-योगेश  दीवान

तंत्र-मंत्र, टीका-चंदन, बाबा-बैरागी के बाद अब किसानी आत्महत्या पाप-पुण्य की व्याख्या की है भाजपा सरकार के प्रवचनकारों ने। लगातार बढ़ती किसानी आत्महत्या को टीकाधारी प्रदेश  के कृषिमंत्री ने किसानों का पिछले जन्म का पाप बताया है। उन्होंने कहा कि लगातार किसानों ने खाद और केमिकलयुक्त दवाओं को डालकर धरती मां को बीमार करने का जो पाप किया है उसी का परिणाम है कि धरती मां फसल खराब कर रही है और उनका पुत्र यानी कि किसान मरने को मजबूर है। ऐसे उप्दाशों  की एक व्याख्या तो ये है कि किसान अपने कर्मों (पाप) से मर रहा है। यानी उसकी आत्महत्या में किसी की जिम्मेदारी नहीं। न राज्य की, न केन्द्र की, न खाद-बीज बनाने वाली कंपनियों की, न नीति-निर्माताओं की और न बदलती प्रकृति की।

दूसरी व्याख्या उन संघियों, एन.जी.ओ., सरकारी कारिदों या तथाकथित् जैविक और प्राकृतिक खेती के पूजकों की है जो कहते हैं कि हमने जल-जंगल-जमीन से जो छेड़छाड़ की उसी का परिणाम है ये त्रासदी। मतलब साफ है कि सबकुछ उस पापी किसान का ही कियाधरा है। जबकि किसान और उसका खेत, बीज, खाद, सिंचाई, पैदावार उसके दाम और बाजार हमेशा  सत्ता से नियंत्रित होते रहे हैं। फिर चाहे वो राजशाही हो, अंग्रेजी दौर की जमींदारी-सामंतशाही हो या फिर आज का तथाकथित्
लोकतंत्र। जिस हरित क्रांति या आधुनिक खेती को आज हमारे योजनाकार, राजनेता, सरकार, वैज्ञानिक या सामाजिक कार्यकर्त्ता लगातार गरिया रहे हैं उसे किसान के खेतों तक पहुंचाने का पुण्यकर्म भी इन्होंने ही किया था। और आज किसान को पापी बताकर जैविक, प्राकृतिक या ऋषि की नारेबाजी भी यही खेत से दूर खड़े लोग कर रहे हैं।

 असल में पाप-पुण्य की समझ ही खेती को धार्मिक कर्मकांड बना देने से निकली है। तभी तो प्रदेश के कृषि विभाग की वेबसाईट भरपूर अवैज्ञानिकता फैलाते हुए ताती है   की इस मुहूर्त या नक्षत्र में फलां वस्तु बोने से इतना फायदा होगा, इल्ली का प्रकोप होने पर खेत में हवन करने पर इल्ली खत्म नहीं बल्कि भाग जाती है। प्रदेश  का सिंचाई विभाग वॉटरशेड  को शिवगंगा कह कर सिंचाई करने की बात करता है। प्रदेश का वन महकमा और उसके ज्ञानी वैज्ञानिक कहते हैं कि सीताफल और आंवले की पैदावार बढ़ाने के लिये पेड़ों को राग भैरवी सुनाना चाहिये और वो भी ऐरे-गैरे की नहीं प्रसिद्ध सितारवादक पं.रविशंकर के सितार से निकली हुई।

