अजेय कुमार
आज उन
कारणों पर विचार करने की जरूरत है कि टाटा-बिड़ला की चहेती पार्टी
कांग्रेस देश के पूंजीपतियों का विश्वास हासिल करने में क्यों नाकाम रही, जबकि नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने इसमें बाजी मार
ली। सरकारों से सभी तरह की रियायतें हासिल करने के आदी हो चुके पूंजीपति आज देश की
साधारण जनता को कोई भी सबसिडी या रियायत देने के पक्ष में नहीं हैं। और तो और, भोजन जैसी बुनियादी जरूरत के लिए भी अगर सरकार कोई रियायत
देती है या देना चाहे तो वह उनकी आंखों में चुभती है। खाद्य सुरक्षा कानून या किसी
भी तरह की न्यूनतम जन कल्याणकारी योजना अगर कांग्रेस लागू करती थी, तो पूंजीपति उसका विरोध करते थे। पूंजीपतियों को सारी
रियायतें अपने लिए चाहिए, जनता के
लिए नहीं। कांग्रेस ने अपने पूरे प्रचार अभियान में ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, रोजगार, किसानों
की समस्या जैसे मुद््दों को लिया। राहुल गांधी ने तो यहां तक कहा कि गुजरात में
मोदी ने जमीन कौड़ियों के भाव में उद्योगपतियों को दी तो विकास किसका हुआ?
राहुल
गांधी को याद दिलाना होगा कि आज देश के पूंजीपति क्या चाहते हैं। अगर
उन्होंने गुजरात में हुए, ‘वाइब्रेंट
गुजरात’ के वार्षिक सम्मेलनों की कार्यवाहियों को ध्यान से
जांचा-परखा होता तो वे यह खुल कर कहते कि गुजरात में जनता का नहीं, वहां के उद्योगपतियों का विकास हुआ।
पांच
वर्ष पूर्व 2009 के ‘वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मेलन
में अपने देश के दो अग्रणी उद्योगपतियों अनिल अंबानी और सुनील मित्तल ने खुले तौर
पर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत की। अनिल अंबानी ने कहा, ‘नरेंद्र मोदी ने गुजरात में बहुत अच्छा काम किया और आप
कल्पना कीजिए कि अगर वे देश का नेतृत्व करेंगे तो कितना कुछ हो जाएगा।’ उन्होंने इसके आगे जोड़ा कि ‘मोदी के
नेतृत्व में गुजरात ने सभी क्षेत्रों में तरक्की की है। आप सोचिए अगर उन्हें देश
का नेतृत्व करने का मौका मिलता है तो देश कितनी उन्नति करेगा। उनके जैसे लोगों को
आने वाले दिनों में देश का नेता बनना चाहिए।’
दूरसंचार
क्षेत्र में मुख्य निवेश करने वाली कंपनी भारती समूह के प्रमुखसुनील
मित्तल का कहना था, ‘मोदी को
सीइओ कहा जाता है, लेकिन
असल में वे सीइओ नहीं हैं, क्योंकि
वे कोई कंपनी या क्षेत्र का संचालन नहीं करते हैं। वे एक राज्य चला रहे हैं और देश
भी चला सकते हैं।’ इस अवसर
पर मौजूद टाटा ने भी मोदी की प्रशंसा के गीत गाए। उन्होंने कहा, ‘मोदी की अगुआई में गुजरात दूसरे सभी राज्यों से अग्रणी
है...सामान्य तौर पर किसी प्लांट को मंजूरी मिलने में नब्बे से एक सौ अस्सी दिन तक
समय लगता है, लेकिन ‘नेनो’ प्लांट
के संबंध में हमें सिर्फ दो दिन में जमीन और स्वीकृति मिल गई।’
बोलने
में तो नरेंद्र मोदी का जवाब नहीं। एक ऐसी ही बैठक में निवेशकों को संबोधित करते
हुए मोदी ने कहा था, ‘अगर आप
गुजरात की मिट््टी में एक रुपया बोओगे तो आपको उसके एवज में एक डॉलर मिलेगा।’
सेमिनार
पत्रिका (अप्रैल 2014) में अंगरेजी दैनिक ‘द हिंदू’ के पूर्व संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने लिखा कि 2011 के वाइब्रेंट गुजरात समारोह में मोदी का महिमामंडन मुकेश
अंबानी ने इन शब्दों में किया, ‘गुजरात
सोने के चिराग की तरह चमक रहा है और इसका श्रेय नरेंद्र मोदी की दूरदृष्टि, कारगर और भावप्रवण नेतृत्व को जाता है। नरेंद्र मोदी में
हमें एक कल्पनाशील नेतृत्व मिला है जिनके पास अपनी कल्पनाओं को वास्तव में लागू
करने की इच्छाशक्ति है।....2013 में मोदी
