तेरे माथे पे ये आँचल, बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।




मजाज़ 19 अक्टूबर 1911 0 को यू0पी0 के मशहूर कस्बा रुदौली, जिला बाराबंकी के एक इल्म दोस्त ज़मींदार ख़ानदान में पैदा हुए। उनके वालिद चैधरी सिराजुल हक़ क्वींस कालेज लखनऊ में उस्ताद थे। इस के बाद वह महकमए रजिस्टेªशन में मुलाजि़म हो गए और रीजनल इन्सपेक्टर और असिस्टेन्ट रजिस्ट्रार के ओहदे पर पहुँच कर रिटायर हुए। दौराने मुलाजिमत उनका तबादला आगरा और अलीगढ़ भी हुआ जहाँ का कयाम मजाज़ की जि़न्दगी में बहुत अहमियत रखता है। मजाज़ ने हाईस्कूल का इम्तिहान अमीनाबाद स्कूल लखनऊ से पास किया। वालिद के आगरा तबादला हो जाने से वह उनके साथ आगरा चले आए और 1929 0 में सेंट जान्स कालेज आगरा में एफ़0एस0सी0 में दाखिला ले लिया। यहाँ कालेज में मुईन अहसन जज़्बी और आले अहमद सुरूर का साथ रहा। इस के अलावा मैकश अकबरावादी और फ़ानी बदायूँनी की सोहबत का इन पर गहरा असर हुआ। वालिद के तबादले की वजह से इन्हें अलीगढ़ आना पड़ा, यहाँ 1935 0 में उन्होंने एम00 में दाखिला लिया, लेकिन तालीम मुकम्मल करने से पहले ही इन्हें आल इण्डिया रेडियो देहली में मुलाजि़मत मिल गई और वह देहली चले आए। अलीगढ़ मंे हयात उल्ला अंसारी, सिब्ते इसन, अख़्तर हुसैन रायपूरी, मसूद अख़्तर जमाल, सआदत हसन मिन्टू, असमत चुग़ताई और सरदार जाफरी वगैरह इनके साथियों में थे। यह वह जमाना था जब आजादी की तहरीक अपने शबाब पर थी और ये सब आजादी के सरफ़रोशों और इन्क़लाब के अलम-बरदारों में थे। इसी जमाने में तरक़्क़ी पसंद तहरीक की इब्तिदा हुई। सोशलिज़्म से मुतास्सिर ये सब नौजवान तरक़्की पसंद तहरीक में शामिल हो गए। मजाज़ ने कुछ अरसा बाद रेडियो की मुलाजि़मत छोड़ दी और लखनऊ चले आए जो उस वक़्त तरक़्की पसंद तहरीक का मरकज़ था और जहाँ, रशीद जहाँ, हयात उल्ला अंसारी, सरदार जाफ़री सब जमा हो चुके थे। हयात उल्ला अंसारी हफ़्तावार अखबार हिन्दोस्तानऔर सिब्ते-हसन व सरदार जाफ़री परचमनिकालते थे। मजाज़ भी परचम की इदारत में शामिल हो गए।

मजाज़ शदीद तौर पर हस्सास और जज़्बाती इंसान थे, इन की शायरी और दिलचस्प जुमलों से तो सब लुत्फ़ अन्दोज़ होते थे लेकिन उनके कर्ब को समझने वाला कोई नहीं था। तरक़्क़ी पसंद तहरीक के साथियों और उन से बेहिसाब मोहब्बत करने वाले लोगों ने भी सिर्फ़ उन्हें खूबसूरत और जि़न्दगी से भरपूर शेर कहने वाला समझा। उनके अंदर जो शिकस्त की आवाज़ थी, उसको कोई नहीं सुन सका। आखि़र बर्दाश्त ने जवाब दे दिया और 1940 0 में उन पर जुनून का पहला दौरा पड़ा। पहले दौरे से ठीक हुए तो बंबई (मुम्बई) इन्फ़ारमेशन आॅफिस में मुलाजि़मत कर ली, वहाँ दिल नहीं लगा तो देहली हार्डिंग लायब्रेरी में नौकर हो गए। 1945 0 में दूसरा दौरा पड़ा और 1950 0 के क़रीब तीसरा। इन सब के बावजूद जब वह ठीक हो जाते तो फिर रौनक़े महफि़ल बन जाते और चाहने वालों की भीड़ में मोहब्बत और इनक़्लाब के नग़मे सुनाते।

3
दिसम्बर 1955 को स्टुडेन्ट्स उर्दू कन्वेंशन की वजह से मजाज़ के बहुत से पुराने साथी सरदार जाफ़री, असमत चुग़ताई, नियाज़ हैदर, साहिर लुधयानवी, डाॅक्टर अब्दुल अलीम, प्रोफ़ेसर एहतेशाम हुसैन जमा थे। रात-सफे़द बारादरी के मुशायरे में मजाज़ ने लहक-लहक कर दो ग़ज़लें सुनाईं। कोई नहीं जानता था कि यह मजाज़ की जि़न्दगी का आखि़री मुशायरा है। 4 दिसम्बर 1955 0 की रात में उन पर दिमाग़ी फ़ालिज का हमला हुआ। उन्हें इलाज के लिए बलरामपुर अस्पताल में दाखि़ल किया गया, लेकिन उर्दू शायरी का यह सूरज 5 दिसम्बर 1955 0 की उदास रात में 10 बजकर 22 मिनट पर हमेशा के लिए डूब गया। सरदार जाफ़री, असमत चुग़ताई, एहतेशाम हुसैन और बहुत से अदीब व शायर उनके सरहाने मौजूद थे। 6 दिसम्बर 1955 0 को पेपर मिल कालोनी, निशातगंज के क़ब्रिस्तान में उन के दोस्तों, अज़ीज़ों और हज़ारों मद्दाहों ने उन्हें सुपुर्दे-ख़ाक कर दिया।

