अख़लाक़ अहमद उस्मानी
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एक महीने की उस बच्ची का नाम
कोई नहीं जानता था क्योंकि उसे पहचानने वाला कोई बचा ही नहीं था। मारी गई इस बच्ची
के सिर पर एक पर्ची चिपकाई गई, जिस पर
अरबी में लिखा था ‘नंबर 14’।
इस पहचान के साथ ही उसे सुपुर्द-ए-खाक किया गया। यह बच्ची उन
तीन सौ से ज्यादा बदनसीब सीरियाई लोगों में शुमार थी जो इक्कीस अगस्त की शाम
सीरिया की राजधानी दमिश्क के पास
अलदोमा क्षेत्र की बाहरी बस्ती अलगौता में रासायनिक हमले में मारे गए। मारे गए
लोगों में बच्चों की तादाद बहुत है।
हमला किसने किया यह पता लगाया जाना बाकी है, लेकिन सामान्य राजनीतिक समझ रखने वाला आम आदमी भी यही कहेगा कि जिस देश के राष्ट्रपति को गद््दी से हटाने के लिए अमेरिका, इजराइल, इंग्लैंड, फ्रांस, यूरोपीय संघ, नाटो और पड़ोसी तुर्की बेचैन हैं, वह बशर अल असद जानता है कि अगर उसने अपने नागरिकों पर रासायनिक हथियार चलाए तो उस पर हमला होगा। फिर भी, क्या बशर ने ऐसा किया होगा?
रासायनिक हमले का फायदा किसे मिलेगा, कौन हैं जो इस खेल में पूरी ताकत लगा कर भी बशर को गद््दी से नहीं हटा पाए तो उन्होंने यह भूमिका बनानी शुरू कर दी कि सीरिया सरकार ने अपने लोगों पर अगर रासायनिक हथियार का इस्तेमाल किया तो उसकी खैर नहीं और लाख टके का सवाल यह भी है कि रासायनिक हथियार क्या सिर्फ बशर अल असद की सेना के पास हैं या कथित विद्रोही यानी वहाबी उर्फ सलफी आतंकवादी भी रासायनिक हथियार रखते हैं अथवा रासायनिक हथियार उन तक पहुंचाए गए?
साइबरवॉर न्यूज डॉट इन्फो की 26 जनवरी 2013 की एक खबर अचानक एक बार फिर चर्चा में आ गई है। इस वेबसाइट पर दी गई खबर में ब्रिटेन की हथियार बनाने वाली कंपनी ब्रिटम के मलेशिया सर्वर से कुछ सीक्रेट ईमेल हैक किए गए। संस्थापक फिलिप डाउटी और व्यापार विकास निदेशक डेविड गोल्डिंग की कंपनी ब्रिटम डिफेंस कंपनी के डेटा को हैकरों ने उड़ा लिया। सीरिया नाम के फोल्डर में एक इमेल और दो पीडीएफ फाइलों में काफी चौंकाने वाली जानकारी मिली। संस्थापक फिलिप ने डेविड को भेजी इमेल में कहा कि उन्हें फिर सीरिया से एक प्रस्ताव मिला है। कतरी (राजपरिवार) लोगों ने वाशिंगटन से सहमति लेकर उन्हें एक शानदार सौदे की पेशकश की है। हमें हम्स (सीरिया का शहर) में सीडब्लू (कैमिकल वैपन) की आपूर्ति करनी है क्योंकि असद सरकार के पास रूस निर्मित ऐसे हथियार होने चाहिए। वे (कतर के लोग) हमसे चाहते हैं कि हमारे यूक्रेनी कर्मचारी, जो कि रूसी भाषा बोल सकते हैं, यह काम करें और उसका वीडियो भी बनाएं। मेल के आखिर में डेविड की राय पूछते हुए फिलिप ने कहा कि यह प्रस्ताव बहुत अच्छा है।
यहां यह बताना संगत होगा कि जनवरी के बाद से ही अमेरिका और ब्रिटेन ने सीरिया में रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल होने का डर जताना शुरू किया और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने यह बयान देना शुरू किया कि अगर सीरिया में सरकार ने अपने नागरिकों पर रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया तो उसकी खैर नहीं। कतर और सऊदी अरब सीरिया में कथित विद्रोहियों यानी वहाबी उर्फ सलफियों को हथियार, सलाह और पैसा देते हैं। यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि सीरिया पर अमेरिका और यूरोपीय संघ का भी प्रतिबंध है और निश्चित ही ब्रिटम कंपनी के अधिकारी जिन रासायनिक हथियारों की बात कर रहे थे वे बशर अल असद की सरकार को नहीं, अलनुसरा जैसे आतंकवादी संगठनों को दिए जाने थे।
ब्रिटम कंपनी ने उस नीति को आगे बढ़ाया कि अगर यह भूमिका बन जाए कि सीरियाई सेना ने अपने नागरिकों पर रासायनिक हथियार चलाए हैं तो सीरिया पर अमेरिका, इजराइल और उनके पिट््ठुओं को हमला करने का आधार मिल जाएगा।
वही रासायनिक हथियार जो 2003 में इराक को तबाह करने के बाद अमेरिका को नहीं मिले थे और बिना संयुक्तराष्ट्र की अनुमति के जॉर्ज बुश की सरकार ने एक पूरी सभ्यता को गर्त में धकेल दिया था। सीरन गैस के हमले में मारे गए लोगों को लेकर अभी तक अमेरिका और ब्रिटेन में एक राय नहीं है। केमरन मारे गए लोगों की तादाद तीन सौ से अधिक बताते हैं तो जॉन कैरी चौदह सौ से अधिक। संयुक्त राष्ट्र के जांचकर्ताओं की रिपोर्ट से पहले ही जॉन कैरी यह कैसे जानते हैं कि गैस का हमला सीरिया की सरकार ने ही किया, अतिवादियों ने नहीं?
