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यह अकारण नहीं कि एक निम्नमध्यमवर्गीय परिवार में आठ भाई बहनो के बाद जनमी इरोम नन्दा और इरोम सखी की यह सबसे छोटी कन्या इरोम शर्मिला थानु, जो बारहवीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई भी पूरी न कर सकी थी, आज समूचे मणिपुर की ‘लौह महिला’ के नाम से जानी जाती है। सोचने का मुद्दा यह बनता है कि उपरोक्त पंक्तियों की रचयिता मणिपुर की महान कवयित्रि, स्तम्भकार और सामाजिक कार्यकर्ती इरोम शर्मिला थानु ( उम्र 34 साल) ने ऐसा क्या किया है कि वह जीते जी मिथक में तब्दील हो चुकी हैं। वजह बिल्कुल साफ है।
वह 2 नवम्बर 2000 की बात है जब मणिपुर की राजधानी इम्फाल से लगभग 15-16 किलोमीटर दूर मालोम बस स्टैण्ड पर सुरक्षा बलों द्वारा अंधाधुंध गोली चलाने से दस निरपराध लोगों की मौत हुई थी। इरोम शर्मिला उस वक्त मालोम में ही एक बैठक में थी, जो एक शान्ति रैली के आयोजन के लिए बुलायी गयी थी। अगले दिन के अख़बार के पहले पन्नों पर मारे गये लोगो की तस्वीरें थीं। इरोम को उस वक्त लगा कि ऐसी परिस्थिति में शान्ति रैली का आयोजन बेमानी साबित होगा और उसने वही निर्णय लिया कि ‘जिन्दगी की सरहद पर जाकर ऐसा कुछ किया जाये’ ताकि सुरक्षा बलों की यह ज्यादती रूके।
लोगों को याद होगा कि उन्हीं दिनों मणिपुर की जनता के बढ़ते असन्तोष को देखते हुए सरकार ने इस अधिनियम की समीक्षा के लिए एक कमेटी भी गठित की थी, जिस कमेटी ने साफ तौर पर सिफारिश की थी कि इस अधिनियम को हटा दिया जाये। यह जुदा बात है कि सुरक्षा कारणों का हवाला देकर सरकार ने कमेटी की सिफारिशों को खारिज कर दिया था।
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