 कृषिमंत्री को खुश करने के लिये प्रदेश के  कृषि विष्वविधालय के वैज्ञानिक अब एक ‘‘अमृत पानी’’ तैयार कर रहे हैं जिससे खेत की उत्पादन क्षमता बढ़ाई जाये। आष्चर्य है कि इसका पहला प्रयोग उसी सीहोर जिले के गांव में किया गया जहां सबसे पहले किसान ने आत्महत्या की। एक और अंधा प्रयोग प्रदेश का साईंस एंड टेक्नालॉजी विभाग करोड़ों रुपये खर्च करके प्रायः हर साल कई जगह कर रहा है। इसमें सोमयज्ञ किया जाता है और उससे सूखे खेतों में पानी गिराने का दावा किया जाता है। अभी तक पानी की एक बूंद भी नहीं गिरी पर करोड़ों रुपये का चूना जरुर लगा। जबकि खेती और किसान की पद्धति अपने-आप में एक विज्ञान है। जो हमें
भडूरी की कहावतों से लेकर कृषि विज्ञान की पुस्तकों में अपने तथ्य और तर्क के साथ हमेशा  दिखाई देती है। असल में ऐसी ही अवैज्ञानिकता से निकलता है पाप-पुण्य का फंडा, जो कि मरे हुए किसान के सिर पर फोड़ा जाता है।

आष्चर्य है कि इस पापी किसान के मरने की खबरें भी उन ईलाकों या जिलों से ज्यादा आ रही हैं जो या तो मुख्यमंत्री या कृषिमंत्री के गृह और राजनैतिक क्षेत्र हैं। जहां से ये लोग इसी पापनी किसान के दम पर चुनाव जीतते आ रहे हैं। पिछले १५ दिनों में प्रदेश में 18 किसानों ने आत्महत्या की है। और इस सबका तात्कालिक कारण अत्यधिक ठंड के कारण पड़ा पाला या तुसार है। जिसने कई सालों बाद एक अच्छी फसल को पूरी तरह खत्म कर दिया। इस फसल से उस किसान ने अपने सिर पर
चढ़े कर्जे को पटाने की आशा  पाली थी। इस फसल के लिये उसने लागत भी भरपूर लगायी थी। कितना दुखद है कि जिस कर्जे को माफ करने की बात केन्द्र और राज्य की सरकारें पिछले कुछ सालों से लगातार करती आई हैं वही कर्जा आज भी किसानों के गले का फंदा बना हुआ है। जबकि कई करोड़ रुपये इस किसान के कर्ज के नाम पर घोषित हो चुके हैं। वहीं पिछले दो सालों में केन्द्र और राज्य की सरकारें इसी झूठे आष्वासन और नारों के दम पर फिर से चुन कर आ गई। 

अभी तक मध्यप्रदेश किसान आत्महत्या के मामले में तीसरे पायदान पर था पर पिछले पन्द्रह दिन की रफ्तार बताती है कि प्रदेश शीघ्र ही पहले नही तो दूसरे नंबर पर आने को तैयार है। वह भी तब जब इस प्रदेश का मुख्यमंत्री हर सांस में अपने-आप को किसानपुत्र बताने से नही चूकता है।  जब इस प्रदेश  का कृषिमंत्री अचानक स्वंयभू जैविक बाबा बन जाता है और जैविक नीति बनाने में लग जाता है। जब प्रदेश  का कृषि विभाग अचानक नाम बदलकर खेती का नहीं किसान के कल्याण का विभाग बन बैठता है। जब विभाग के अदना से लेकर अदना तक के कर्मचारी कर्मकांडी तरीके से किसानों की बात करने लगते हैं। जब संघ गिरोह का किसान संगठन नूरा-कुष्ती के रुप में अपनी 185 मांगों के लिये दो दिन तक राजधानी को जाम कर देता है। जब जैविक खेती और भोजन के अधिकार के नाम पर किसानों को बहलाने के लिये ढेरों एन.जी.ओ. धो-पोंछकर अपनी दूकानें चमकाने लगते हैं। और बाजार, सरकार, वित्तीय संस्थानों तथा तकनीक को गरियाते हुए अखबारों में छाने लगते हैं।

