विस्थापन दर विस्थापन

                                                                                        जावेद अनीस 



बीते दशकों में शहरीकरण की प्रक्रिया ने नई गति पकड़ी है। गांव मे सूखे की लगातार स्थिति, खेती के लगातार बिगडते हालात, खेती को प्रोत्साहित करने वाली सुदृढ़ योजनाओं का अभाव, सीमित रोजगार और शहरों में बढ़ते काम के अवसरों के कारण एक बड़ी तादाद शहरों में आकर बसती है। इनमें बड़ी संख्या गरीब मजदूरों की होती है। ये अधिकांश वे लोग होते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में भी   हाशिया पर थे और शहर में भी परिधि पर रहते हैं और किसी तरह से जीवन-यापन करने के उपक्रम में तथा अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण इनकी अस्थाई बसाहटे आकार लेती है जिन्हें स्लम या झुग्गी कहा जाता है 

इन झुग्गीयों तक उनका सफर एक तरह के विस्थापन द्वारा ही होता है, इस विस्थापन की जड़ में दो जून रोटी की जुगाड़ होती है जो उन्हें अपने पुरुखों के गॉव से हजारों सैकड़ों कि.मी. दूर शहरों के स्लम में ला पटकती हैं। जहॉ वे अपने सस्ते श्रम के बल पर शहरों की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

पिछले कुछ दष्कों के दौरान तस्वीर साफ हो चुंकी है कि देश के मौजुदा ‘‘विकास’’ मॉड़ल की परिधि से यह बड़ी आबादी बाहर ही नही है बल्कि उन्हें एक तरह से बोझ भी माना जाता हैं।
कुछ सालों से सरकारों द्वारा देश के बड़े शहरों को सुन्दर और व्यवस्थित बनाने की जो कयावद की जा रही है जिसमें उन्हें झुग्गी बस्ती वाले ही बाधा नजर आते हैं। इसी कवायद में विस्थापन की एक ओर कड़ी जुड़ती है। जो कभी पुचकार के की जाती है तो कभी जबरन।
भोपाल शहर के विभिन्न झुग्गीयों के लोगों को भी पिछले १ साल  से भोपाल के सीमा से लगे कान्हासैया में ‘‘पुर्नवासित’’ किया गया  है। जिसकी युवा संवाद और नागरिक अधिकार मंच द्वारा जून 2010 में फैक्ट फाइडिंग करके यहॉ बसाये गये लोगों की स्थिति पर एक रिर्पोट भी  तैयार की गई थी ।  

घोड़ापछाड़ डेम के पास कानासैया भोपाल के सीमा से लगा एक गॉव हैं। जो कि भोपाल शहर से लगभग 20 कि.मी. दूर पर स्थित है। हाल ही में भोपाल के विभिन्न बस्तीवासीयों (आम नगर, दुर्गा नगर, शक्ति नगर, साकेंत नगर,शिव  मंदिर बस्ती, बोगदा पुल) के लगभग 1500 परिवारों को विस्थापित कर ग्राम कानासैया की भूमि पर बसाया गया है। 

इन परिवारों को कानासैया में ग्यारह हजार बोल्ट हाई टेन्सन बिजली के तारों के पास ‘‘पुर्नवासित’’ किया गया है। जहॉ जीवन जीने के लिए मूलभुत सुविधाऐं जल आपूर्ति, सामुदायिक स्नानग्रह, सीवर, शो शू शोचालय, सड़कें, अस्पताल,आंगनबाड़ी, काम पर आने जाने की सुविधा आदि की पर्याप्त व्यवस्था नही की गई है। 
पुर्नवास के लगभग १ साल से जादा  बीत जाने के बाद भी यहॉ पर जरुरती बुनियादी सुविधाऐं एवं विस्थापन के दौरान शासन द्वारा किये गये वायदों को पूरा नही किया गया है। जिससे बस्तीवासी असुरक्षा एवं अमानवीय जीवन जीने को मजबूर है। 