सऊदी अरब ने एक सितंबर को काहिरा में अरब लीग की बैठक में सीरिया पर हमला करने में जल्दी करने की अपील की है, वह इस बात का एक और सबूत है कि सीरिया में इस्लामी चरमपंथियों को उसका समर्थन, पैसा और हथियार मुहैया हैं। सऊदी अरब एक शिया को सत्ता से बेदखल करने के लिए और वक्त, पैसा और अतिवादी नहीं दे सकता।
सुन्नी बहुसंख्यक सीरिया में शिया राष्ट्रपति को हटाने से सऊदी अरब की वहाबी नीतियों का पोषण होगा। सऊदी अरब के राजकुमार बन्दर (अरबी नाम में इसका तात्पर्य समुद्र का किनारा यानी साहिल होता है) के पास सीरिया के चरमपंथियों को समर्थन की कमान है और जाहिर है कि ईरान से लेबनान तक जो शिया चतुष्कोण बना है वह रास्ता ईरान के तेल, रसद, पैसा और हथियार से लेबनान संचालित हिज्बुल्ला तक जाता है।
सीरिया में अगर बशर की सरकार गिरा दी जाए तो लेबनान तक हिज्बुल्ला की रसद कट जाएगी और इससे इजराइल को तो चैन मिलेगा ही, अमेरिका भी भूमध्यसागर में अपने बेड़े और अड््डे की सुरक्षा को लेकर निश्चिंत हो सकेगा। बाद में बेबस हिज्बुल्ला को जब चाहे खत्म किया जा सकता है।
सवाल यह है कि इस पूरे खेल में उन चरमपंथी समर्थकों को क्या मिलेगा, जो हथियारों का पैसा भी चुका रहे हैं और आजादी के नाम पर सिरफिरे लड़ाके भी दे रहे हैं? मिस्र के जिस मुसलिम ब्रदरहुड को कतर के भारी समर्थन के बाद सत्ता से जाना पड़ा और उसका निवेश बेकार चला गया वह घाटा सऊदी अरब सीरिया में नहीं उठा सकता। यह कहने की जरूरत नहीं कि अब्दुल अजीज इब्न सऊद यानी सऊद राजपरिवार के पंद्रह हजार लोगों की और कतर में अलसानी परिवार के एक हजार लोगों की अय्याशी अमेरिका की मेहरबानी से ही चल पा रही है। अगर पश्चिम एशिया में इजराइल सुरक्षित नहीं तो अमेरिका भी खुद को सुरक्षित नहीं मानता। इसलिए सऊदी अरब और कतर की अरब नीति में पहला लाभ पाने वाला अमेरिका और अंतिम लाभ पाने वाला देश इजराइल ही होता है।
इजराइल और सीरिया का तनाव ऐतिहासिक है। साल 1967 में दोनों देशों के बीच युद्ध के बाद से उनमें कोई बातचीत नहीं है और इजराइल ने सीरिया की गोलन पहाड़ियों पर अब भी कब्जा कर रखा है। इजराइल को बेघर वेस्ट बैंक और गाजा पट््टी के पीड़ितों से निपटना खूब आता है, पड़ोसी जॉर्डन से उसके अच्छे संबंध हैं, लेबनान को वह जब चाहे मसल देता है, मिस्र के साथ फिलहाल अनवर सादात समझौता चल रहा है लेकिन सीरिया का क्या करें? सीरिया पर कब्जा या हिज्बुल्ला को इमदाद की बंदी में ही इजराइल अपनी शांति तलाशता है और एक शिया के हाथ में सीरिया की कमान होने तक हिज्बुल्ला को यह मदद मिलती रहेगी।
संयुक्त राष्ट्र के विश्लेषक अपनी रिपोर्ट के साथ लौट गए हैं और गुरुवार से पहले उनकी रिपोर्ट नहीं आएगी। दस-बारह दिन पहले बराक ओबामा सीरिया पर हमला करने को आतुर थे लेकिन देश भर में युद्ध-विरोधी प्रदर्शनों से ओबामा काफी दबाव महसूस कर रहे हैं। अमेरिका के साथियों ने भी काफी शर्तें रख दी हैं। केमरन भी पूरे ब्रिटेन में हुए युद्ध-विरोधी प्रदर्शनों से डर गए हैं और सीरिया पर हमले के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष के सभी सांसदों को विश्वास में लेना चाहते हैं बिल्कुल वैसे ही जैसे ओबामा ने कांग्रेस से अपील की है कि वह सीरिया पर ‘सीमित हमले’ के प्रस्ताव को मंजूर कर ले।