ये मौतें तो सिर्फ बालिग या व्यस्क किसानों की है पर अगर हम किसान के सबसे छोटे प्रतिनिधि बच्चा या शिशु की कुपोषण से हुई मौतों का आंकड़ा देखें तो दिल दहल जाता है। कुपोषण की इन मौतों में भी प्रदेश  पिछले कई सालों से सबसे ऊपर बैठा हुआ है। जबकि सरकार, राजनैतिक पार्टी और सिविन सोसाइटी इस मुद्दे पर भी अपने आपको सजग और सतर्क रहने का दावा करती है। पर कुपोषण से मौत का आंकड़ा हर क्षण बढ़ता जाता है। फिलहाल 500 करोड़ रुपये राहत की घोषणा, टवारी हल्का नहीं बल्कि अब प्रत्येक खेत का स्वतंत्र मुआवजा तय होने की बात। लगान माफी, ऋण वसूली पर तत्काल रोकपचास प्रतिश त हानि को 100 प्रतिशत माना जाये। 

फसल बीमा के त्रुटिपूर्ण प्रावधान को संषोधित किया जाना, दलित-आदिवासी किसानों को 200 करोड़ रुपये के कर्ज माफ करने तथा अपंजीकृत साहूकारों के ऋण से  टकारा दिलाने तथा गिरवी रखे खेत को नीलाम नहीं करने का कानून बनाने की बात किसानपुत्र मुख्यमंत्री ने फिर से बड़े जोर-शोर से उठायी है। अब देखना है कि
आत्महत्या करते उस दरिद्र और गरीब किसान या उसके परिवार तक इस घोषणाओं का कितना अंश पहुंच पाता है। क्योंकि इन भारी लाभों की घोषणा से जिनके चेहरे खिल उठे हैं उनमें सरकारी कारिंदे, अफसर, सहकारी नेता, सत्ता पार्टी का राजनैतिक कार्यकर्त्ता और इन सबको साधने वाला गांव या क्षेत्र का बिचौलिया। जिनसे गुजरकर इस राषि का अंश  उस पीड़ित तक पहुंचेगा। यानी मरे हुए के परिवार तक राशी  पहुंचना भी हमारी व्यवस्था में इतना सरल नहीं। ताजा उदाहरण केन्द्र सरकार की ऋण माफी योजना का है जिसमें 60 हजार से अधिक अपात्रों का ही कर्ज माफ कर दिया गया। विधानसभा का हंगामा, विभिन्न जांच रपट, विरोधी दलों की अपील और मीडिया के खुलासे के बाद पता चला कि मध्यप्रदेश  में 200 करोड़ रुपये ऐसे लोगों में बांट दिये गये जिनका खेती से या नुकसान से कोई लेना-देना नहीं है। 30 सितंबर 2010 को सामने आयी रपट बताती है कि २ लाख 14 हजार 129 किसानों के, 245 करोड़ 72 लाख 14 हजार 353 रुपये के कर्ज माफी आवेदन पास हुए थे। जिसमें ६० हजार 188 दावे बोगस पाये गये। इनमें कई सारे तो कार, जीप, मोटरसाईकिल आदि के ऋण माफ कर दिये गये। और असल पात्र को ऐसी योजना का पता ही नहीं। आज प्रदेश  के जिन गांवों में आत्महत्या हुई है उनमें से कई ऐसी किसी योजना के बारे में नहीं जानते।