 मुआवजे के नाम पर मिली है तो केवल 2600 की राषि। घर बनाने के लिए कुछ ही लोगों को बांस-बल्ली और काली पन्नी दी गई थी। जिन ट्रकों में सामान लादा गया था उसका 600रु रूपया किराया लोगों को स्वंय देना पड़ा। विस्थापित जगहों पर प्रति परिवार 15 बाय 30 का प्लॉट दिया गया जो कि घर बनाने के लिए अपर्याप्त है। जबकि विस्थापन से पहले प्रषासन द्वारा कहा गया था कि हर परिवार को रोजगार व मकान निर्माण के लिए 50,000रु तक लोन दिया जायेगा। परिणाम स्वरुप लोग अपने सामर्थ के अनुसार घर बनाने या झुग्गी बना कर रहने को मजबूर हैं। बस्ती में काफी परिवारों ने घर बनाने के लिए अपने रिष्तेदारों, परिचितों से उधार लिया है जो उनके पहले से ही कमजोर आर्थिक स्थिति पर एक ओर बोझ साबित हो रहा है। 

शुरुवात में कुछ परिवारों को 30 साल के लिए पट्टा वितरित किया गया है परन्तु ज्यादातर परिवारों को अभी तक पट्टा वितरित नही किया गया है। 

बस्ती में कच्ची सड़कें आवास के लिए दिये गये भूखण्ड से ऊॅची है इसको सड़क के बराबर लाने के लिए लोगों को काफी राषि खर्च करना पड़ रहा है।

कानासैया में शासकीय उचित मूल्य की दूकान नही है। जिसके कारण कानासैया के लोग विस्थापन से पहले जिस जगह रहते थे वही के षासकीय उचित मूल्य की दूकान से अभी भी अपना राषन लाते है। जिसके लिए वे हर महिने 30/40रु का किराया लगा कर राशन लेने के लिए अपने पुराने जगह जाते है।

अभी तक उन्ही लोगों के घरों में बिजली कनेक्शन दिया गया है जिन्हें पट्टा वितरित किया जा चुका है। बिजली के मीटर के लिए इन लोगों से 800 रु लिए गये हैं। ज्यादातर परिवारों को बिजली कनेक्शन नही दिये जाने के कारण लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। कानासैया मे बिजली की कटौती बहुत ज्यादा होती है।  इस बिजली कटौती के कारण रात में बस्ती अंधेरे में रहती है जिससे जहरीले कीड़ों का खतरा अधिक रहता है।

 बस्ती विस्थापन हेतू जो नियम/कानून हैं उनका पालन करना सरकार की जिम्मेदारी है। शासन द्वारा बनाये गए नियमों के अनुसार लोगों को पुर्नवास स्थल की जगह दिखाना, विस्थापित होने वाले सभी लोगों के हितों को ध्यान में रखकर लोगों से चर्चा करना, निर्धारित मुआवजा राषि व जरूरी सामान मुहैया कराना चाहिए परन्तु प्रषासन द्वारा इस तरह के नियमों को विस्थापन के समय ताक में रख कर इन बस्तीयों का विस्थापन किया गया है।

एक ओर तो जेएनयूआरएम के तहत मध्य प्रदेष के चार षहरों भोपाल, उज्जैन, जबलपुर व इंदौर की विकास योजनओं में यह दावा किया गया है कि सन् 2012 तक षहरों को ‘‘झुग्गी मुक्त, आवास युक्त’’ बना दिया जायेगा। लेकिन दूसरी ओर सरकार गरीबों को पट्टे देने की घोषणा करती है जिसका साफ मतलब है कि सरकार सबको आवास उपलब्ध कराने में अक्षम है। पट्टा कानून की षर्तों के अनुसार सरकार पट्टा प्रदाय बस्तियों को जब भी जरूरत होगी विस्थापित कर सकती है। यदि सरकार वास्तव में बस्तिवासियों को आवास की सुरक्षा देना चाहती है तो पट्टा देने की बजाए लोगों को जमीन का मालिकाना हक़ दे ताकि वे अपने घर की छत् पक्की कर सके और सुरक्षा व निष्चितता के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सके। 

लोगों का कहना है कि उन्हें उनके पूराने बस्तीयों से बेदखल करके नयी जगह भेज दिया गया है जहॉ वे अपने खून पसीने की कमायी और कर्ज लेकर उपलब्ध कराये गये भूखंड़ में फिर से मकान बना रहे हैं। उन्हें इस जमीन का स्थायी पट्टा और मालिकाना हक दिया जाये ताकि विस्थापन का यह सिलसिला टृटे और जिन्दगी की यह नई शंरुवात फिर से दोबारा ना करना पड़े।