-फैज़ कुरैशी 


पिछले 70-80 सालों में भारत में क्रांति शब्द बहुत प्रचलित हुआ है और भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त भी किया जाता रहा है वह भी अपनी सुविधानुसार। किन्तु मूल रूप में इसका अर्थ है - आमूल चूल  परिवर्तन, इन्क़लाब याने मुकम्मील बदलाव। 

आजादी के समय याने 1947 तक इस शब्द को बोलने के लिये आस्था और वैचारिक दृढ़ता की ज़रूरत होती थी। परन्तु 47 के बाद से आज यह हालात हैं कि क्रांति की बात करना इतना आसान हो गया है कि चाय पीते हुए चुटकुला सुनाना।

सवाल यह है कि आज क्रांति की ज़रूरत है या नहीं ? यदि हम क्रांति  को व्यापक परिवर्तन लाने के रूप में लेते हैं तो कहना होगा कि इसकी ज़रूरत पहले भी थी और आज भी है। क्रांति होगी दमित - शोषित लोगों के इकट्ठा होकर इस राज्य सत्ता, पूंजिपतियों, भ्रष्ट राजनेताओं और व्यवस्थापकों के खिलाफ खड़े होने से । जब हम यह ठान लेंगे कि बस अब बहुत हो चुकाइस पुरी व्यवस्था को बदलना होगा। 

पर क्रांति करे कौन ? भगत सिंह, पर वो तो शहीद हो गये। फिर भगत सिंह की ज़रूरत तो है पर पैदा हों तो - पड़ौस के घर में हमारे घर में नहीं ! आज हमारी आबादी का 55 प्रतिशत वर्ग युवा है, अधिकतर बेरोज़गार है, पूंजीवादी व्यवस्था का सबसे बड़ा मोहरा है। यह सब जानने और पहचानने के बाद भी वह व्यस्त है, मोबाईल पर या नेट पर और जिनकी पहुंच इससे बाहर है वह हमारे चौराहे और राजनेताओं की रैलियां आबाद करने में जुटा है। वैचारिक दृष्टि से अबल है, राजनीति से प्रेरित है परन्तु राजनैतिक चेतना से अछूता है। भगत सिंह, चे ग्वेरा, आज़ाद, राजगुरू, सुखदेव, असमां आदि जितनी नहीं पर उनसे आधी चेतना भी यदि होती तो ---........................

हम  भारतीय हूँ  ! यह हमें मानने में कोई 100-200 साल लगेंगे? क्योंकि पिछले 100 सालों से तो मैं हिन्दू, मुसलमान, ब्राहमण   दलित, महिला या पिछड़ा हूँ  और मेरे आकाओं की राजनीत तो ऐसे ही चलेगी। तो फिर काहे की क्रांति........................... और इसकी ज़रूरत क्या ? हमारे देश में भ्रष्टाचार, पिछड़ापन, भूखमरी, बेरोज़गारी, असमानता, जातीय-धार्मिक-लिंग भेद और ना जाने क्या-क्या हैं ! मगर इनकी ज़रूरत तो हमारी राजनीति चलाने की है ।

हम भ्रष्टाचार के मुद्दे पर क्रांति करेंगे ! वह भी मात्र एक  और बिल या कानून पास करा कर  ! भई कैसे - जब कि पूरा तंत्र ही भ्रष्टाचार में डूबा हो, सिर्फ वही नहीं कर पाया जिसे अवसर नहीं मिला । 


फिर किस मुद्दे पर गरीबी और भूखमरी रोककर आर्थिक समानता के लिये ! लकिन कैसे ? हमारा पूरा मध्य वर्ग  तो पूंजीपतियों की चाकरी करने मैं या  जन लोक पाल बिल के लिए मोमबत्ती जालाने मैं  व्यस्त है   हमारे देश  के गरीबों की सहनशीलता तो भयंकर है, 4-5 दिन फाके में निकालना और भगवान को दोश देना सहनशीललता का एक बड़ा उदाहरण है। अर्जुन-सेन-गुप्ता की रिर्पोट भी बताती है कि हमारे देश  की 70 प्रतिशत  आबादी 20 रूप्ये या इससे भी कम पर प्रतिदिन अपना गुजारा करती है। अब तो नई रिपोर्ट के हिसाब से 5 प्रतिशत गरीब भी कम कर दिये गये ! वहीं दूसरी ओर हमारे 300 से अधिक नेता करोड़पति हैं, विश्व  के शीर्ष 10 अरबपतियों की सूची में हमारे देश से 4 नाम हैं। इसका क्या अर्थ है

तो कुल मिला कर भई क्रांति तो नहीं होगी । अभी तो बिल्कुल नहीं ......