वंदना की जिम्मेदारी एक बार फिर अनिल अंबानी ने ली। उन्होंने नरेंद्र मोदी को
नेताओं के नेता कह कर उनकी प्रशंसा की और इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार अनिल अंबानी
ने श्रोताओं से मोदी को खड़े होकर सम्मानित करने का आग्रह किया और श्रोताओं ने इसे
सहर्ष स्वीकार किया।’
कहने का
तात्पर्य यह है कि मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने की तैयारी देश के
बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा कम से कम पांच वर्ष पूर्व शुरू हो चुकी थी। इन
तमाम कॉरपोरेट घरानों ने मोदी की प्रशंसा में केवल जुबानी जमा-खर्च नहीं किया, बल्कि करोड़ों रुपए उनके चुनाव-अभियान में भी खर्च किए। यह सब
तब किया गया जब वे भलीभांति जानते थे कि 2002 में
गुजरात में मोदी की छत्रछाया में ही राज्य-पोषित जनसंहार हुआ था। अलबत्ता
शुरू-शुरू में उद्योगपतियों के एक हिस्से ने आशंका जाहिर की थी कि जिस राज्य में
कानून-व्यवस्था की इस हद तक दुर्गति हुई हो वहां कौन निवेश करने का खतरा मोल लेगा? जब गुजरात दंगों की फसल काट कर मोदी राज्य में सत्ता में आए
तो फरवरी 2003 में कॉनफेडरेशन आॅफ इंडियन
इंडस्ट्री (सीआइआइ) ने मोदी के साथ एक बैठक दिल्ली में आयोजित की, जिसमें कुछ बड़े उद्योगपतियों जैसे गोदरेज, राहुल बजाज आदि ने गुजरात में व्याप्त असुरक्षा पर चिंता
जाहिर की और कहा कि इससे निवेश पर असर पड़ेगा।
नरेंद्र
मोदी इस आलोचना से बहुत कुपित हुए। उन्होंने गुजरात के उद्योगपतियों को
विरोध करने के लिए संगठित किया। लगभग सौ उद्योगपतियों ने सीआइआइ को छोड़ने की धमकी
दे डाली। विनोद के.जोस ने ‘कारवां’ (मार्च 2012) में लिखा, ‘इस धमकी के समक्ष सीआइआइ के महानिदेशक ने घुटने टेक दिए और
इस गलतफहमी के लिए क्षमा मांगते
हुए पत्र लिखा।’ आज
इस घटना के दस वर्ष बाद स्थितियां बिल्कुल उलट गई हैं। छोटे-से-छोटे उद्योगपति से
लेकर बड़े-से-बड़े उद्योगपति तक नरेंद्र मोदी को देश का ‘चौकीदार’ बनाने में सफल हुए
हैं। इसमें देश के ही नहीं, विदेशी उद्योगपतियों के संगठनों का भी हाथ रहा।
अमेरिका-भारत व्यापार परिषद के अध्यक्ष रॉन सॉमर्स ने 2013 के वाइब्रेंट गुजरात
सम्मेलन में गुजरात के विकास को ‘चौंकाने वाला’ कहा था। अमेरिका की जनसंपर्क कंपनी ‘ऐपको वर्ल्डवाइड’ ने केवल मोदी के लिए
प्रचार ही नहीं किया, बल्कि अमेरिकी सरकार और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय
पूंजी के साथ उनके संबंधों को भी मजबूत करने में अपनी भूमिका निभाई।
कांग्रेस से
उद्योगपतियों की नाराजगी का एक और कारण भी रहा। कांग्रेस के ही शासनकाल में राजनीतिकों और
उद्योग जगत की मिलीभगत से हो रहा भ्रष्टाचार उजागर हुआ। उद्योगपतियों को
भ्रष्टाचार से कभी परहेज नहीं रहा। वे केवल इतना चाहते हैं कि सरकार भ्रष्टाचार का
सुचारु प्रबंधन करे ताकि भ्रष्टाचार का खेल हमेशा की तरह चलता रहे और उद्योगपतियों
की साख भी बची रहे। इस मुद््दे को लेकर न्यायपालिका की अति-सक्रियता के आगे सरकार
की लाचारी भी उद्योगपतियों को हजम नहीं हुई। उन्हें तो ऐसी सरकार और ऐसा नेता
चाहिए जो सक्षम हो, बिना किसी संकोच के
निर्णय ले सके और उद्योगपतियों को जमीन, बिजली, पानी और ऋण मुफ्त दे सके। वह उन तमाम
रुकावटों को बेहिचक बिना समय गंवाए दूर कर सके जो उनके रास्ते में बाधा डालती हों।
मोदी ने जब टाटा को गुजरात में नेनो फैक्ट्री लगाने का आमंत्रण दिया तो उन्होंने
वहां घोषणा की,
‘पूरा गुजरात ही विशेष आर्थिक क्षेत्र
है। वे कहीं भी उद्योग लगा सकते हैं।’ ऐसा दरियादिल नेता
पूंजीपतियों को और कहां मिलेगा?