‘सीमित’ हमले के कई तात्पर्य हैं। पहला यह कि हमला सिर्फ हवाई होगा और इसके बाद मची तबाही के बाद कथित विद्रोही सत्ता पर वैसा ही कब्जा कर लें जैसा कज्जाफी को मार कर लीबिया में किया गया। दूसरा, रूस यह समझे कि अमेरिका मानवाधिकारों की रक्षा के लिए असद को सत्ता से हटाना चाहता है, सीरिया को नष्ट नहीं करना चाहता। और तीसरा, अमेरिका की जनता अपने टैक्स के पैसे से तीसरी दुनिया में कोई युद्ध नहीं देखना चाहती, जहां उनकी खून-पसीने की कमाई तो बर्बाद होगी ही, उनके जवान भी मारे जाएंगे। अमेरिकी जनता के मन में यह बात घर कर गई है कि इराक और अफगानिस्तान में सैन्य कार्रवाई ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है।
रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन चाहते हैं कि सीरिया पर हमले से पहले ओबामा संयुक्त राष्ट्र से अनुमति लें, जबकि अमेरिका जानता है कि रूस और चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वीटो कर देंगे। यूरोपीयन यूनियन टाइम्स ने मास्को से खबर दी है कि अगर सीरिया पर अमेरिका और यूरोप ने हमला किया तो पुतिन सऊदी अरब पर हमला कर देंगे।
यही वजह है कि सऊदी ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी है। ईरान का कहना है कि सीरिया पर हमला होगा तो सीरिया अकेला नहीं है यानी ईरान भी शामिल होगा। अगर सभी चीजें अनुमान के हिसाब से होती गर्इं तो युद्ध में शामिल होने वाले हैं सीरिया, इजराइल, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, ईरान, रूस और सऊदी अरब। तुर्की और जापान समर्थन भी देंगे और संसाधन भी। अगर यह तनाव इतना व्यापक हो गया तो लेबनान का शिया चरमपंथी संगठन हिज्बुल्ला और इराक का वहाबी आतंकवादी संगठन अलकायदा भी सक्रिय हो जाएंगे।
अस्थिर मिस्र में सेना मुसलिम ब्रदरहुड को कतर से मिल रही वित्तीय मदद से बेहद नाराज है। मिस्र ने सीरिया पर हमले में अमेरिका को कोई भी मदद देने से इनकार कर दिया है। जाहिर है, सीरिया अपने ऊपर अमेरिकी हमले की सूरत में इजराइल पर हमला करेगा। भूमध्यसागर में अमेरिकी और रूसी सेनाएं अपने-अपने बेड़ों के साथ क्या छाया-युद्ध लड़ेंगी? एक ही जमीन पर एक ही युद्ध में दो महाशक्तियां आपस में नहीं लड़ेंगी तो फिर जंग किससे होगी? और अगर जंग सीधे होगी तो विश्व-युद्ध होने में क्या बाकी रहा?
जिन बुश को ‘हां, हम कर सकते हैं’ नारे के साथ हरा कर बराक हुसैन ओबामा सत्ता में आए हैं, क्या वे उन्हीं की नीति अपना कर सीरिया पर युद्ध थोप देंगे? नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाले ओबामा मार्टिन लूथर किंग और महात्मा गांधी को अपना आदर्श बताते हैं और वे अपने साथ हनुमानजी की मूर्ति लेकर चलते हैं। यह ढकोसला क्या सिर्फ इसलिए था कि लोग उन्हें एक और मौका दें और वे अमेरिका और उसके साथियों की हथियारपरस्त व्यापार की नीतियों पर लौट आएं? अगर ओबामा इतने सीमित और औसत एजेंडे के साथ सत्ता में आए हैं तो रिपब्लिकन क्या बुरे थे?
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