केदारनाथ अग्रवाल (1911 -2000} प्रगतिशील काव्य-धारा के एक प्रमुख कवि हैं। यह उनका जन्म सदी वर्ष है प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ ….



नहीं मरेगा .... नहीं मरेगा ...


जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा 



मात देना नहीं जानतीं

घर की फुटन में पड़ी औरतें
ज़िन्दगी काटती हैं
मर्द की मौह्ब्बत में मिला
काल का काला नमक चाटती हैं

जीती ज़रूर हैं
जीना नहीं जानतीं;
मात खातीं-
मात देना नहीं जानतीं

बंद आँखें : खुली आँखें

 


बंद आँखें
नींद में
देखती हैं
सुबह का सपना
खुली आँखें
धूप में 
देखती हैं
रात की रचना

आज नदी बिलकुल उदास थी


आज नदी बिलकुल उदास थी। 
सोई थी अपने पानी में, 
उसके दर्पण पर- 
बादल का वस्त्र पडा था। 
मैंने उसको नहीं जगाया, 
दबे पांव घर वापस आया।