एक और वजह भी है जो मोदी पूंजीपति वर्ग के चहेते बने
हुए हैं। पूंजीपतियों ने जो कई हजार करोड़ भाजपा के चुनाव अभियान में खर्च किए हैं, जाहिर है वे उसे वसूलेंगे भी। फिर
महंगाई नियंत्रण, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के मदों पर खर्च करने के बजाय कॉरपोरेट घरानों को अधिक
सुविधाएं देने पर निर्णय लिए जाएंगे। एसोचैम ने तो अभी से सरकार को सुझाव दे डाला
है कि सार्वजनिक क्षेत्र की नवरत्न कंपनियों के शेयर बेच कर एक लाख करोड़ रुपयों का
इंतजाम तो फौरन हो सकता है। जाहिर है, सरकार जब भी ऐसे
कदम उठाएगी,
असंतोष पैदा होगा। इस असंतोष को
कुचलने के प्राय: दो रास्ते भारतीय राज्य अपनाता रहा है। पहला, पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग, जिसमें प्रशासन की मुख्य भूमिका होती
है। दूसरा है,
सांप्रदायिक दंगे करवाना, ताकि जनता आपस में ही गुत्थम-गुत्था
होती रहे और सरकार अपनी जन-विरोधी नीतियां लागू करती रहे।
मोदी इन दोनों में
ही माहिर हैं। प्रशासन में उच्च
पदों पर वे केवल अपने आदमियों को रखते हैं ताकि मुसीबत के समय वे हुक्म बजाने में
देर न करें। गुजरात का अनुभव बताता है कि जिन प्रशासनिक अफसरों ने सरकारी आदेश को
मानने के बजाय अपनी आत्मा की आवाज को सुना, उन्हें किनारे कर
दिया गया। उन्हें इतना प्रताड़ित किया गया कि वे खुद इस्तीफा देकर अलग हो जाएं।
सरकार में भी किसी किस्म के विरोधी स्वर को मोदी
ने कभी बर्दाश्त नहीं किया। हरेन पांड्या, संजय जोशी, केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता, हरेन पाठक केवल कुछ नाम हैं जिन्हें
रास्ते से हटा दिया गया। इसलिए आज भारतीय जनता पार्टी के लिए परीक्षा की घड़ी भी है, जिसमें कई सहमे हुए चेहरे, जो समय-समय पर अपने स्वतंत्र विचार
व्यक्त करते आए हैं, अपने भविष्य को
लेकर आशंकित हैं। बड़े पूंजीपतियों के लिए तानाशाही प्रवृत्ति होना बेशक एक गुण हो, पर लोकतंत्र के लिए और विरोधी मत के
लिए वह एक गंभीर खतरा पेश करती है।
सांप्रदायिक छवि से निजात पाना नरेंद्र मोदी के लिए
एक बड़ी चुनौती है। ‘हम पांच, हमारे पच्चीस’ जैसे नारों का प्रयोग तो वे निरंतर
करते रहे हैं। जब गुजरात पुलिस ने सोहराबुद्दीन और उसकी पत्नी की नकली मुठभेड़ में
सरेआम हत्या की तो मोदी ने 2007 में एक चुनाव सभा
में लोगों से अपने खास अंदाज में, जिसमें वे माहिर
हैं, पूछा, ‘आप मुझसे और मेरे आदमियों से क्या चाहते हैं कि हम सोहराबुद्दीन
जैसे आदमी से कैसे निबटें?’ तब भीड़ जोर से
चिल्लाती थी,
‘उसे कत्ल कर दो’।
भारतीय शासक वर्ग आज निश्चिंत है कि उन्होंने एक ऐसे
निरंकुश व्यक्तित्व को देश की कमान सौंपी है, जो उनके हितों को
चुनौती देने वाली हर आवाज को खामोश कर सके। उम्मीद की किरण केवल इतनी है कि
उनहत्तर प्रतिशत मतदाताओं ने मोदीत्व को इस चुनाव में नकारा है।
जनसत्ता से साभार
0 Comments
Post a Comment