघ कभी संकोच नहीं करता। महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए उसने किस तरह सावरकर को इस साजिश में शामिल बताया यह बात चर्चित है।

छ साल पहले जब आजाद भारत के इस पहले आतंकवादी नथुराम गोडसे के संघ का स्वयंसेवक होने को लेकर विवाद हुआ तो संघ ने अपनी तरफ से एक प्रेस वक्तव्य जारी किया था। 17 अगस्त 2004 के 'द हिन्दू' में नीना व्यास के हवाले से प्रकाशित इस ख़बर में बताया गया था कि किस तरह 'संघ ने गांधी की हत्या में अपना हाथ होने से इन्कार किया और अपनी बेगुनाही के ''प्रमाण'' के तौर पर सरदार पटेल द्वारा नेहरू को लिखा गया पत्र जारी किया, जो हत्या के महज 28 दिन बाद लिखा गया था। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस बात की अनदेखी की कि उसी पत्र में सावरकर को उस साजिश का जिम्मेदार बताया गया था, और इस बात का भी उल्लेख था कि किस तरह गांधी की हत्या का संघ और हिन्दू महासभा के लोगों ने स्वागत किया था।''

उस दिन दिल्ली में पंजाब की लपटें पहुंचीं। ''मैं दिल्ली को दूसरा लाहौर नहीं बनने दूंगा।'' वल्लभभाई ने नेहरू और माउण्टबैटन की मौजूदगी में ऐलान किया। पक्षपाती अधिकारियों को उन्होंने दंड की धामकी दी और उनके निर्देशों पर ही दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश 7 सितम्बर को जारी हुए। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास चार हिन्दू दंगाइयों को पुलिस ने गोलियों से मार डाला।

 (पेज 428, पटेल :ए लाइफ, राजमोहन गांधी, नवजीवन)

वैसे मोदी के अपने हिमायती उनके बदल जाने के लिए कितने भी तथ्य पेश करें – जैसे - किसी सभा में 'हिन्दु और मुसलमानों के मिल कर गरीबी के खिलाफ लड़ने की बात कही' या 'पहले शौचालय फिर देवालय' की बात कही - उनके 'विघटनकारी, पूर्वाग्रहों को गहरा करनेवाले चिन्तन' की अन्तर्वस्तु रातोंरात विलुप्त नहीं होगी। यह उम्मीद करना बेकार है कि किसी अलसुबह वह इतिहास के प्रति अपने संकीर्ण नज़रिये, अपनी क्षमताओं को लेकर अत्यधिक आत्मविश्वास और 'अन्य' के दृष्टिकोणों को लेकर घृणा, को तौबा करके एक नए शख्स के रूप में हाजिर होंगे। ऐसा शख्स जिसे मुल्क के सर्वोच्च पद पर पहुंचने की इतनी हडबडाहट है, वह अपनी पुरानी शिक्षाओं से इतनी जल्दी मुक्ति पा सकेगा यह नामुमकिन है। हां, इस दिशा में एक शुरूआत तभी हो सकती है जब वह 2002 की घटनाओं को लेकर बिनाशर्त माफी मांगें और उस कालखण्ड में अपनी कथित संलिप्तता या अकर्मण्यता की न्यायिक पड़ताल के लिए तैयार हो जाएं। 

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