मजाज़ के इन्तेकाल को 50 साल से ज़ायद गुज़र चुके हैं, लेकिन उस आवाज़ का असर, उसकी शखि़्सयत की तरहदारी, उसकी शायरी की रजामियत और हौसलामंदी आज भी उसी तरह है। मजाज़ की यह खुसूसियत है कि वह अपने अहद की आवाज़ भी हैं और आने वाले ज़माने की आवाज़ भी। जब तक इन्सानियत जुल्म, नाइंसाफी, दहशतगर्दी और ऊँच नीच का शिकार है, जब तक नौजवान अपनी मोहब्बत और अपनी जिन्दगी की ताबीर के लिए आवारा है, जब तक चमन-बन्दियये-दौराँके लिए खूने दिल नज़्र करने की जरूरत है, मजाज़ के कलाम की कशिश बाक़ी रहेगी।

मजाज़ तरक़्क़ी पसंद शोअरा में ऐसे शायर थे जिन्हें सब पसंद करते थे और जिन से सब मोहब्बत करते थे। अगर एक तरफ़ सज्जाद ज़हीर, फै़ज़ अहमद फ़ैज़ और सरदार जाफ़री उनके मद्दाह थे तो दूसरी तरफ़ क्लासिकी शायरी के नुमाइन्दा शायर नवाब जाफ़र अली खाँ, असर लखनवी और सालिक लखनवी उन की शायरी के मोतरिफ़ थे, जिस का बुनियादी सबब यह था कि उन्होंने पूरे क्लासिकी रचाव और ज़बान के रख-रखाव के साथ शायरी की। उन की फिक्र नई है लेकिन रोजमर्रा और ज़बान का जादू वही है। वह तरक़्क़ी पसंद तहरीक के नुमाइंदा शायरों मंे थे। जिन्दगी की बदलती हुई क़दरों और असरी तकाज़ों पर उन की गहरी निगाह थी। मजाज़ की शायरी रूमानियत या इन्क़लाबी रूमानियत की मिसाल बाद में है पहले वह अपने अहद की मिससियत की अलामत है। वह उस वक़्त की जि़न्दगी, तहज़ीब, तज़ादात, जद्दो-जेहद, उस वक़्त की घुटन, तशनगी, हिरमाँ-नसीबी और बेबसी की अलामत है।

मजाज़ की शायरी की एक खुसूसियत इसमें जि़न्दगी की ताज़गी और गर्मी है। वह जाती तौर पर नाकामियों और घुटन का शिकार रहे, लेकिन उनकी शायरी कभी मायूसी और यासियत का शिकार नहीं हुई। जि़न्दगी के बारे में उनका रवैया हमेशा खुश-आइंद रहा। इसीलिए उन्होंने लिखा था:-

खूने दिल की कोई क़ीमत जो नहीं है तो न हो,
खूने दिल नज़रे चमन-बन्दीए दौराँ कर दे।

यही हौसला और अज़्म उनकी शायरी की ताक़त है और इसी ने उन्हें असरी मिस्सियत का मुसव्विर बना दिया है। मजाज़ के यहाँ जमालियाती एहसास और फि़करी इज़हार में जो जमालियाती कैफि़यत है, वह उनके अहद के कम शायरों में मिलेगी। उनकी नज़्में-रात और रेल, मुसाफि़र, ख़्वाबे सहर, जज़्बे और एहसास की ऐसी तसवीरें हैं, जो हर दिल में एक बेहतर जि़न्दगी की तमन्ना बेदार करती हैं। यह सिर्फ़ मजाज़ हैं, जो पहले जश्ने-आज़ादी के जोशों खरोश में जब ‘‘ज़माना रक़्स में है,जि़न्दगी ग़ज़ल ख्वाँ है’’ की सूरत थी, वह आने वाली जि़म्मेदारियों का यह कहकर एहसास दिलाते हैं कि ‘‘यह इन्तहा नहीं, आग़ाजे कारे मरदाँ है’’

मजाज़ की शायरी हमेशा जि़न्दगी की खूबसूरती और ताज़गी का एहसास दिलाती है, मजाज़ का ये शेर-
तेरे माथे पे ये आँचल, बहुत ही खूब है लेकिन,
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।
आज भी जि़न्दगी की जद्दो-जहद में औरत की बराबरी और उसके निसाई हुस्न, दोनो का एहसास दिलाता है। मजाज़ ने इन्क़लाब और तब्दीली के नग़मे भी लिखे हैं, लेकिन वह किसी एक इन्क़लाब के नग़मा-ख़्वाँ नहीं, वह जि़न्दगी के नग़मा-ख़्वाँ हैं, और उस के हुस्न, दिलकशी और मसर्रत के लिए, हमेशा एक ताज़ा इन्क़लाब की तमन्ना करते हैं।
आओ, मिलकर इन्क़लाबे ताजह़तर पैदा करें,
दहर पर इस तरह छा जाएँ कि सब देखा करें।

मजाज़ की यह आवाज़ आज भी उसी तरह दिलकश, उसी तरह खूबसूरत और दिल-आवेज़ है, और मुस्करा कर आने वाले ज़माने से कह रही है-

जो हो सके, हमें पामाल करके आगे बढ़,
न हो सके तो, हमारा जवाब पैदा कर।

-प्रोफे़सर शारिब रुदौलवी
उर्दू से लिप्यन्तरण- डॉ0एस0एम0 हैदर
लेखक मो0:- 09839009226




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