किसानों के देश  भारत में हम हमेशा  से दो कहावतें सुनते आये हैं, एक तो हमारे यहां खेती एक जुआ है और दूसरा किसान कर्ज में पैदा होता है, कर्ज में जीता है और कर्ज में ही दम तोड़ देता है। यानी कर्ज लेना और या खेती पर दांव लगाना कोई अचानक या किसी साजिश से नहीं हुआ है। हां, ये जरुर है कि आज उसका रुप और मात्रा बदल गयी। और किसान भी आज की पूंजीवादी दुनिया का ब्रम्ह वाक्य ‘‘हिम्मत करो, आगे बढ़ो’’ से प्रभावित होकर ज्यादा बड़ी रिस्क उठाने लगा है। फिर कर्ज लेने में ज्यादा कोई बुराई भी नहीं सिर्फ जरुरत है अपनी चादर को पहचान कर उसे मैनेज करने की। ये जरुर है कि ‘‘क्रेडिट कार्ड’’ अन्य सरकारी योजनायें, अनुदान के हिस्से का लालच, बढ़ती लागत और बाजार का आकर्षण के नित नये लालच उसे भी बाकी समाज की तरह अपनी ओर रिझा रहे हैं। और फिर ग्लोबल होती खेती, निर्यात योग्य फसल का दवाब, खेती का कंपनीकरण, कम या खत्म होता अनुदान, कम होता सरकारी निवेश , हवाला बाजार, बाहरी माल की डंपिंग, ठेका खेती, विश्व 
व्यापार संगठन की कठिन शर्तें और सत्ता का खेती को तीसरे पाले में (विकास दर में तीसरा हिस्सा) रखना भी किसान की रीढ़ तोड़ने के लिये काफी है। योजना आयोग की 2009 की रपट कहती है कि किसानों का एक बड़ा हिस्सा लगभग 40 प्रतिशत या तो खेती करना छोड़ चुका है या छोड़ना चाहता है। वहीं राष्ट्रीय रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि 1997 से 2010 तक यानी इन तीन सालों में दो लाख, सोलह हजार, पांच सौ किसानों ने न सिर्फ खेती को बल्कि दुनिया को ही अलविदा कह दिया, यानी कि आत्महत्या की। वहीं लाखों एकड़ उपजाऊ जमीन रायल इस्टेट, कंपनियों, बायोफ्यूल, सेज, सड़क और बांधों की बलि चढ़ गयी। इनमें भी 60-65 प्रतिशत हिस्सा उस छोटे सीमांत किसान या खेतीहर मजदूर का है जो हमारी बढ़ती हुई व्यवस्था या ऊंची उठती विकासदर के बही-खाते से नदारद है। 

न सिर्फ सत्ता के बही-खाते से बल्कि विभिन्न राजनैतिक धाराओं, सिविल सोसाईटीयों, मीडिया या योजनाकारों के बोलचाल, लिखा-पढ़ी में भी इसका जिक्र नहीं है। इसका थोड़ा बहुत जिक्र सिर्फ भोजन सुरक्षा बिल या भोजन के अधिकार जैसे उसके सामने फेंके टुकड़ों में है। जिससे ये आधा पेट रहकर न मर सकें, न संगठित
होकर विद्रोह पर उतर सकें। और मध्यम, उच्च मध्यमवर्ग की दूकानें इसकी आंच (आग) से बची रहें। शायद यही कारण है कि जिसके पास खोने को कुछ भी नहीं उससे डर कर आज एक बड़ी लॉबी या जमात भोजन का अधिकार, रोजगार का अधिकार,सिक्षा  का अधिकार, जंगल का अधिकार और तथाकथित् सूचना के अधिकार जैसे झुनझुने उसक बहलाने के लिये पकड़ा रहे हैं। यानी खदबदाती हुई आग पर पानी डालने का काम कर रही है।

जनगीतकार बल्लीसिंह चीमा के गीत ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के की पंक्तियां ‘‘तेलंगाना जी उठेगा, देश  के हर गांव में’’ गाते हुए हम बड़े हुए है और हमने जाना है कि तेलंगाना के किसानों का सामंती व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष मारनेवाला या मरनेवाला नहीं। शायद इसलिये कवि ने क्रांति के इस बीज को गांव-गांव तक पहुंचाने की कल्पना और जरुरत समझी थी। तेलंगाना ही नहीं तिभागा, पुलप्पावायलर, श्री काकूलम, नक्सलबाड़ी, निपानी, बोधगया, चंपारण का इतिहास हमें
किसानों के संगठन, संघर्ष और जुझारुपन की ही बार-बार याद दिलाता है। आखिर क्या कारण है कि हमारा आज का किसान एक बहुत ही व्यक्तिवादी, निराशात्मक दौर से गुजरकर आत्महत्या की ओर प्रेरित हो रहा है। ये सोचने-समझने और विचार करने का प्रष्न है।


योगेश  दीवान
कसेरा मोहल्ला
होषंगाबाद-461001